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कविता करना अनंत पुण्य का फल है। इस दुराशा ओर अनंत उत्कंठा से कवि-जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई। संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर हृदय को धोखा देता रहा। परंतु केसी विडंबना! लक्ष्मी के लालों का भ्रू-भंग ओर क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्‍या! एक काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन, जो दूसरों की दया में अपना अस्तित्व रखता है! संचित हृदय कोष के अमूल्य रत्नों की उदारता और दारिद्रय का व्यंग्यात्मक कठोर अटटहास, दोनों की विषमता की कोन-सी व्याख्या होगी।

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद के नाटक 'स्कंदगुप्त से ली गई है, इन पंक्तियों” में मातृगुप्त अपने कवि-जीवन की कठिनाइयों एवं निराशा को व्यक्त करते हुए कहता है कि

व्याख्या-न जाने कितने पुण्यों के फल से कविता करने की शक्ति प्राप्त होती है। मैंने जब स्वयं को उस शक्ति से सम्पन्न पाया, तो मेरे हर्ष का ठिकाना न रहा। कारण, मुझे अपने कर्मों पर विश्वास न था, मैं नहीं समझता था कि मैंने कभी इतने सत्कर्म किये होंगे कि मैं कविता करने में समर्थ हो सकूं। अतः कवि जीवन मेरे लिए स्वष्निल, मधुर जीवन के सिवाय और कुछ न था। फिर भी कवि-जीवन मुझे इतना रुचिकर प्रतीत हुआ कि मैंने कवि बनने का निश्चय कर लिया और कवि बन भी गया। किन्तु क्‍या मैं सुखी बन सका ? कवि-जीवन के आरम्भ से ही मुझे नाना प्रकार के अभाव सताते रहे । इनके कारण मैं अपने जीवन में असंतुष्ट रहने लगा। अभावों को असंतोष कहकर अपने आपको बहलाता-बहकाता रहा। धनवानों ने मुझे सम्मान के स्थान पर अपमानित किया। मेरे जीवन को अत्यंत तुच्छ एवं दीन-हीन समझा । मैं कवि के आदर्श के अनुसार कल्पनालोक में विचरण करता रहा - जीवन और संसार की वास्तविकताओं से मुंह मोड़े रहा । फलतः मेरी कविता-चातुरी पर अनेक लोगों ने प्रशंसा के पुष्प बरसाये, किन्तु सच्ची सहानुभूति एवं गुण-ग्राहकता से वंचित ही रहा । इसे मेरा दुर्भाग्य ही समझना चाहिए । जो थोड़ी-बहुत ख्याति मैंने अर्जित की, वह काल्पनिक एवं मनोरंजन की वस्तु रही, उसमें किसी प्रकार का सारतत्त्व नहीं। मेरा सारा जीवन दूसरों की दया पर निर्भर रहा, मैं दूसरों की कृपा का अभिलाषी ही नहीं, वरन भिखारी बना रहा।

   मेरे जीवन में दो विरोधी तत्त्व निवास करते हैं- एक ओर तो मेरा हृदय रूपी सागर असंख्य उदार भाव-रत्नों से परिपूर्ण है और दूसरी ओर मेरा जीवन निर्धनता, निरादर एवं कटठाक्षपूर्ण व्यंग्यों से अभिशष्त है। इन दो विरोधी स्थितियों में समन्वय किस प्रकार सम्भव है ? अपमान और निर्धानता के प्रकोप के समक्ष उदार भाव-रत्न कब तक अपना अस्तित्व बनाये रखेंगे । कविता द्वारा मैंने अपने हृदय के समस्त सात्विक उद्गार दूसरों को अर्पित कर दिये- यही मेरी अक्षय सम्पदा थी। परन्तु बदले में मुझे मिली - समाज की अवहेलना, उपेक्षा और दरिद्रता। मनोरथ जैसे दिग्गज बौद्ध पण्डित को भी मैंने शास्त्रार्थ में पराजित किया, किन्तु मुझे कोरी वाहवाही के और क्या मिला ? धनवानों की वक्र दृष्टि और निर्धनता का प्रकोप मेरे जीवन को ज्यों-का-त्यों ग्रस्त किए रहा। सारांश यह है कि प्रतिभा होते हुए भी, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद मुझे जीवन में दरिद्रता तथा अपमान ही मिले |

विशेष-1. पंक्तियों का विन्यास गद्य-गीत की सी काव्यमयता एवं सरसता लिए हुए है।

2. प्रसाद जी ने मातृगुप्त के माध्यम से वर्तमान कवि-जीवन की विडम्बना की भी अत्यंत मार्मिक व्याख्या की है। मातृगुप्त भारत के भूखे साहित्यकार का प्रतिनिधित्व करता है |

3. कविता करना अनंत पुण्य का फल है” सूक्ति बन गया है ।

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