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संस्कृत साहित्य

विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वोच्च स्थान है । विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रत्न है । भारतीय संस्कृति का रहस्य इसी भाषा में निहित है । संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान कभी सम्भव नहीं है ।

अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है । आज भी भारत की समस्त भाषाएं इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं | पाश्चात्य विद्वान इसके अतिशय समृद्ध और विपुल साहित्य को देखकर आश्चर्य-चकित होते रहे हैं । भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है ।

विश्व की समस्त प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य (वाडमय) में संस्कृत का अपना विशिष्ट महत्व है । यह महत्व अनेक कारणों और दृष्टियों से है। भारत के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन एवं विकास के सोपानों की संपूर्ण व्याख्या संस्कृत वाड़ः मय के माध्यम से आज उपलब्ध है। सहस्राब्दियों से इस भाषा और इसके वाडमय को भारत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त रही है। भारत की यह सांस्कृतिक भाषा रही है| सहमस्राब्दियों तक समग्र भारत को सांस्कृतिक और भावात्मक एकता में आबद्ध रखने का इस भाषा ने महत्वपूर्ण कार्य किया है । इसी कारण भारतीय मनीषा ने इस भाषा को अमरभाषा या देववाणी के नाम से सम्मानित किया है ।

ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्वप्राचीन उपलब्ध स्वरूप है | ऋग्वेदसंहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है । यहां यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेदसंहिता केवल संस्कृतभाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है-अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ हैं । अतः संपूर्ण भारतीय संस्कृति वेदव्यास की युग-युग तक ऋणी बनी रहेगी ।

इसका रचनाकाल ईसा से 5500-5200 पूर्व माना जाता है | भारतीय विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ 4500 ई.पू. से माना है, परन्तु यूरोपीय विद्वान इनकी रचना का काल ईसा से 2000-1100 पूर्व मानते हैं। 

वेद, वेदांग, उपवेद

यहां साहित्य शब्द का प्रयोग “वाडमय के लिए है | ऊपर वेद संहिताओं का उल्लेख हुआ है । वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद| इनकी अनेक शाखाएं थीं, जिनमें बहुत-सी लुप्त हो चुकी हैं और कुछ सुरक्षित बच गई है, जिनके संहिताग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं । इन्हीं की शाखाओं से संबद्ध ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद्‌ नामक ग्रंथों का विशाल वाडमय प्राप्त हैं। वेदांगों में सर्वप्रमुख कल्पसूत्र हैं, जिनके अवांतर वर्गों के रूप में और सूत्र, गृहयसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी है) का भी व्यापक साहित्य बचा हुआ है । इन्हीं की व्याख्या के रूप में समयानुसार धर्मसंहिताओं और स्मृतिग्रंथों का जो प्रचुर वाडमय बना, मनुस्मृति का उनमें प्रमुख स्थान है। वेदांगों में शिक्षा-प्रातिशाख्य, व्याकरण, निरुक्‍्त, ज्योतिष, छंद शास्त्र से संबद्ध ग्रंथों का वैदिकोत्तर काल से निर्माण होता रहा है। अब तक इन सबका विशाल साहित्य उपलब्ध है । आज ज्योतिष की तीन शाखाएं-गणित, सिद्धांत और फलित विकसित हो चुकी हैं और भारतीय गणितज्ञों की विश्व की बहुत-सी मौलिक देन हैं | पाणिनि और उनसे पूर्वकालीन तथा परवर्ती वैयाकरणों द्वारा जाने कितने व्याकरणों की रचना हुई जिनमें पाणिनि का व्याकरण-संप्रदाय 2500 वर्षों से प्रतिष्ठित माना गया और विश्व भर में उसकी महिमा मान्य हो चुकी हैं । पाणिनीय व्याकरण को त्रिमुनि व्याकरण भी कहते हैं क्योंकि पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि इन तीन मुनियों के सत्प्रयास से यह व्याकरण पूर्णता को प्राप्त किया | यास्क का निरुक्‍्त पाणिनि से पूर्वकाल का ग्रंथ है और उससे भी पहले निरुक्तिविद्या के अनेक आचार्य प्रसिद्ध हो चुके थे । शिक्षाप्रातिशाख्य ग्रंथों में कदाचित ध्वनिविज्ञान, शास्त्र आदि का जितना प्राचीन और वैज्ञानिक विवेचन भारत की संस्कृत भाषा में हुआ है-वह अतुलनीय और आश्चर्यकारी है। उपवेद के रूप में चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेद विद्या का वैदिकाल से ही प्रचार था और उसके पंडिताग्रंथ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भेडसंहिता आदि) प्राचीन भारतीय मनीषा के वैज्ञानिक अध्ययन की विस्मयकारी निधि है । इस विद्या के भी विशाल वाडममय का कालांतर में निर्माण हुआ | इसी प्रकार धनुरवेद और राजनीति, गांधर्ववेद आदि को उपवेद कहा गया है तथा इनके विषय को लेकर ग्रंथ के रूप में अथवा प्रसंगतिर्गत संदर्भों में पर्याप्त विचार मिलता है ।

दर्शनशास्त्र

वेद, वेदांग, उपवेद आदि के अतिरिक्त संस्कृत वाडमय भी अत्यंत विशाल है । पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक और न्याय-इन छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त पचासों से अधिक आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के नाम तथा उनके वाडमय उपलब्ध हैं, जिनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन, जगत्पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा आदि के संदर्भ में अत्यंत प्रौढ़ विचार हुआ है । 

लोकिक साहित्य

कीटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाटयशास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं-जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाडमय में स्थान है ।

वैदिक वाडमय के अन्तर सांस्कृतिक दृष्टि से वाल्मीकि के रामायण और व्यास के महाभारत की भारत में सर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्ध स्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिक गाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवन चित्रों आदि के साथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है | वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है । उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है । इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों को महाविशाल वाडमय है जिनमें पौराणिक या मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृतिक इतिहास अनुबद्ध है | इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय संस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है ।

संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली, जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है | कवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है । अश्वघोष, भास, भवभूति बाणभटट, भारवि माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखादत्त आदि कवि और नाटककारों को अपने-अपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक नाटकों के विचार से भी भारत का नाटक साहित्य अत्यंत संपन्‍न और महत्वशाली है। साहित्यशास्त्रीय समालोचन पद्धति के विचार से नाटयशास्त्र और साहित्यशास्त्र के अत्यंत प्रौढ़, विवेचनपूर्ण और मौलिक प्रचुरसख्यक कृतियों का संस्कृत में निर्माण हुआ है । सिद्धांत की दृष्टि से रसवाद और ध्वनिवाद के विचारों को मौलिक और अत्यंत व्यापक चिंतन माना जाता है। स्रोत, नीति और सुभाषित के भी अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त शिल्प, कला, संगीत, नृत्य आदि उन सभी विषयों के प्रौढ़ ग्रंथ संस्कृत भषा के माध्यम से निर्मित हुए हैं, जिनका किसी भी प्रकार से आदिमध्यकालीन भारतीय जीवन में किसी पक्ष में साथ संबंध रहा है । ऐसा समझा जाता है कि द्यूतविद्या चौरविद्या आदि जैसे विषयों पर ग्रंथ बनाना भी संस्कृत पंडितों ने नहीं छोड़ा था। एक बात और थी | भारतीय लोकजीवन में संस्कृत की ऐसी शास्त्रीय प्रतिष्ठा रही है कि ग्रंथी की मान्यता के लिए संस्कृत में रचना को आवश्यक माना जाता था | इसी कारण बीद्धों और जैनों, के दर्शन, धर्मसिद्धांत, पुराणगाथा आदि नाना पक्षों के हजारों ग्रंथों को पालि या प्राकृत में ही नहीं संस्कृत में सप्रयास रचना हुई है । संस्कृत विद्या की न जाने कितनी महत्वपूर्ण शाखाओं का यहां उल्लेख भी अल्पस्थानता के कारण नहीं किया जा सकता है, परन्तु निष्कर्ष रूप से पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत की प्राचीन संस्कृत भाषा-अत्यंत समर्थ, संपन्‍नन और ऐतिहासिक महत्व की भाषा है । इस प्राचीन वाणी का वाडमय भी अत्यंत व्यापक, सर्वतोमुखी, मानवतावादी तथा परमसंपन्न रहा है | विश्व की भाषा और साहित्य में संस्कृत भाषा और साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वशाली है । समस्त विश्व में प्रच्यविद्याप्रेमियों ने संस्कृत को जो प्रतिष्ठा और उच्चासन दिया है, उसके लिए भारत के संस्कृतप्रेमी सदा कृतज्ञ बने रहेंगें।

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