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भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में आजाद हिन्द फौज की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखिए।

 22-24 अक्टूबर, 1943 को आधी रात को आजाद हिन्द सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। अमेरिका को इसलिए शामिल किया गया क्‍योंकि भारतीय धरती पर अमेरिकी सेनाएँ थीं। हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता की माँगों के प्रति सहानुभूति रखता था।

एक वर्ष के भीतर, लाखों भारतीय प्रवासियों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में नागरिकता की शपथ पर हस्ताक्षर करके घोषणा कीः

'मैं, आजाद हिन्द संघ (इंडियन इंडिपेन्डेंस लीग) का एक सदस्य ईश्वर के नाम पर सत्यनिष्ठा से वादा करता हूँ और यह पवित्र शपथ लेता हूँ कि मैं आजाद हिन्द की अस्थाई सरकार के प्रति पूरी तरह से वफादार रहूँगा, और सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में, अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कोई भी बलिदान देने के लिए हमेशा तैयार रहूँगा' (सुगतो बोस में उद्धृत: 259)।

जापान सरकार ने आजाद हिन्द सरकार को कूटनीतिक और सैन्य मदद का वादा किया। बोस ने उन्हें आई एन ए को एक अधीनस्थ संगठन के रूप में नहीं बल्कि एक सहयोगी सेना के रूप में मानने के लिए राजी कर लिया। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का कानूनी नियंत्रण जापानियों द्वारा आजाद हिन्द सरकार को दिया गया था, हालांकि जापानियों ने अपना सैन्य नियंत्रण बरकरार रखा था।

जनवरी 1944 में आजाद हिन्द सरकार के मुख्यालय को सिंगापुर से बर्मा में स्थानांतरित कर दिया गया। बोस ने एक पूर्ण कैबिनेट और मंत्रियों, आजाद नेशनल बैंक, अपने स्वयं के डाक टिकट और एक राष्ट्रीय मुद्रा के साथ सरकार का एक वैकल्पिक ढाँचा तैयार किया।

'सुभाष ब्रिगेड' के नाम से जानी जाने वाली अग्रिम छापामार इकाई पहले ही वहाँ जा चुकी थी। जापानी सेना भी आक्रमण के लिए तैयार थी। हालांकि जापानी आई एन ए सैनिकों के छोटे समूहों को बड़ी जापानी इकाइयों के साथ जोड़ना चाहते थे, परन्तु बोस ने भारतीय सैनिकों को जापानी कमान और नियन्त्रण के अधीन करने से इंकार कर दिया, और आई एन ए के लिए एक स्वतंत्र भूमिका और पहचान पर जोर दिया। उनका यह भी दृढ़ विश्वास था कि भारतीय सैनिकों का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता के लिए अधिक मायने रखता था।

यह सहमति हुई कि आई एन ए की एक बटालियन ब्रिटिश पश्चिम अफ्रीकी डिवीजन के खिलाफ लड़ाई में शामिल होगी। उसके बाद आई एन ए भारतीय क्षेत्र में कोहिमा और इंफाल की ओर बढ़ेगा। फरवरी में कुछ आई एन ए इकाइयों ने बर्मा में अंग्रेजों के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी थी। फिर मार्च, 1944 में, आई एन ए जापानी सेनाओं के साथ, इन्डो बर्मा सीमा को पार करके इंफाल और कोहिमा की ओर बढ़ीं। भारतीय सैनिक अपने ही देश में होने से बहुत खुश और उत्साहित थे। इस मोर्चे पर, लगभग 84,000 जापानी और 12,000 आई एन ए सैनिकों ने लगभग एक लाख पचास हजार ब्रिटिश सैनिकों का सामना किया। जापानी सैनिक अपनी गति बनाए रखने के लिए अपने साथ ज्यादा राशन नहीं लाए थे और उन्होंने कोहिमा और इंफाल पर शीघ्र कब्जा करने पर अपनी आशा टिका रखी थी। अप्रैल, 1944 में, वे इंफाल और कोहिमा पर कब्जा करने के बहुत करीब लग रहे थे, क्योंकि उन्होंने इंफाल की घेराबन्दी कर ली थी। आई एन ए के सैनिक बहुत अच्छे से लड़ रहे थे और उनका हौसला बहुत बुलन्द था। उन्होंने इंफाल से थोड़ी दूर मोइरंग में भारतीय तिरंगा झंडा फहराया था। आजाद हिन्द के नेताओं, सैनिकों और आमतौर पर इसके अनुयायियों में काफी आशावाद था। एक 'स्वतंत्र भारत” बहुत ही पास आता लग रहा था।

हालांकि, ब्रिटिश नेतृत्व वाली सेनाओं द्वारा अब दिए गए कड़े प्रतिरोध के कारण, घेराबन्दी लम्बी हो गई थी। घेराबन्दी के साढे तीन माह के दौरान कठिन परिस्थितियों में उनका सीमित राशन खत्म हो रहा था। जबकि ब्रिटिश सैनिकों को वायुमार्ग से निरन्तर अमेरिकी आपूर्ति द्वारा राशन की आपूर्ति की जा रही थी, जापानी वायु समर्थन बहुत सीमित और अर्प्याप्त था। मई, 1944 में विश्व युद्ध के कुछ भीषण युद्ध यहाँ लड़े गए थे। इन लड़ाइयों में आई एन ए के ब्रिगेड भी शामिल थे।

दुर्भाग्य से, उस वर्ष मानसून की बारिश जल्दी आ गई । बहुत तेज बारिश शुरू हो गई जिसने रास्तों को मिटा दिया और पूरे क्षेत्र को दलदली बना दिया। लड़ाई के मोर्चे पर करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं था और इंतजार करना ही एकमात्र विकल्प था। पहले से ही परिवहन की समस्याओं और आपूर्ति की कमी का सामना कर रहे आई एन ए और जापानी सैनिक मलेरिया से पीड़ित हो रहे थे और वन क्षेत्रों में फँसे हुए दवाओं को प्राप्रा करना मुश्किल था। फिर भी, सैनिकों के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व एशिया में रह रहे भारतीयों की मनोदशा अभी भी आशावादी थी। गतिरोध पूरे जून और जुलाई के शुरुआती सप्ताह में जारी रहा। फिर, दस जुलाई को, जापानियों ने बोस को सूचित किया की अब वहाँ रहना कठिन होगा और उन्हें युद्ध के उस रंगमंच से पीछे हटना होगा। आई एन ए की इकाइयाँ भी बहुत अव्यवस्थित थीं क्योंकि मलेरिया सहित कई बीमारियों के प्रसार के साथ-साथ भोजन और दवाओं की भारी कमी थी। अब पीछे हटना ही एकमात्र विकल्प था जो जुलाई के तीसरे सप्ताह में हुआ। बाद में छब्बीस जुलाई को जापान ने पूर्वोत्तर भारत में अभियान को स्थागित करने की घोषणा की।

पीछे हटते हुए बीमारियों और भूखमरी के कारण बहुत से सैनिक मारे गए और अनेक बीमार और घायल हुए।

बोस ने 21 अगस्त, 1944 को एक रेडियो सम्बोधन में स्वीकार किया कि पूर्वोत्तर भारत पर नियंत्रण करने की आई एन ए की कोशिश सफल नहीं रही थी। उनके अनुसार.. सफलता की कमी के लिए जल्दी मानसून का आना और यागायाण की समस्या जिम्मेदार थी। मानसून आने से पहले आई एन ए और जापानी सैनिक बहुत अच्छा कर रहे थे. लेकिन उसके बाद इस स्थिति को बनाए रखना मुश्किल हो गया। उन्होंने उम्मीद नहीं खोई और सैनिकों को अगले दौर के कार्य के लिए तैयार रहने का आह्वान किया। हालांकि पूर्वोत्तर कार्यवाही में भाग लेने वाले आई एन ए के अधिकांश सैनिकों को अब लड़ाई से अलग कर दिया गया था, लेकिन सैनिकों का एक बड़ा दल मलाया से बर्मा आया था जो कार्यवाही के लिए तैयार थे। तब तक युद्ध बर्मा तक पहुँच चुका था और ब्रिटिश और अमेरिकी सेनाएँ जापानियों को वहाँ से खदेड़ने की कोशिश कर रहीं थी। आई एन ए के जवान भी लड़ाई में शामिल थे। उन्हें मलाया में भी ब्रिटिश अमेरिकी सेना के खिलाफ तैनात किया गया था।

बर्मा में इरावदी के तटपर, आई एन ए फौजों ने फरवरी, 1945 में ब्रिटिश सेना का सामना किया। उन्होंने अनेक अंग्रेजों को हताहत किया और कुछ समय के लिए नदी पार करने से रोक दिया। अमेरिकीयों के भारी वायु समर्थन के बावजूद, ब्रिटिश सेना ज्यादा आगे नहीं बढ़ी और मार्च, 1945 में भी गतिरोध जारी रहा।

अब कुछ आई एन ए के अधिकारों अंग्रेजों के पक्ष में चले गए थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बर्मा की सरकार, अन्ततः जापानी हार को भांपते हुए उनके खिलाफ हो गई और आगे बढ़ रहे अंग्रेजों के पक्ष में हो गई। इसने बोस के लिए एक बड़ी समस्या पैदा कर दिया। उन्होंने बर्मा की सरकार के साथ बातचीत की कि उनके सैनिक एक दूसरे के खिलाफ नहीं लड़ेंगे।

हालांकि, इन समस्याओं के बावजूद, आई एन ए के सैनिकों ने अप्रैल में माउंट पोषा के आसपास बहादुरी से लड़ाई लड़ी। लेकिन बेहतर ब्रिटिश सेना के सामने बहुत सारे सैनिकों को खोने के बाद उन्हें पीछे हटना पड़ा। अब यह स्पष्ट हो गया था कि आई एन ए यह युद्ध नहीं जीत सकती, लेकिन वह लड़ती रही। 29 अप्रैल, 1945 को प्रेम कुमार सहगल को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और 18 मई को शाहनवाज खान और गुरूबख्श सिंह ढिल्लों को बन्दी बना लिया गया।

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