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विद्यापति की काव्य संवेदना में मौजूद भक्ति और श्रृंगार के द्वंद्व का मूल्यांकन कीजिए।

विद्यापति के मूल्यांकन से पूर्व भक्ति-काल के आधयात्मिक वातावरण में राधा-कृष्ण और उनके प्रणय-व्यापार को प्रतीक-पद्धति पर आत्मा-परमात्मा के सम्मिलन के रूप में चित्रित किया जा चुका था और रीतिकाल की लोकिक भूमि पर उन्हें भोतिक नायक-नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। और उनकी काम-क्रीड़ाओं का बड़ा रसमय चित्रण किया गया है। अत: राधा-कृष्ण से सम्बद्ध काव्य के दो धरातल थे-आध्यात्मिक और भोतिक। अतः जब विद्यापति के काव्य का अनुशीलन हुआ तो कुछ आलोचकों को वे भक्त प्रतीत हुए और कुछ को श्रृंगारी ओर हिन्दी साहित्य के विद्वानों में यह विवाद प्रबल रूप में चल पड़ा कि विद्यापति भक्त-कवि थे या श्रृंगारी कवि।

विद्यापति दरबारी कवि थे ओर उनके अश्रयदाता शिवसिंह अन्य नरेशों की तरह श्रंगारी मनोवत्ति के व्यक्ति थे। अपने आश्रयदाता को प्रसन्‍न करने के लिए यदि विद्यापति ने अपने काव्य में योवन और श्रंगार की उद्दम लहरियाँ तरंगायित कीं तो, यह स्वाभाविक ही हे। कवि का अधिकांश जीवन श्रंगार रस की इसी साधना में समर्पित हुआ, जीवन के अन्तिम दिनों में वह भक्ति की ओर अवश्य उन्मुख हुए होंगे। यही उनके भक्ति-काव्य का रहस्य है। विद्यापति भक्त कवि थे या श्रंगारी इस विवाद का आरम्भ डा0 ग्रियर्सन की पुस्तक “मैथिली केस्टोमेथी' की भूमिका से हुआ। विद्यापति के पदों को रहस्यवादी ओर उनके प्रतीकार्थ का महत्त्व बताते हुए उन्होंने लिखा, "But his chief glory consists in his matchless songs (Padas) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relation of soul to God under the form of love which Radha bore to Krishna." उनकी दृष्टि में कष्ण ईश्वर का, राधा जीवात्मा का ओर दूती गुरु का प्रतीक हैं। हिन्दी साहित्य में इसी को मधुरा भक्ति के नाम से अभिहित किया गया हे। ग्रियर्सन का कथन है विद्यापति के पद वेष्णब पद या भजन ही हैं, ““जिस तरह सोलोमन के गीतों को ईसाई पादरी पढ़ा करते हैं, उसी प्रकार हिन्दू-भक्त विद्यापति के सरस पदों को पढ़ते हैं और जरा भी काम-वासना का अनुभव नहीं करते।”” ग्रियर्सन के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाबू नगेन्द्रनाथ ने कहा कि प्रेम की यह निर्बाध जम लौकिक नहीं अलौकिक है। उनके अनुसार विद्यापति के चित्रों में साधारण नायिका का उत्साह नहीं है , अपितु आत्मा की परमात्मा से मिलने की तीव्रतम उत्कंठा है। डा0 केरी ने भी अपनी पुस्तक 'A history of Hindi Literature' में विद्यापति को रहस्यवादी बताया हेै।

नगेन्द्रनाथ, जनादन मिश्र, आनन्द कुमार स्वामी आदि ने भी यही विचार प्रकट किया है कि राधा और कष्ण प्रतीक मात्र है। राधा उस जीवात्मा का प्रतिनिधित्व करती है जो परमात्मा से मिलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। यह प्रयत्न तब तक अप्रतिहत रूप से चलता रहता है जब तक जीवात्मा परमात्मा में लय होकर सायुज्य लाभ नहीं कर लेती। जीवात्मा राधा अपने सांसारिक प्रपंचों और माया के पाशों में इस प्रकार आबद्ध हे कि वह अपनी आंतरिक प्रेरणा से परमात्मा को प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करती। अतः उसे ईश्वरोन्मुख करने के लिए गुरु की आवश्यकता हे। इन अन्वेषणों के मतानुसार विद्यापति के काव्य में दूती इसी गुरु का प्रतीक है। यह दूती निरंतर जीवात्मा या प्रेमिका को परमात्मा रूपी प्रेमी से मिलने के लिए प्रेरित करती रहती है। इतना ही नहीं, इस प्रेम-मिलन के प्रत्येक कार्य में वह उसकी सहायता भी करती है। वन्दावन मनुष्य का हृदय-प्रदेश है। यमुना का किनारा इस संसार का प्रतीक है जो राधा और कष्ण अर्थात्‌ जीव और ईश्वर की लीला-भूमि है। वंशी की धवनि अदश्य सत्ता का स्वर है जो जीव को परमात्मा की ओर अग्रसर होने का आह्वान देती है। इस संबंध में एक तर्क यह भी प्रस्तुत किया गया कि विद्यापति के पदों को गाते-गाते चेतन्य महाप्रभु मूर्छित हो जाते थे।

विद्यापति को भक्त मानने वालों का एक तर्क यह भी हे कि प्रारंभ से ही विद्यापति के हृदय में भक्ति-भावना पल्‍लवित हो रही थी, यदि ऐसा न होता तो वह भक्ति-परक ग्रन्थ लिखते ही क्‍यों? कोई भी कवि परम्परा से कटा नहीं होता। विद्यापति को अपभ्र॑ की परम्परा प्राप्त थी और उसमें राधा-कष्ण संबंधी पदों में भक्ति, श्रंगार, संगीत, का समन्वय था।

इस मान्यता के विरुद्ध विद्वानों का एक दूसरा वर्ग है जो विद्यापति को भद्र कवि न मानकर उन्हें शुद्ध श्रंगारी कवि मानता हे। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने कीर्तिलता की भूमि की प्रस्तावना में लिखा हे, “यह बड़े आश्चर्य की बात है कि संस्कत भाषा में लिखे हुए विद्यापति के ग्रंथों में शिव, गंगा और दुर्गा हैं किंतु कष्ण का नाम कहीं भी नहीं हैं।-मुझे तो इसका एक ही अर्थ मालूम पड़ता है कि विद्यापति जब आदि रस “ श्रंगार' के गीत लिखते थे, तब राधाकष्ण का नाम स्वयं आ जाता था।

डा0 नगेन्द्रनाथ का मत हे कि विद्यापति ने अपने पदों की रचना कीर्तन के लिए की थी। इसका खण्डन करते हुए हरप्रसाद शास्त्री कहते हैं, ““विद्यापति के पद कीर्तन के लिए नहीं बनाये गये थे, उनके करीब-करीब दो सौ वर्ष बाद कीर्तन की संष्टि हुई।--विद्यापति वैष्णव नहीं थे, पंच देवोपासक थे। विद्यापति सोंदर्य के कवि थे, उन्होंने सौन्दर्य की सष्टि की है। आदि रस सोंदर्य की खान हे, उस रस में विद्यापति ने अनेक गीत लिखे हेैं।'” विनय कुमार सरकार, पण्डित शिवनन्दन ठाकुर, डा0 सुभद्र झा, डा0 राम कुमार वर्मा, डा0 बाबूराम सक्सेना, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-इन दिद्वानों ने विद्यापति को श्रंगारी कवि सिद्ध करते हुए जो तर्क दिए हैं उनका सार इस प्रकार है-

1. तांत्रिक उपासना की तरह इस उपासना का थोडा भी अनुकरण मिथिला में नहीं पाया जाता। जनार्दन मिश्र के इस मत का खण्डन करते हुए कि विद्यापति के युग में रहस्यवाद प्रचलित था, शिवनन्दन ठाकुर ने अपनी पुस्तक “महाकवि विद्यापति' में लिखा हे, “यदि विद्यापति परमात्मा की उपासना का नवीन रूप खड़ा कर रहे थे तो उसकी मैथिली विद्वानों में अवश्य ही चर्चा होती, पर समालोचना की बात तो दूर रही, मिथिला की किसी पुस्तक में पति-रूप में ईश्वर की उपासना की चर्चा भी नहीं हे। इस प्रकार की भक्ति का आरम्भ विद्यापति के बाद ही हुआ।

2. विद्यापति पर सिद्ध, सूफी रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई नहीं देता क्योंकि सिद्धों और सूफियों ने जिन प्रतीकों का प्रयोग किया हे वे विद्यापति में नहीं पाये जाते।

3. “पदावली' के अधिकांश पदों में राधा कष्ण का नाम तक नहीं आता। जिन पदों में राधाकष्ण या शिव-पार्वती का उल्लेख हे उन्हें तो किसी प्रकार प्रतीकार्थ वाले रहस्यवादी पदों के बीच घसीटा भी जा सकता है, परन्तु जिनमें उनका उल्लेख नहीं, उनका क्या होगा? अतः स्पष्ट है कि विद्यापति ने राधाकष्ण का उल्लेख किसी प्रतीक अर्थ की प्रतीति के लिए नहीं किया, बल्कि कष्ण-काव्य की परम्परा का निर्वाह करने के लिए अथवा जन-रुचि को संतुष्ट करने के लिए किया था और नायक-नायिका के स्थान पर राधा-कष्ण का नाम रख दिया।

4. 'पदावली' श्रंगार-रस प्रधान “आर्यासप्तशती' आदि ग्रन्थों के आधार पर रची गई हे।

5. पूजा के अवसर पर विद्यापति के राधा-कष्ण संबंधी पदों का गान मिथिला में नहीं होता। यदि होता भी हे तो केवल परिपाटी-पालन के रूप में।

6. विद्यापति की “कीर्तिलता' में वेश्याओं तथा वनैनियों का श्रृंगार समय विशद वर्णन हे।

7. चैतन्यदेव के मूर्छित होने का कारण केवल राधा-कष्ण का नाम ही हे।

8. कीर्तन की सष्टि विद्यापति के 200 वर्षों के बाद हुई। इसलिए कीर्तन के उद्देश्य से विद्यापति ने पदों की रचना नहीं की थी।

9. विद्यापति की मत्यु के बाद सूफी मत को प्रौढ़ता मिली।

10. 'कीर्तिपताका' में स्वयं विद्यापति ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि राम को सीता की विरह-वेदना सहनी पड़ी। इसलिए उन्हें काम-कला चतुर अनेक स्त्रियों के साथ रहने की उत्कट अभिलाषा हुई । इसीलिए उन्होंने कष्ण का अवतार लेकर गोपियों के साथ अनेक नल लग कक काका कमाना क के विहार किए। इससे स्पष्ट हे कि राधा या कष्ण के श्रंगार-वर्णन में कोई दार्शनिक गूढ़ अर्थ नहीं, राधा का अर्थ नायिका और कष्ण का अर्थ नायक ही हे।

विद्यापति के पदों में वे सभी विशेषताएं विद्यमान हैं, जो किसी सफल श्रंगारी कवि के लिए अपेक्षित है। नायिका-भेद से लेकर रति-क्रिया के नग्न और अश्लील वर्णन तक विद्यापति के पदों में मिलते हैं। उन्हें पढ़कर कोई भी पाठक यह नहीं कह सकता कि उनमें किसी भकत-कवि का हृदय बोल रहा है। डा0 रामक्‌ुमार वर्मा के निम्न शब्द इस प्रसंग में उचित ही हें, ““विद्यापति के इस बाह्य संसार में भगवत्‌ भजन कहाँ ? इस वय संधि में ईश्वर से संधि कहाँ, सद्यः स्नाता में ईश्वर से नाता कहाँ? अभिसार में भक्ति का सार कहाँ ? उनकी कविता विलास की सामग्री हे, उपासना का साधन नहीं। उससे हृदय मतवाला हो सकता हे शान्त नहीं। हम उन भावों में आत्म-विस्मत हो सकते हैं, पर हममे जागृति नहीं आ सकती।”!

सूरदास के बाल कष्ण, मीरा के गिरधर नागर, रसखान के आराधय काली कमरी धारण करने वाले माखन चोर, रहीम के चित चोर, गीता के कर्मयोग का उपदेश देने वाले जितेन्द्रिय योगीश्वर और महाभारत के ऐतिहासिक अमर पुरुष विद्यापति की पदावली में लोकिक नायक के रूप में आते हैं।

यह ठीक हे कि विद्यापति प्रधानत: श्रंगारी कवि थे, परन्तु इनकी रचनाओं में भक्ति-भावना को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। दुर्गा, गंगा काली, कष्ण और शिव से सम्बद्ध स्तुति पद इस बात को प्रमाणित करते हैं कि वे श्रंगारी कवि होते हुए भी भक्त थे, कदाचित्‌ वद्धावस्था में भक्त हो गए हो। शैव होने के कारण ही उन्होंने शिव ओर शक्ति की वंदना में अनेक पद लिखे हें जेसे-

“जय-जय भैरवि असुर भयाउनि

पसुपति भामिनी माया।'

वस्तुत: इन पदों की भक्ति-भावना को अस्वीकार तो नहीं किया जा सकता। यह भी स्मरण रखना होगा कि अपने प्रिय मित्र और आश्रयदाता राजा शिवसिंह की मृत्यु के बाद उन्होंने श्रृंगारिक रचनाएं नहीं लिखीं अर्थात वे जीवन के अन्तिम दिनों की रचनाएं हैं । जिस प्रकार बिहारी आदि रीति काल के कुछ कवियों में भक्ति-भाव और पश्चाताप भावना के कुछ दोहे मिलते हैं, उसी प्रकार विद्यापति के कुछ पद भी भक्ति से ओत-प्रोत हैं, परन्तु जिस प्रकार बिहारी को भक्त-कवि नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार विद्यापति को भी। अधि क सेअधिक वह आंशिक रूप में ही भकत-कवि कहे जा सकते हैं ।

विद्यापति शेव थे, परन्तु महाराज शिवसिंह के दरबारी कवि होने के नाते इनके जीवन का अधिकांश भाग राज-परिवार के वेभव-विलास में व्यतीत हुआ। अतः अपने आश्रयदाता से प्रेरणा पाकर उन्होंने राधा-कष्ण की योवन लीलाओं का उत्तेजक चित्र ऐसी नग्न ओर अश्लील शैली में अंकित किया जिससे उनके आश्रयदाता और अन्य सामन्तों की अतप्त वासनाओं की पूर्ति हो सके। इसी कारण मूलतः वह श्रंगार रस के ही कवि थे।

उनके संभोग श्रंगार के चित्र अत्यंत स्थूल हैं, उनमें वासना की गंध हे, डा0 विनयकुमार सरकार के शब्दों में, "The earthly element, the physical beauty and pleasures of the senses are too many to be ignored." परन्तु वियोग- श्रंगार के चित्रण में कवि पार्थविकता से ऊपर उठ जाता है। उसमें उन्होंने राधा को साधारण विलासमयी नारी से ऊपर उठाकर अतीन्द्रिय जगत्‌ की सष्टि की हे। जहाँ केवल तन्मयता, प्रेम-विहलता और प्रिय-चिन्तन के अतिरिक्त और कुछ रह ही नहीं जाता, वहीं विद्यापति का विप्रलम्भ श्रंगार इन्हें विलासिता के दोष से बचाए हुए हे।

सारांश यह है कि विद्यापति मूलतः श्रंगारी कवि हैं (उनके राधा कष्ण श्रंगार काव्य के देवता हैं, भक्ति के नहीं। इतने पर भी यदि कुछ आलोचक विद्यापति के पदों में रहस्यवादी भावना के दर्शन करते हैं, तो उनकी दृष्टि को भ्रांत ही समझना चाहिए। आचार्य शुक्ल ने ऐसे लोगों के संबंध में ठीक ही कहा हे, “आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हें।'' कुछ भी हो, हिन्दी साहित्य के लिए यह सौभाग्य ओर गर्व का विषय है कि उसे विद्यापति जेसा रस-सिद्ध कवि प्राप्त हुआ और उसने हिन्दी पाठकों को अपनी रसमय वाणी से आप्लावित किया । यद्यपि जनार्दन मिश्र के शब्दों में ““विद्यापति श्रंगार-प्रधान भावुक भक्त कवि हैं। अंत: सलिला सरिता के समान श्रंगार की बालुका से आवत्त रहने पर भी वह सर्वदा सुन्दर, सरस और शीतल हें।”” उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि वह श्रंगारी कवि ही हें, भक्त नहीं।

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