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सगुण भक्ति के दार्शनिक आधारों का विवेचन कीजिए।

 सगुण भक्ति के दार्शनिक आधार

1) दक्षिण की भक्तिधाराएँ

दक्षिण की भक्ति परंपरा में नायनार तथा आब्यवार भक्तों के नाम प्रमुख हैं| नायनार शिवभक्‍्त थे | हिंदी के सगुण भक्ति साहित्य में प्रमुख रूप से राम और कृष्ण को ही उपास्य का स्थान प्राप्त है अतः नायनार भक्तों का सीधा संबंध हिंदी के भक्ति साहित्य के साथ नहीं जोड़ा जा सकता किंतु भक्तिमावना और उपासना पद्धति पर शैव और शाकक्‍्त प्रभाव देखे जा सकते हैं| शैव और शाकत तंत्र में युगल तत्त्व तथा युगनद्ध भाव का विशेष महत्य है तथा वैष्णयों की मधुरा भक्ति में उसकी अनुगूँज है। आव्वार भक्त संख्या में बारह थे। इनका समय ईसा की तीसरी शताब्दी के बीच फैला हुआ है। विशेषकर ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी में ये भक्त कवि भावना में विभोर होकर भगवान के प्रति समर्पण के गीत गाते फिरते थे। आत्वार भक्तों में नम्मालवार और तिरुमनगै प्रमुख थे।

आब्यवार भक्ति आंदोलन में किसी तरह के भेदभाव को स्थान नहीं था। न जात पाँत, न धन संपत्ति, न लिंगभेद, भकित के प्रदेश में समी समान रूप से रवागत के अधिकारी हैं –राजा रंक, ब्राहमण शूद्र, स्त्री पुरुष सभी | दक्षिण की देवदासी परंपरा ने भी माधुर्य भाव कीभक्ति के प्रसार में अपना योग दिया है। देवदासियाँ ईश्वर को समर्पित कुमारिकाएँ होती थीं। आण्डाल नामक देवदासी के कुछ पद प्राप्त होते हैं जो ईश्वर के प्रति समर्पित श्ृंगारभाव के कारण मधुरा भक्ति के अंतर्गत आते हैं।

रामभक्ति परंपरा को सैद्धांतिक आधार देने वाले संप्रदायों में श्रीसंप्रदाय तथा ब्रहमसंप्रदाय का प्रमुख स्थान है। श्रीसंप्रदाय के परवर्ती आचार्यों में पुंडरीकाक्ष, राममिश्र, यामुनाचार्य के नाम महत्वपूर्ण हैं। इस आचार्य परंपरा में सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम रामानुजाचार्य का है जिनके अनुयायी राघवावंद के द्वारा उत्तर भारत में रामभक्ति का सूत्रपात हुआ और उनसे दीक्षा लेकर रामानंद ने उसे युगानुकूल भावभूमि प्रदान की। ब्रहमसंप्रदाय में मध्वाचार्य का स्थान विशिष्ट है। वेदांत के विभिन्‍न मतमतांतरों के सिद्धांतकार मूलतः दक्षिण से आते हैं।

2) अवतारवाद

अतीत से चला आ रहा अवतारवाद मध्ययुग में भक्ति का दृढ़ संबल बना | अवतार का शाब्दिक अर्थ है उतरना। भक्त अपने भगवान को सर्वव्यापक मानते हुए भी वैकुण्ठ को उसका विशिष्ट निवास स्वीकार करते हैं। वैकुण्ठ की कल्पना भूलोक के ऊपर की गई है और मान लिया गया है कि भक्तों के उद्धार के लिये भगवान भूलोक पर आते हैं। गीता प्रस्थानत्रयी का महत्वपूर्ण अंग है। इसमें कृष्ण की वाणी में अवतार का सैद्धांतिक आधार है। कृष्ण कहते हैं कि जब जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, मैं स्वयं को सृजित करता हूँ। साधुजन के परित्राण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिये मैं युग-युग मेँ उत्पन्न होता हूँ।

सगुण भक्ति में भागवतपुराण को भी प्रस्थानत्रयी के समान महत्व देकर उपनिषद्‌, ब्रहमसूत्र, गीता व भागवतपुराण को सम्मलित रूप से प्रमाणचतुष्ट्य कहते हैं| भागवतपुराण में कृष्णावतार को ब्रह्म का पूर्ण प्रकटीकरण कहा गया है। अवतार की कल्पना में केवल वैकुण्ठ से भूलोक पर उतरने का ही अर्थ अभिप्रेत नहीं है। इसका अर्थ निर्गुण निराकार से सगुण साकार के रूप में ईश्वर का आविर्माव भी है।

अवतारों की लीला का श्रवण और मनन भक्ति का प्रधान साधन है। सगुण भक्ति के लिए ईश्वर के ऐसे रूप की कल्पना अनिवार्य है जिसके साथ भक्त एक वैयक्तिक संबंध स्थापित कर सके | अवतार की कल्पना इस संबंध को संभव बनाती है| अवतारों की कुल संख्या दस है। नवीं-दसवी शताब्दी के बाद भारतीय साहित्य में दशावतार-चरित को आधार करके अनेक काव्य लिखे गए लेकिन इनमें प्रधान अवतार दो ही हैं - कृष्ण और

राम। इस प्रधानता का कारण इन अवतारों की लीला की बहुलता है। आरंभ में इन दोनों का प्रधान चरित्र दुष्टों का दमन और भक्तों की रक्षा का ही था पर धीरे-धीरे कृष्णावतार का दुष्टदमन की अपेक्षा लीलामय रूप प्रधान होता गया। रामावतार भी महत्वपूर्ण रहा है। पुराने से पुराने अवतार प्रसंगों में श्री रामचंद्र का उल्लेख है। उनका चित्रण प्रारंभ से अंत तक दुष्टदमनकारी, मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में हुआ है। मध्ययुगीन सगुण भक्तिकाव्य में भी उनका यही रूप प्रतिष्ठित है।

3) भागवत पुराण

मध्ययुग की सगुण भक्ति में भागवत पुराण" सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रंथ रहा है। श्रीमद्भागवतपुराण का दशम्‌ स्कंध विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है। यह कृष्ण का स्रोत और सम्पूर्ण भक्तिकालीन साहित्य का प्रमुख उपजीव्य है। कृष्णभक्तिकाव्य के आचार्यों ने भागवतपुराण को प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्‌, ब्रहमसूत्र, गीता) के समकक्ष मानते हुए, चारों को साथ जोड़ कर 'प्रमाणचतुष्ट्य' के रूप में स्वीकृत किया। भागवत में श्रीकृष्ण भगवान स्वयंरूप हैं, इसमें श्रीकृष्ण की लीलाओं की विशद व्यंजना है जिनमें उनका प्रेममय और ऐश्वर्यमय रूप प्रकट हुआ है| इसका मूलस्वर भक्तिपरक है, यह भक्ति ज्ञानसमन्वित है| रासलीला भागवत की कृष्णलीला का महत्वपूर्ण अंग है।

4) वेदांत

उपनिषद और उनसे जुड़ी मतमतांतर परंपरा को वेदांत कहते हैं। इसमें उपनिषद एवं आरण्यक ग्रंथों के अंतिम माग तथा छः दर्शनों में से अंतिम उत्तर मीमांसा गिने जाते हैं जिनमें ब्रहमविद्या अर्थात्‌ आत्मा, परमात्मा और जगत का निरूपण किया गया है | इसके अनुसार ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्ता है और जीव जगत उससे अतिरिक्त पदार्थ नहीं हैं। उपनिषद में प्रतिषादित विचारों को बादरायण (सन 300 ई.) ने समन्वित एवं व्यवस्थित रूप से ब्रहमसूत्रों में प्रस्तुत किया। शंकराचार्य (सन्‌ 788-820) ने इन्हीं ब्रहमसूत्रों पर अपना भाष्य लिख कर अद्दैत का प्रतिपादन किया | उनके प्रबल व्यक्तित्व के प्रभावस्वरूप लंबे समय तक शंकर- भाष्य को ही वेदांत का पर्याय समझा जाता रहा | शंकराचार्य ने जीवात्मा-परमात्मा को अभिन्‍न और जगत को मभिथ्या माना है। यही अद्दैत का ज्ञान है और केवल साधनालभ्य है, यह ज्ञान सांसारिक सुख के लोभियों के लिए नहीं है। इस साधना के लिये साधक में शम (चित्त की एकाग्रता), दम [डुंद्रियों को वश में करना), उपरति (वृत्तियों का बहिर्मुखी न होना), तितिक्षा (निर्विकार भाव से दुखों को ग्रहण करना), समाधान (श्रवण, चिंतन मनन आदि में मन की एकाग्रता) श्रद्धा और मुमुक्षा (मुक्ति की इच्छा) जैसे गुणों का विकास ज़रूरी है जो उसे अद्दैत ज्ञान की योग्यता देते हैं अन्यथा चित्त जगत के यथार्थ ज्ञान में असमर्थ, अज्ञान से आवृत्त गहरी निद्रा जैसी अवस्था में रहता है। इस अवस्था में वह मिथ्या को ही सच समझता है।

सगुण भक्ति को दार्शनिक आघार देकर ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच उसकी घारा को नए बल से प्रवाहित करने का श्रेय जिन अनेक आचार्यों को है उनमें चार के नाम प्रमुख हैं-रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य और मध्वाचार्य। जगत को मिथ्या मानना अव्यावहारिक तथा दैनिक अनुभव के विरुद्ध सा था। वेदांत की अपनी व्याख्याओं के द्वारा इन्होंने या तो अद्वैतवाद का विरोध या फिर उसमें संशोधन किया और उन्हें अपने दार्शनिक मतवादों का रूप देकर संप्रदायों का सैद्धांतिक आधार बनाया।

5) माया और अविद्या

भक्ति से संबंधित दार्शनिक चिंतन में माया की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य ने माया को अनिर्वचनीय शक्ति कहा था। उन्होंने केवल ब्रहम की सत्ता स्वीकार की थी और उसे निर्गुण, निर्विशेष और तटस्थ कहा था। वह स्वयंसिद्ध एवं स्वप्रकाश है किंतु अज्ञानवश जीव इसे नहीं देखता। इसी अज्ञान को अविद्या और माया भी कहा गया। माया को उन्होंने इस मिथ्या संसार का मूल कहा था।

शंकर ने माया और अविद्या का प्रयोग समानार्थक रूप से किया है। दोनों ही अज्ञान का कारण होती हैं। किंतु बाद में इन दोनों में भेद किया गया। सत्‌, रज और तम (जन्म,जीवन और विनाश) तीन गुण हैं। इन तीनों की सम अवस्था 'प्रकृति' है। प्रकृति के दो भेद हैं-माया और अविद्या। रज और तम की मलिनता से रहित विशुद्ध सत्त्वरूपा प्रकृति माया है, अज्ञान की कारणरूपा प्रकृति अविद्या है। माया से आच्छन्न ब्रह्म को ईश्वर तथा अविद्या से आच्छन्न ब्रहम को जीक कहते हैं। माया से संयुक्त ब्रहम जगत का कारण है। अत: ईश्वर की इच्छा के अधीन विक्षेपशक्ति के रूप में माया का नाम तथा अज्ञान तत्त्व को ढक देने वाली शक्ति के रूप में अविद्या का नाम स्थिर किया जा सकता है। किंतु स्वयं शंकराचार्य ने ऐसा कोई भेद नहीं किया है।

सगुण भक्ति साहित्य के सैद्धांतिक विवेचनों में माया को विषय वासनाओं के मोह, अज्ञान और भ्रम में डालने वाली शक्ति के रूप में तो देखा जाता रहा किंतु संसार को मिथ्या और ब्रह्म को निष्क्रिय, निर्गुण, निर्विशेष मानने से इंकार किया गया। वल्लभाचार्य ने माया को ब्रह्म में सदा अवस्थित 'सर्वमवनसमर्थ” रूपा अथवा सृजनशक्ति स्वीकार किया और उसे विद्या माया कहा।

जीव ब्रहम के समान नित्य और सत्य है किंतु स्वयं ब्रहम नहीं, ब्रहम का चित अंश है। अविनाशी जीवात्मा नश्वर शरीर में वास करता है। उसमें सत (शरीर) और चित (चैतन्य) तो प्रकट है किंतु आनंद अंश अप्रकट है। आनंद अंश के अभाव में वह अहंकारी, आसक्तिग्रस्त, दुखी और पराधीन रहता है। ब्रह्मम के छः गुणों - ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य से वह रहित होता है। ऐश्वर्य के बिना दीन, यश के बिना हीन, श्री के बिना विपत्तिग्रस्त, ज्ञान के बिना शरीर में आसक्त जीव माया से बँधा है। वह भगवान के अनुग्रह से ही पुष्ट हो सकता है।

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