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“हे तात, तालसम्पुटक तनिक ले लेना बहनों को वन - उपहार मुझे है देना।'' “जो आज्ञा”, - लक्ष्मण गये तुरन्त कुटी में ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज-पुटी में।

 “हे तात, तालसम्पुटक तनिक ले लेना

बहनों को वन - उपहार मुझे है देना।''

“जो आज्ञा”, - लक्ष्मण गये तुरन्त कुटी में

ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज-पुटी में।

जाकर परन्तु जो वहां उन्होंने देखा,

तो दीख पड़ी कोणस्थ ऊर्मिला - रेखा।

यह काया है या भोश उसी की छाया।

क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।

“मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी

मैं बांध न लूंगी तुम्हें, तजो भय भारी।

गिर पड़े दौड़ सौमित्रि प्रिया-पद-तरा में,

वह भींग उठी प्रिय-चरण धरे दृग-जल में।

उत्तर-प्रसंग-ये पंक्तियां 'साकेत' के आठवें सर्ग के अन्त से उद्धृत की गई हैं। चित्रकूट की सभा में पर्याप्त विचार-विमर्श और तक-वितक के बाद सभा में यह निर्णय हुआ कि अयोध्या के राज-सिंहासन पर राम की चरण-पादुकाएं रख कर भरत राम के प्रतिनिधि के रूप में अवधि समाप्त होने तक राज-कार्य करते रहेंगे। सभा विसर्जित होने पर सीता ने लक्ष्मण और उर्मिला को एकान्त मिलन का अवसर देने के लिए लक्ष्मण को कुटिया में बहाने से भेजा। कुटिया में प्रविष्ट होते ही वह अपनी पत्नी की क्षीण काया और मुरझाया हुआ मुख देखकर पश्चाताप से भर उठे और भावाविभूत हो पत्नी के चरणों में गिर पड़े। यहां इसी मार्मिक दृश्य का चित्रण किया गया हे। लक्ष्मण की बहन ने लक्ष्मण को उमिला से मिलवाने के बहाने से कहा कि हे तात बहनों को उपहार देने के लिए थोडे तालसम्पदुक ला दो। यह सुनकर लक्ष्मण तुरंत कुटिया में गए। वे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित तालाब के किनारे कुटिया में गए तो उन्हें वहां उनके वियोग में दुर्बल हो चुकी उमिला दिखाई दी। वह इतनी दुर्बल हो गई थी कि मात्र छाया ही लग रही थी। अपने सामने उर्मिला को इस हालत में देखकर एक क्षण लक्ष्मण को कुछ भी समझ नहीं आया।

व्याख्या-उर्मिला ने सोचा तो यह था कि यदि कभी पति से मिलन का अवसर मिला तो वह उन्हें उपालंभ देगी, शिकवे-शिकायत करेगी, मान करेगी, परन्तु इस अचानक, अप्रत्याशित एकान्त मिलन ने उसे इतना भावविहल कर दिया कि वह सब उपालंभ भूल गई। उसने केवल इतना कहा-आप मेरे जीवनरूपी उपवन में हरिण के समान थे और में आशा करती थी कि आप हरिण के समान क्रौड़ाएं कर मुझे ओर मेरे जीवन को हर्षपुलक सुख से भर देंगे, परन्तु ऐसा न हुआ, सारी आशाएं धूल में मिल गईं। आप पत्नी के प्रति कर्त्तत्य और प्रेमभाव की तुलना में मातृप्रेम ओर कर्त्तव्य को श्रेष्ठ मानकर वन में चले गए और वहां ब्रह्मचारी, तपस्वी, साधक का जीवन बिता रहे हैं। आप को आज भी कदाचित्‌ यह भ्रम हे, शंका है कि में अपने रूप ओर यौवन के पाश में बांधकर आपको कर्त्तव्य-पथ से च्युत कर दूंगी, मर्यादा का मार्ग त्यागने के लिए कहूंगी, पर आपका यह भ्रम मात्र हे। मैं इतनी आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी तथा पति को सतपथ से डिगाने वाली सामान्य नारी नहीं हूँ। अतः आप अपनी शंका अपना भ्रम, अपना भय त्याग दीजिए।

पत्नी के इन शालीन वचनों और विनम्र आचरण से अभिभूत हो लक्ष्मण भावुक हो उठे; पत्नी के प्रति अपनी कोमल भावनाएं एवं उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिए वह भावविह्ल हो पत्नी को चरणों में गिर पड़े। पति के इस मौन, परन्तु अडिग प्रेम-भाव को देख उर्मिला भी भावुक हो उठी, उसका हृदय करुणा और प्रेम की कोमल भावनाओं से द्रवित हो उठा। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों से भी अश्रुधारा बहने लगी। पति के चरणों में प्रणत उर्मिला के अश्रुजल से लक्ष्मण के चरण भी भीग उठे।

विशेष-1. पति-पत्नी के कोमल, भावुक हृदय का मार्मिक चित्रण।

2. गुप्त जी को डॉ. नगेन्द्र ने गार्हस्थजीवन का चितेरा कवि कहा है। ये पंक्तियाँ उनके कथन को पुष्ट करती हें।

3, भाषा में चित्रमयता है, सारा दृश्य पाठक के नेत्रों के सम्मुख साकार हो उठता है।

4. कोमल, प्रेमल, भावुक होते हुए भी उर्मिला कुल-वधू की मर्यादा का पालन करती हे।

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