दरअसल, रिचर्डस ने अपने सिद्धांतों की स्थापना से पूर्व अनेक प्रचलित मतों, विश्वासों, मान्यताओं का तकंपूर्ण खण्डन किया। उनके इस प्रकार के तकाँ का सिलसिला 'फाउन्डेशन्स ऑफ एस्थेटिक्स ', 'प्रिंसिल््स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म ', 'साइंस एंड पोएटी' आदि में देखते ही बनता है! कांट ने कहा था कि सौंदर्य मानव की किसी विशिष्ट भावना का परितोष करता है। इस प्रकार के अनेक प्रभाववादी और आनंदवादी मतों की एक. तालिका रिचर्डस ने फाउन्डेशन्स ऑफ एस्थेटिक्स ' में दी हैं। प्रभाववाद. का अर्थ केवल इतना ही है कि वह सौंदर्य से भावनाओं के जाग्रत होने को मानता है। जार्ज संतायना ने अपने आनंदवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए सौंदर्य और आनंद के अनिवार्य संबंध का निरूपण किया है। वे स्पष्ट कहते हैं कि सौंदर्य से आनंद की अनुभूति होती है। संतायना के इस मत का खण्डन करते हुए रिचर्डस ते कहा कि सभी आनंदमूलक भावनाओं का संबंध सौंदर्य से नहीं होता है। फिर एक विशेष प्रकार के आनंद का रूप-स्वरूप और स्वभाव न तो अभी तक निर्धारित किया जा सका है न उसके निर्धारण की कोई उम्मीद ही नज़र आती है! क्लाइव वेल और रोजर फ्राईं आदि सौंदर्य से जिस आनंदानुभूति की बात करते थे, रिचर्डस उससे सहमत नहीं हो सके। वर्नन ली जैसे चिंतकों ने सौंदर्यानुमूति के प्रसंग में 'समानुभूति या तादात्म्य-सिद्धांत (थियरी ऑफ एम्पैथी) का प्रतिपादन किया था तथा कहा था कि सुंदर पदार्थ के साथ हमारा तादात्म्य स्थापित होता है और यह तादात्मय हमें. आनंद देता है। इस तरह के सभी आनंदवादी सिद्धांतों को रिचर्डस ने ज़ोरदार तकों के. साथ अस्वीकार कर दिया। उन्होंने 'दि प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज़्म में इस धारणा का विस्तार से खण्डन किया कि मानव-मन में कोई विशेष सौंदर्य भावना होती है एवं यह सौंदर्य हमें आनंद देता है। आनंद भावना को अस्वीकार करते हुए रिचर्डस ने इसे छायाभास की संज्ञा दी है। उनका. तर्क है कि मनोविज्ञान द्वारा किसी स्वतंत्र सौंदर्य भावना का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। सौंदर्यानुभूति का संबंध उन्हीं सामान्य भावनाओं से है जिनका प्रकाशन और कार्य, जीवन के सभी क्षेत्रों में दिखाई देता है।
कविता और पाठक के संबंध पर विचार करते हुए उन्होंने काव्य-सम्प्रेषण, काव्य-प्रभाव की प्रकृति की व्याख्या और विश्लेषण का कार्य बहुत गंभीरता से किया। वास्तविकता तो यह है कि काव्य-प्रमाव- विश्लेषण के आधार पर ही कविता का मूल्य-निर्णय किया जा सकता है। सौंदर्यानुभूति या काव्यानुभूति की प्रकृति पर विधार करते हुए वे इस मूल स्थापना पर पहुँचे थे कि काव्यानुभूति और जीवनानुभूति में प्रकृति का भेद नहीं होता। तत्वतः वे एक सी हैं। इनमें अधिक से अधिक इस बात का अंतर होता है कि काव्यानुभूति या कलानुभूति में सामान्य अनुभवों की सूक्ष्मतर व्यवस्था होती है। किंतु यह व्यवस्था न तो तत्वतः भिन्न होती है न मौलिक। रिचर्डस ने दृष्टांत देकर कहा कि जब हम कविता पढ़ते हैं या चित्र देखते हैं या मधुर संगीत सुनते हैं तो यह जो अनुभव सुबह हम तैयार होते हुए, गैलरी में चलते हुए करते हैं उससे अपनी प्रकृति में भिन्न नहीं होता। कांट के पूर्ववर्ती और परवर्ती-लेखकों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग कलाओं के संदर्म में विशिष्ट, अद्वितीय, असाधारण कलानुभव की सत्ता स्वीकार करते थे या उसके पक्ष में चुन-चुनकर दलीलें पेश करते थे, वे दलीलें आज भ्रामक सिद्ध हो गई हैं। मनोविज्ञान में इस प्रकार के किसी भी अनुभव के लिए स्थान ही नहीं है।
यहाँ यह प्रश्न उठना स्वामाविक है कि रोज़मर्रो के अनुभवों से तत्वतः अभिन्न इस सौंदर्यानुभृति की अपनी अलग विशिष्ट पहचान क्या है? रिचर्डस का इस प्रश्न को लेकर उत्तर है कि यह अनुभव हमारे भीतर कुछ अलग ढंग से घटित होता है, अधिक जटिल होता है। प्रायः अन्य अनुभवों की तुलना मे अधिक एकाग्र और संगठित होता है। किंतु यह जीवन के अन्य क्रियाकलापों से तत्वतः भिन्न नहीं होता। हाँ, सौंदर्य में, सौंदर्यानुभूति में मूल्य का समावेश अवश्य रहता है, सुंदर वही है जो मूल्यवान है। मतभेद की गुंजाइश तब पैदा होती है जब मूल्य की व्याख्या होती है। आनंदवादी विचारक मानते रहे हैं कि सौंदर्य एक विशिष्ट प्रकार का मूल्य है। लेकिन इसकी न व्याख्या हो सकती है न परिमाषा दी जा सकती है। उसे हम निरपेक्ष मुल्य मान लें यही बहुत है। रिचर्डस ने सौंदर्य में जो मूल्य निहित हैं उनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हुए अपने सिद्धांत के सार-संक्षेप में 'व्यवस्था और संतुलन ' को स्थान दिया है। मानव-मन में निरंतर आवेग उत्पन्न होते रहते हैं - इनमें से कुछ तो परस्पर सम्बद्ध और अनुकूल होते हैं किंतु कुछ प्रतिकूल और विरोधी कोटि के मनोवेग होते हैं।
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