1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कुचले जाने के बाद ब्रिटिश शासकों के अमानुषिक अत्याचारों और आतंक के परिणामस्वरूप जनता में निराशा, हताशा, अकर्मण्यता, भय का वातावरण व्याप्त था। एक ओर ईसाई मिशनरी ईसाई धर्म के प्रचार में संलग्न थे तथा दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर महारानी विक्टोरिया के भारत साम्राज्ञी बनने के उपरान्त भी ब्रिटिश उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी शासक भारत का आर्थिक शोषण कर रहे थे। भारत की धन-सम्पदा ब्रिटेन को मालामाल कर रही थी और भारत निर्धन, दीन, दरिद्र, भूखा-नंगा होता जा रहा था। यह स्थिति बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती थी। अतः भारतेन्दु युग के लगभग सभी कवियों ने जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक भी थे, तथा जो जनता को वास्तविकता से परिचित कराना, उनमें नई चेतना जगाना, उनकी आँखें खोलना अपना कर्त्तव्य मानते थे, जागरण का शंख फूँका और अपनी रचनाओं-निबन्धों, लेखों, नाटकों तथा कविताओं के द्वारा नई चेतना का संचार किया। भारतेन्दु मंडल के सदस्यों-बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्त व्यास, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण गोस्वामी, बदरी नारायण चोधरी “प्रेमथन' सभी की अपनी-अपनी पत्रिकाएं थीं और उन्होंने उनके माध्यम से नवजागरण, समाज-सुधार, राजनैतिक चेतना का पांचजन्य बजाकर तथा धार्मिक अंधविश्वासों, पाखंडों, छुआछत, ऊँच-नीच की भावना का विरोध कर जनसामान्य में नई जागरूकता उत्पन्न करने का श्लाघनीय कार्य किया और सोई हुई या अर्ध-सुप्त जनता ने अंगड़ाई ली। पारस्परिक मेल-मिलाप, सौहार्द, देशभक्ति, स्वतंत्रता की भावना का महत्त्व बताकर देशवासियों को सही मार्ग दिखाने का कार्य किया।
इस नई चेतना का परिणाम यह हुआ कि हिन्दी कविता ने विषय, रूप, भाव, भाषा सभी स्तरों पर नया रूप धारण करना प्रारंभ कर दिया। कविता राजदरबारों तथा सामतंवादी मनोवृत्ति से मुक्त होकर जन-जीवन से, देश की समस्याओं से जुड़ने लगी। सामाजिक सुधार, धार्मिक अंधविश्वासों, रूढियों, पाखंड, आडम्बर का विरोध तथा देश की आर्थिक कठिनाइयाँ एवं स्वतंत्रता उसके विषय बनने लगे। इस क्षेत्र में भारतेन्दु अग्रणी साहित्यकार थे ओर उनकी प्रेरणा से बने भारतेन्दु मंडल के अन्य कवियों ने इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार भारतेन्दु युग की कविता रीतिकालीन काव्य-परिपाटी को त्याग कर अपने देश, समाज, युग के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर नवजागरण की कविता बन गई।
कतिपय आलोचकों ने भारतेन्दु युग की कविता में विसंवादी स्वरों की ओर संकेत कर इन कवियों की आलोचना की हे। उन्हें अजीब लगता है कि भारतेन्दु तथा उनके सहयोगी कवियों ने महारानी विक्टोरिया, ब्रिटिश शासनाध्यक्षों-लॉर्ड लारेंस, लॉर्ड मेयो, लॉर्ड रिपन के संबध में लेख ओर कविताएं लिखकर उनकी प्रशंसा की हे, अपनी श्रद्धांजलि प्रकट की हे। भारतेन्दु महारानी विक्टोरिया के पुत्रों ड्यूक ऑफ एडिनबरा तथा प्रिंस ऑफ वेल्स के प्रति आभार एवं शुभकामनाएं प्रकट करते हैं। उनकी रचनाओं में चाटुकारिता की गंध आती हे,
जाके दरस-हित सदा नेन परत पियास
सो मुख-चंद विलोकिहें पूरी सब मन आस।
अथवा
स्वागत स्वागत धन्य तुम भावी राजाधिराज
भई अनाथा भूमि यह परसि चरन तुम आज
इन कवियों ने रानी विक्टोरिया को “अर्थ की विक्टोरिया' तक कहा डाला है, जो रीतिकालीन कवियों की राज-स्तुति से कम नहींहै।
इन कवियों की राजभक्तिपरक तथा ब्रिटिश शासन के प्रति आभार प्रकट करने वाली उक्तियों को ठीक से समझने के लिए महारानी विक्टोरिया के भारत की सात्राज्ञी बनने से पूर्व और उसके बाद की परिस्थितियों को समझना आवश्यक है। 1857 से पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन था। वह एक व्यापारिक संस्था थी और उसका एकमात्र ध्येय भारत की धन-संपदा की लूट-खसोट करना था। भारतवासियों का आर्थिक शोषण करके अपना कोष भरना था। महारानी विक्टोरिया द्वारा भारत में शासन की बागडोर संभालने के बाद अंग्रेज शासन की नीति में परिवर्तन आया, जिसका प्रमाण है 1858 में महारानी द्वारा जारी किया गया घोषणा-पत्र जिसमें भारत की जनता को आश्वस्त करने के लिए अनेक वायदे किए गए थे और आरंभ में भारत के पढ़े-लिखे लोगों तथा साहित्यकारों सभी ने उन पर विश्वास किया था। इस घोषणा-पत्र में शासन में पढे-लिखे व योग्य भारतीयों को भागीदार बनाने का तथा उनके धामिक विश्वासों में हस्तक्षेप न करने का वायदा भी किया गया था।
महारानी विक्टोरिया के शासनकाल में भारत के किसान और सामान्यजन नवाबों, राजाओं, सामंतों, जमींदारों, ताल्लुकदारों के आतंक तथा शोषण से मुक्त हुए, मुसलमानों की धर्म-परिवर्तन की नीति के कारण होने वाली सामाजिक पीडा से उन्हें छुटकारा मिला। रेल, तार, बिजली, मुद्रणयंत्र तथा जीवन की अन्य सुख-सुविधाओं को पहली बार देखकर वे आश्चर्य विमुग्ध हो उठे। ज्ञान-विज्ञान, नई तकनीक, नया स्वच्छ प्रशासन, धर्म के नाम पर पक्षपात से मुक्ति ने भारतीयों के मानस को लुभा लिया। देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए पंजाब टेनेन्सी एक्ट ओर अवध टेनेन्सी एक्ट जैसे कानून बनाए गए। उन्हें लगा कि ब्रिटिश शासन उनके लिये वरदान हे।
अंग्रेज राज सुख साज सबे सब भारी।
इसीलिए, भारतेन्दु ने ब्रिटिश शासनाध्यक्षों की स्तुति के गीत गाये। 'रिपनाष्टक' में लॉर्ड रिपन की प्रशंसा करते हुए वह लिखते हें,
जय-जय रिपन उदार जयति भारत-हितकारी
जयति सत्य-पथ-पथिक जयति जन-शोक विदारी।
समय के साथ-साथ जब ब्रिटिश उपनिवेशवादी-साम्राज्यवाद की पोल खुलती गई, असलियत का, उनकी बदनीयती का पर्दाफाश होता गया, सुधारवादी नीति की कलई उतरने लगी और भारतेन्दु युग के साहित्यकारों की समझ में आने लगा कि ब्रिटिश शासकों ने जो कुछ सुधार के नाम पर किया हे, रेल-तार, बिजली की सुविधाएं प्रदान की हैं, उनके पीछे भारत की जनता का हित नहीं, अपितु अपने साम्राज्यवादी कदमों को मजबूत करना है। भारतीयों को शिक्षा ओर सरकारी कार्यालयों में नीचे पदों पर नियुक्त कर अपनी जड़ें जमाना हे, आर्थिक शोषण की नीति का रूप भले ही बदला हो मूलतः वह भी ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह भारत को विपन्न, निर्धन बनाना चाहते हैं, यहां के कारीगरों-विशेषत: जुलाहों ओर कच्चे माल के मालिकों को नेस्तोनाबूद कर अपना वाणिज्य-व्यापार बढ़ाने में जुटे हैं त्यों-त्यों उनमें नई सोच, नई चेतना आती गई। वे समझ गए कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद सामतंवाद के साथ हाथ मिलाकर पुरानी लूट-खसोट का खेल खेल रहा हे, और वह भारत की जनता का शुभचिन्तक न होकर क्रूर शोषक हे।
भारतेन्दु के इस मोहभंग का, समझ का, असलियत को पहचानने का पता सर्वप्रथम उनकी 1881 में लिखी गई कविता 'विजय दरबारी' तथा 1884 में लिखी गई 'विजयनी विजय वेजयंती' में मिलता है। इन कविताओं में अफगान विजय ओर मिस्र पर ब्रिटिश विजय का स्तुतिगान तो है, पर साथ ही भारतवासियों के कष्टों, दुःखों, देन्य, दारिद्रय का वर्णन तो विस्तार से हे पर कहीं भी महारानी तक इन दुःखों को पहुंचाने का आह्वान नहीं है, क्योंकि वह समझ गए थे कि अंधे के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है। इन कविताओं में प्रधान स्वर राजभक्ति का नहीं; राजभक्ति को औजार बनाकर अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों को उजागर करना है और अप्रत्यक्ष रूप से भारतवासियों को चेताना तथा उन्हें वास्तविकता से परिचित कर उन्हें उद्बोधन देना है, देशभक्ति के मार्ग पर चलने के लिए ललकारना जल तन ननाल नल | ये दोनों कविताएं मोहभंग की कविताएं हैं। उनकी अन्य कविताओं में भी विदेशी शासन कौ हृदयहीनता ओर शोषण-नीति पर क्षोभ प्रकट किया गया है,
पै धन विदेश चलि जात यहे अति ख्वारी
अथवा
रोवहु जब मिलि आवहु भारत भाई
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई
भारतेन्दु की बदली हुई दृष्टि और नई सोच का पता उनकी नए जमाने की मुकरियों में भी दिखाई देता हे,
भीतर भीतर सब रस चूसे
हंसि हंसि में तन मन धन मूसे
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन, नहीं अंग्रेज।
यहां वह अंग्रजों की धूर्तता और कुटिलता पर प्रहार करते हैं ओर बताते हैं कि अंग्रेज अब लड़ाई-झगडे से नहीं, हंसकर, चालबाजियां करके, कूटनीति अपनाकर भारत को लूटने-खसोटने में लगे हें।
सारांश यह है कि भारतेन्दु ने अपने भोले विश्वास के कारण ब्रिटिश शासन के वचनों, वायदों और आश्वासनों पर विश्वास करके राजभक्ति की कविताएं लिखीं, पर कुछ समय बाद मोह भंग होने पर, असलियत पहचान जाने पर उनकी राजनीतिक समझ में बदलाव आया ओर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसकी कूटनीति को नंगा कर देशवासियों में नई चेतना जगाने का प्रयास किया। उनकी आरंभिक रचनाएं भले ही राजभक्ति का भ्रम पैदा करती हों, पर अन्ततः जब उनका मोहभंग हो गया, तो उन्होंने देश की दुर्दशा का कारण अंग्रेजी शासन और उसकी कूटनीति को ही ठहराया और जनता को एकजुट होकर साम्राज्यवादी शासन की नीतियों से सचेत रहकर संघर्ष करने का आह्वान किया।
सामाजिक-धार्मिक सुधार और नवजागरण-पाश्चात्य सभ्यता एवं ब्रिटिश सत्ता का आगमन एवं सम्पर्क भारतवर्ष में सबसे पहले महाराष्ट्र और बंगाल में हुआ। उनके समाज, धर्म और भौतिकवादी विचारों का प्रभाव भी सर्वप्रथम इन दोनों प्रदेशों में ओर बाद में उत्तर भारत में पंजाब और उत्तर प्रदेश में परिलक्षित होता हे। 1828 ई. में बंगाल में “ब्रह्म समाज' की स्थापना हुई। 1867 ई. में महाराष्ट्र में “प्रार्थना समाज' तथा 1875 ई. में “आर्य समाज' तथा उसका आन्दोलन आरंभ हुआ। पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान, भौतिकवादी दृष्टिकोण, नए विचारों ने मध्यकालीन भारतीय सोच को, जीवन दृष्टि को, उसमें व्याप्त रूढिवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासों तथा समाज के पिछडेपन को झकझोर डाला। नई सोच, नई जागृति, नई चेतना फूंक दी। बंगाल में इस नई चेतना को जगाने का कार्य किया राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द सरीखे लोगों ने। इनके प्रभाव से बाल-विवाह पर रोक, विधवा-विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंधविश्वासों, रूढ़ियों, सड़ी-गली रूढ़ियों-रीतियों को नकारने ओर समाज सुधार के स्वर गूंजने लगे।
भारतेन्दु ने अपने जीवन के आरंभ में जगन्नाथपुरी तथा बंगाल की यात्रा की थी और इस यात्रा के दोरान वह बंगाल के इन मनस्तवियों के विचारों से प्रभावित हुए थे। उन्होंने इनके प्रगतिशील विचारों से पहचान प्रकट की। खुलेपन से उन्हें स्वीकार किया ओर उन्हीं के कारण हिन्दी भाषी प्रदेश में नवजागरण की ज्योति प्रदीप्त हुई और उसका प्रकाश धीरे-धीरे सर्वत्र फेला। उधर आर्यसमाज के विचारों तथा धार्मिक एवं सामाजिक सुधार सम्बन्धी आन्दोलन से भी नवजागरण की इस धारा को बल मिला।
भारतेन्दु और उनके सहयोगियों के पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेख, उनकी स्वतंत्र कविताएं तथा उनके नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं से उनके क्रान्तिकारी, सुधारवादी विचारों की अभिव्यक्ति हुई हे।
मध्यकालीन भारत में नारी को दासी, भोग्या, पति की अनुगामिनी माना जाता था, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व था ही नहीं। नरकृत शास्त्रों के सब बंधन नारी पर ही लागू होते थे, पुरुष- प्रधान समाज ने अपने लिए न कोई बन्धन माना था और न कोई नैतिकता का मूल्य स्वीकार किया था। पुरुष अनेक पत्नियां रख सकता था, विधुर होने पर विवाह कर सकता था। भारतेन्दु ने रसिक मिजाज के होते हुए भी इस सबका विरोध किया। नारी को पुरुष के समकक्ष माना, नारी शिक्षा की हिमायत की, बाल-विवाह का विरोध किया, विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति देने की गुहार लगाई। नारी को सुशिक्षित करने, उनमें नई चेतना जगाने, अपने अधिकारों तथा गौरव से परिचित कराने के लिए एक पत्रिका “बाला बोधिनी' का प्रकाशन भी आरंभ किया, जिसमें मुख पृष्ठ पर नारी को शक्तिरूप बताया गया था,
जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।
जो नारी सोई पुरुष यामैें कछ न विभक्ति॥
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में अनेक तक दिए थे, अनेक प्रमाण एकत्र किए थे। भारतेन्दु ने उनसे प्रेरणा लेकर विधवा विवाह का समर्थन किया, उनकी शोचनीय स्थिति पर शोक व्यक्त किया। “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नाटक में बंगाली पात्र का यह कथन विधवा विवाह का समर्थन ही तो है,
भारतेन्दु की नई चेतना एवं प्रगतिशील दृष्टि का संकेत इन बातों से भी मिलता है कि वह अंग्रेजी की शिक्षा, अंग्रेजी के प्रगतिशील विचारों वाली पुस्तकों के अध्ययन-अनुशीलन पर बल देते हैं और साथ ही अपने देश की भाषाओं के महत्त्व को भी स्वीकार करते हें। वह चाहते थे कि भारतवासी अंग्रेजी भाषा सीखकर विश्व के ज्ञान-विज्ञान से परिचित हों।
लखहूुं न अंगरेजन करी उन्नति भाषा माहिं।
सब विद्या के ग्रन्थ अंगरेजिन माँह लखहिं।
यदि अंग्रेजी का ज्ञान न हो तो देश के लिए, समाज के लिए, व्यक्ति के लिए, विश्व के ज्ञान-विज्ञान, तकनीक आदि को जानना कठिन है,
निजभाषा उन्नति अहैे सब उनन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल॥
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन॥
भारतेन्दु अच्छी तरह समझ गए थे कि भारत की दुर्दशा के तीन कारण हें :
(1) साम्राज्यवादी-शोषक ब्रिटिश शासन,
(2) जनता की रूढिवादिता, धार्मिक अंधविश्वास, सामाजिक रूढियाँ
(3) देशवासियों का अज्ञान, अशिक्षा, झूठी शान-शोकत, आलस्य, अकर्मण्यता, कर्त्तव्य के प्रति उदासीनता, कायरता।
उन्होंने अपनी कविताओं द्वारा वास्तविकता को उजागर कर नई चेतना फूंकने का प्रयास किया है।
इस प्रकार उन्होंने जनहित में एक व्यापक आन्दोलन चलाया और सामान्य जन तक अपना संदेश पहुँचाने के लिए नाटकों, पहेली-मुकरियों, लोक गीतों-कजली, विरहा, चांचर, चेनी, खेमटा, विदेशिया आदि की शैली का प्रयोग किया। उनका साहित्य नवजागरण का सन्देश देता है। अतः उन्हें नवजागरण का अग्रदूत कहना उचित ही हे। उनके इस योगदान को स्वीकार करते हुए एक अंग्रेजी विद्वान् ने लिखा है ;
"There were ripples in the stagnant pool of medi- eval life and it was the dawn of the Indian Renaissance.”
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