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रामभक्ति काव्य में समन्वय साधना

 “समन्वय' शब्द सम अनु अ इच द्वारा व्युत्पन्न है। इसका आशय है-नियमित क्रम, संयोग, पारस्परिक संबंध आदि। वस्तुतः परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली वस्तुओं या बातों के बीच पारस्परिक संबंध का निर्धारण करते हुए उनमें सामंजस्य स्थापित करना ही समन्वय है। समन्वय भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। नास्तिक बौद्धों द्वारा राम को बोधि सत्व मान लेना तथा आस्तिक बौद्ों द्वारा बुद्ध की अवतार रूप में प्रतिष्ठा इस समन्वय का ही परिणाम है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति की समन्वयमूलकता के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।

राम काव्यधारा में समन्‍यय का यह आदर्श तुलसी में ही प्रतिफलित हुआ। उन्होंने इस आदर्श को 'रामचरित मानस' में अनेक दृष्टियों से निरूपित किया है। द्वैत और अद्दैत के बीच समन्वय को तुलसी ने अवतारबाद की प्रतिष्ठा करते हुए ब्रहम को उपनिषदों और वेदांत के अनुसार निर्गुण और निर्विशेष भी स्वीकार किया है। निर्गुण और सगुण का वह विवाद जो क्रमशः दर्शन और भक्ति के क्षेत्रों में विद्यमान था, को समाप्त करने के लिए उन्होंने राम को बार-बार निर्गुण-सगुण स्वरूप बताया-

i) सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुराण बुध वेदा।।

ii) अगुन सगुन दुई ब्रहम सरूपा। अकथ अगाघ अनादि अनूपा॥

iii) जय सगुन निर्गुन रूप, रूप अनूप भूप सिरोमने।

इसी प्रकार जगत की सत्यता और असत्यता के बीच गोस्वामी जी ने सुन्दर समन्वय स्थापित किया। जैसे-

जगत की असत्यता - रजत सीम महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।

जगत की सत्यता - निज प्रभुगमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध।

भाग्य और पुरुषार्थ के समन्वय के लिए उन्होंने 'पुरुषास्थ पूरब करम परमेस्वर परधान। तुलसी पैरत सरित ज्यों सबहि काज अनुमान॥' का तर्क प्रस्तुत किया। ईश्वर से जीवन के भेद और अभेद के विवाद का परिहार उन्होंने इस आधार पर किया कि स्वरूप की दृष्टि से ईश्वर और जीव में अभेद है किंतु ऐश्वर्य की दृष्टि से दोनों में भेद है। मुक्त होने पर जीव ईश्वर का स्वरुप तो प्राप्त कर लेता है किंतु ऐश्वर्य नहीं। शैवों और वैष्णवों के बीच विद्यमान विरोध का शमन उन्होंने स्वय॑ अपने आराध्य श्री राम से सेतुबंध के अवसर पर शिव की पूजा के द्वारा कराया है। राम का स्पष्ट कहना है-

संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भवि घोर नरक महुँ बास॥

इसी प्रकार वर्णाश्रम धर्म और मानवता के बीच उन्होंने, 'परहित सरिस धरम नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई' कह कर समन्वय किया तो लोकमत और वेदमत के समन्वय के लिए उन्होंने 'सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक वेदमत मंजुल कूला' का रूपक प्रस्तुत करते हुए इस आदर्श को अपने काव्य में प्रस्तुत किया। इसी प्रकार भोग और त्याग, राजा और प्रजा तथा भाव पक्ष और कला पक्ष के बीच भी गोस्दामी जी ने सुंदर समन्वय साधा है। सच तो यह है कि जीवन का कोई भी ऐसा परस्पर विरोधी पक्ष नहीं है जिसे उन्होंने अपनी समन्वय दृष्टि से आलोकित न किया हो। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है - “ उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।”

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