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मीरा की कविताओं में मौजूद गिरधर नागर के स्वरूप का उल्लेख कीजिए।

मीरा के जीवन से परिचित होने तथा उनकी रचनाओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने के उपरांत स्पष्ट हो जाता है कि मीरा को किसी भक्ति-सम्प्रदाय या दर्शन ने भक्त-कवसयित्री नहीं बनाया। जीवन की विषम परिस्थितियों के फलस्वरूप उनके हृदय में सहज रूप में भक्ति-भावना का अजस्र प्रवाह उमड़ता रहा।

उपास्य का स्वरूप-जहां तक उनके उपास्य का संबंध हे उसके संबंध में विद्वानों में भले ही मतभेद हो परन्तु उनके प्रारंभिक जीवन का वातावरण और बाद की घटनाएं स्पष्ट संकेत देती हैं कि उनके आराध्य गिरधर गोपाल, नटनागर, कृष्ण थे। जिन पितामह राव दूदाजी की स्नेहछाया और संरक्षण में मातृविहीना मीरा बचपन में पली थीं वह परम वेष्णव भक्त थे, उन्हीं के वेष्णव संस्कारों से मीरा के व्यक्तित्व का निर्माण और विकास हुआ। कहा जाता है कि उसी समय उन्हें कृष्ण की एक मूर्ति मिली जिस के रूप-सोंदर्य पर वह मुग्ध हो उठीं। यह भी किवदन्ती हे कि माता ने उसी मूर्ति को उनका वर बताकर उससे प्रेम करने को कहा था। इस प्रकार के प्रसंगों ने मीरा के बाल-हृदय में कृष्णभक्ति का अंकुर रोप दिया और बाद में जीवन की विषम स्थितियों-पति की अकाल मृत्यु, विधवा का दयनीय जीवन, राणा और राजकुल के अत्याचार, पुरुषप्रधान सामंती समाज की क्रूरता ने उन्हें कृष्ण-भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। अनाथ, असहाय, बेसहारा, कूट॒म्बी जनों द्वारा सतायी जाने वाली मीरा के लिए भक्‍्तवत्सल, दीनबंधु, अशरण को शरण देने वाले भगवान के चरणों में आश्रय खोजने के अतिरिक्त कोई चारा न था। अतः उन्होंने भगवान कृष्ण की शरण ली।

मीरा ने अपने काव्य में अपने आराध्य को कई नामों से पुकारा हे-हरि, स्याम, नंदलाल, मोहन, गोपाल, गोविन्द, ब्रजनाथ, गिरधरलाल, मनमोहन, जोगिया या जोगी। पर जो नाम उन्हें सर्वाधिक प्रिय है वह है गिरिधर गोपाल।

म्हारां ही गिरधार गोपाल, दूसरा जां कूया

भक्ति-पद्धति-जेसा कि ऊपर कह आये हैं डा0 पीताम्बर दत्त बड़श्वाल और शबनम जैसे कुछ विद्वान मीरा को निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासिका मानते हैं। यह सत्य है कि मीरा के समय में संत मत का पर्याप्त प्रचार ओर प्रभाव था और मीरा पर भी उसका थोड़ा-सा प्रभाव दिखाई देता हे। कुछ पदों में उन्होंने अपने उपास्य को सर्वशक्तिमान, अनिर्वचनीय बताया हे, गुरु की महिमा भी स्वीकार की हे, अपने उपास्य के साथ एक हो जाने की इच्छा व्यक्त की है, उसके रंग में रंग जाने की बात कही है, कुछ पदों में संत काव्य की शब्दावली-जोगी, जोगिया, निर्गुण का सुरमा, प्रेमहटी का तेल, मनसा की बाती, सुरत-निरत का दिवला, अगम का देस, गगन-मंडल, त्रिकुटी, निरंजन, अनहद नाद आदि का भी प्रयोग किया है परन्तु कृष्णभक्त परिवार में जन्म और पालन-पोषण तथा कृष्णभक्त परिवार में विवाह तथा उनके पदों में कृष्ण-भक्ति का स्वर, कृष्ण के गुणानुवाद, अवतार रूप में उनकी लीलाओं का वर्णन-यह सब सिद्ध करता है कि उन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्य बनाकर उनके प्रति अपना अविचल प्रेम, पूर्ण समर्पण-भाव प्रकट किया था। भक्त के लिए जिस तन्मयता एवं समर्पण भाव आवश्यक होते हैं वे मीरा के काव्य में भरपूर मात्र में विधमान हैं। उनका कृष्ण की जन्मभूमि एवं लीला-भूमि ब्रज प्रदेश, मथुरा, वृन्दावन, द्वारिका की यात्रा, वहां कुछ दिन तक रहना और द्वारिका में रणछोड़ जी की मूर्ति की आराधना करते हुए प्राण-त्याग ये सब उन्हें पूर्णतः कृष्ण-भक्त सिद्ध करते हें।

पतिब्रता नारी का जो भाव पति के प्रति होता है उसी को अपनाते हुए, रात-दिन अपने हृदयस्थ प्रियतम का ध्यान करते हुए, उनकी आराधना में लीन रहते हुए वह मानती हैं कि प्रिय उनमें रसा हुआ है और वह स्वयं प्रिय के रंग में रंगी हुई हैं-

रमैया मैं तो थारे रंग राती
औरों के पिया परदेस भजत हैं, लिखि लिखि भेजे पाती
मेरे पिया मेरे हदय बसत हैं, गूंज करत दिन राती।

सगुण भक्तों की तरह वह ईश्वर के अवतार लेने में विश्वास करती हैं। उनके प्रियतम कृष्ण अविनाशी, अलोकिक परम ब्रह्म के ही अवतार हैं। अत: वह उनके रूप-सौंदर्य, वेशभूषा पर मुग्ध हैं ओर वल्लभाचार्य की तरह उनकी लीलाओं का, दिनचर्या का वर्णन करती हैं-

मोर मुक्ट पीताम्बरी गल बैजंती माल
गउवन के संग डोलत हो जसुमति को लाल
सितल कदम की छेयां हो मुरली बजाय
जसुमति के दुलरवा हो ग्वालिन सब जाय
बरजहु आपन दुलरवा हो हम सौं अरूझाय
वन्दावन क्रीड़ा करै गोपिन के साथ।

विरह को प्रेम का तप्त स्वर्ण कहा गया हे। सच्चे प्रेम की पहचान प्रिय से बिछुड़ने पर ही होती है। मीरा को पति की मृत्यु के बाद लौकिक विरह झेलना पड़ा ओर जब उन्होंने अपनी प्रणय-भावना को उदात्त बनाकर लोकिक प्रिय के स्थान पर कृष्ण को अपना सर्वस्व, अपना पति मान लिया तो उनकी विरह भावना अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच गयी। मीरा प्रियतम कृष्ण की प्रेम-पीड़ा रात-दिन झेलती हें, वह अपना दर्द किसी से कह भी नहीं सकतीं, अतः प्रेम दीवानी हो जाती है-

हों री! मैं तो दरद दिवानी
मेरो दरद न जाने कोय
घायल की गति घायल जाने
की जिन लाई होय।

वे शरीर में बाण बिंधे मृग की तरह, पीड़ा की कसक लिए वन-वन भटकती हैं

दरद की मारी वन वन डोलूँ
बैद मिल्या नहिं कोय।

वह जानती हैं कि इस पीड़ा का उपचार केवल कृष्ण कर सकते हें “वेद सांवलिया होय' पर उसकी सेज तो सूली पर हे, उससे मिलना बड़ा कठिन है। अत: जब सारा संसार सोता है तो मीरा की पीड़ा उसकी नींद हर लेती है ओर वह रात-रात भर जागती है-

सूर की गोपियों की तरह वह भी अपने प्रिय को उलाहना देती हैं विशेष रूप से वर्षा ऋतु में जब बादल गरजते है, बिजली चमकती है, पपीहा-मोर बोलते हें ओर न कृष्ण आते हैं और न उनका कोई संदेश मिलता है-

मतवारे बादर आये रे
हरि कौ सनेसौ कबहुं न लाए रे
इक कारी अंधियारी बिजरी चमके
विरहिन अति डर जाए रे।

विरह-वेदना का तीब्र स्वर जितना मीरा के काव्य में मिलता हे उतना सूरदास के ' भ्रमरगीत' को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलता। विरह की आग में उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व जल रहा है, विरह का कीट उनके शरीर में घुन की तरह लगा हुआ भीतर-ही-भीतर उसे क्षीण कर रहा हे।

परन्तु कुल मिलाकर मीरा की भक्ति कान्‍्ता भाव की या मधुरा भक्ति ही है। उनकी प्रेमा भक्ति की विशेषताएं हैं-

1. मीरा का दर्द लोकिक परिस्थितियों से पति की अकाल मृत्यु एवं राणा ओर राजकुल द्वारा दी गयी यातनाओं से उत्पन्न है। इस पीड़ा को वह कृष्ण के प्रति अलौकिक प्रेम में अभिव्यक्त करती हैं। इस प्रेम में डूब कर उनका हृदय लोक को भूलकर आध्यात्मिक विरह-मिलन के चित्र प्रस्तुत करता हे। उनकी भक्ति-भावना सांसारिक दाम्पत्य प्रेम से अलोकिक दाम्पत्य की ऊँचाई तक जाती हे।

2. उनकी भक्ति निष्काम है, वह स्वर्ग-मोक्ष नहीं चाहतीं केवल अपने प्रियतम के दर्शन कर उन्हीं में समा जानी चाहती हें।

3. उनकी भक्ति किसी भी भक्ति-सम्प्रदाय से जुड़ी नहीं है। वह सहज, स्वाभाविक और उनके निर्मल, दुःखी हृदय की आर्त पुकार है।

4. उनके भक्ति-पदों में विनय भी है, प्रिय के रूप-सौंदर्य ओर लीलाओं का वर्णन भी हे, काल्पनिक मिलन के चित्र भी हें, परन्तु सबसे अधिक तीव्र स्वर हे विरह-वेदना का।

5. उनकी माधुर्य भाव की भक्ति सगुण-निर्गुण भक्ति की समूची परम्परा के सार को आत्मसात करने वाली हे।

6. उसमें स्वानुभूति की ऐसी तीव्रता और सचाई है जिसके कारण हिन्दी भक्ति-काव्य में उनका अनूठा स्थान बन गया है।

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