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हिंदी साहित्य के कालविभाजन और नामकरण की समस्या के विभिन्‍न पहलुओं की चर्चा कीजिए।

हिंदी साहित्य के कालविभाजन के विभिन्‍न पहलु

हिंदी साहित्येतिहास के कालविभाजन का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को जाता है। इसके बाद मिश्रर्बधुओं, रामच॑द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के काल विभाजन का प्रयत्न किया है। इनके अत्तिरिक्त भारतीय हिंदी परिषद (डॉ, धीरेन्द्र वर्मा द्वारा संपादित) और डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने भी कालविभाजन का प्रयत्न किया है।

जार्ज ग्रिर्यसन ह्वाश किया गया कालविभाजन

(क) चारण काल (700 ई. से 4300 ई. तक) (ख) पंद्रह्वी शती का धार्मिक पुनर्जागरण (ग) जायसी की प्रेम कविता (घ) कृष्ण संप्रदाय (ड) मुगल दरबार (च) तुलसीदास (छ) प्रेमकाव्य (ज) तुलसीदास के अन्य परवर्ती (झ) अठारहवीं शताब्दी (अ) कंपनी के शासन में हिंदुस्तान (ट) विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान।

जार्ज ग्रियर्सन के कालविभाजन में व्यवस्था का अभाव दिखाई पड़ता है। सबसे पहली बात तो यह है कि इसमें साहित्यिक प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। मुगल दरबार, अठारहवीं शताब्दी, कंपनी के शासन में हिंदुस्तान आदि के आधार पर किया गया विभाजन किसी साहित्यिक परिवर्तन का संकेत नहीं देते।

निश्चय ही, हिंदी साहित्य के कालविभाजन के प्रथम प्रयास के रूप में इसका अपना महत्व है, पर इस कालविभाजन को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

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मिश्रबंधुओं द्वारा किया गया कालविभाजन

1. आरंभिक काल क. पूर्व आरम्मिक काल-सँ, 700 से 1343

(643 ई. से 1266 ई.)

ख. उत्तर आरम्मिक काल-सं, 1344 से 1444

(1287 ई. से 1387 ई.)

2. माध्यमिक काल क. पूर्व माध्यमिक काल-सं॑, 1445 से 1560

(1388 ई. से 1503 ई.)

ख. प्रौढ़ माध्यमिक काल-सं, 1561 से 1680

(1504 ई. 1623 ई.)

3. अलंकृत काल क. पूर्व अलंकृत काल-सं, 1581 से 1790

(1624 से 1733 ई.)

ख. उत्तर अलंकृतकाल-सं, 1791 से 1889

(1734 ई. से 1832 ई.)

4. परिवर्तन काल क. सं, 1890 से 1925

(1833 ई. से 1868 ई.)

5. वर्तमान काल क. सं. 1926 से आगे

(1869 ई. से आगे)

मिश्रबंधुओं ने 'मिश्रबंधु विनोद' में कालविभाजन को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया है। मिश्रबंधुओं ने व्यवस्था के नाम पर हिंदी के कालखंडों को उप-कालखंडों में विभकत किया है। इससे स्पष्टता आने के बजाय एक भ्रम पैदा हो गया है। सभी कालों को उन्होंने दो उपखंडों में विभक्त किया, जिसका कोई ठोस आधार दिखाई नहीं पड़ता। माध्यमिक काल को दो हिस्सों में बाँटने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इस काल में एक ही साहित्यिक प्रवृत्ति (भक्ति भावना) की प्रधानता रही| यही बात अलंकृत काल के लिए भी कही जा सकती है।

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इस विभाजन को भी दिद्वानों ने स्वीकार नहीं किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया कालविभाजन

1. वीरगाथा काल सं. 1050 से 1375

(993 ई. से 1318 ई.)

2. भक्तिकाल सं. 1375 से 1700

(1318 से 4643 ई.)

3. रीतिकाल सं. 1700 से 1900

(1643 ई. से 1843 ई.)

4. आधुनिक काल सं. 1900 से 1984

(1843 ई. से 1927 ई.)

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया कालविभाजन

1. आदिकाल सन्‌ 1000 ई. से 1400 ई.

2. पूर्व मध्यकाल सन्‌ 1400 ई. से 1700 ई.

3. उत्तर मध्यकाल सन्‌ 1700 ई. से 1900 ई.

4. आधुनिक काल सन्‌ 1900 से आगे

परवर्ती इतिहासकारों द्वारा किया गया कालविभाजन

1. आदिकाल 1000 ई. से 1400 ई.

2. मध्यकाल 1400 ई. से 1900 ई.

3. आधुनिक काल 1900 ई. से आगे

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कालविभाजन के इन सभी प्रयत्नों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत सर्वाधिक मान्य है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्रवृत्तियों को आधार बनाकर कालों का सुव्यवस्थित विभाजन किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रामचंद्र शुक्ल के विभाजन को ही स्वीकार किया है पर संवत्‌ के स्थान पर ईसवी सन्‌ का प्रयोग कर उन्होंने काल विभाजन को और व्यवस्थित कर दिया है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने पूरी शताब्दी को हिंदी साहित्य के कालविभाजन का आधार बनाया है।

डॉ. धीरेंद्र वर्मा तथा अन्य सहयोगियों द्वारा संपादित भारतीय हिंदी परिषद के इतिहास में केवल तीन युगों की चर्चा की गई है-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने भी लगभग इसी विभाजन को स्वीकार किया है। संतकाव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, रामकाव्य, कृष्णकाव्य, वीरकाव्य, रीतिकाव्य की धाराएँ पूरे मध्यकाल में प्रवाहित होती रहीं। पर सत्रहर्वी शताब्दी के आते-आते मुख्य प्रवृत्ति बदल गई थी। भक्ति के स्थान पर अलंकरण और श्रृंगार विलास की प्रधानता हो गई| काव्य लिखने का ढंग बदल गया था। इससे काव्य की चेतना और काव्य के रूप में भी स्पष्ट अंतर आ गया। अतः मध्यकाल को प्रवृत्तियों के आधार पर दो कालों में विभाजित करना जरूरी हो गया।

आधुनिक काल का आरंभ उन्‍नीसवीं शताब्दी के मध्य से माना जाता है। 1857 की क्रांति भारतीय इतिहास की एक बड़ी घटना है। वस्तुतः यह क्रांति मध्ययुग की समाप्ति और आधुनिक युग के आरंभ का उद्घोष है। पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से भारतीय जनता का संपर्क और संघर्ष हुआ, फलतः आधुनिक युग का जन्म हुआ। नई तकनीकों के आगमन के कारण गद्य साहित्य का तेजी से विकास हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन अपने नए तेवर के साथ सामने आया। इससे हिंदी साहित्य प्रभावित हुआ| 1900 से 1920 ई. तक के साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर उभर कर सामने आया, 1920 से 1936 ई. तक गांधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रभाव साहित्य पर पड़ा। एक आदर्शवाद और रोमानियत का प्रस्फुटन काव्य के माध्यम से हुआ, जिसे छायावाद के नाम से जाना जाता है। 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद प्रगतिवाद का जोर साहित्य में बढ़ा। इसमें कवियों का समाजवादी रुझान सामने आया। इसके बाद 'तारसप्तक' का प्रकाशन (सन्‌ 1943 ई.) हिंदी साहित्य में एक नए मोड़ के रूप में आया, जिसे प्रयोगवाद के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद साहित्यकाल कई बार युग परिवर्तन की घोषणा कर चुका है, पर उस विस्तार में जाना हमारा उद्देश्य नहीं है।

हिंदी साहित्य के कालविभाजन को नीचे एक तालिका के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

कालविभाजन

आदिकाल पूर्वमध्यकाल उत्तरमध्यकाल आधुनिककाल

(10वीं श. से (14वीं श, से (17वीं श. से (19वीं श. से

14वीं श.) 17वीं श.) 19वीं श.) अब तक)

यही कालविभाजन हिंदी साहित्य के इतिहासकारों के बीच मान्य है। 

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