धर्म संबंधी साहित्य के अंतर्गत उस साहित्य का उल्लेख किया जाता है जो किसी मत विशेष के प्रचार-प्रसार करने हेतु लिखा गया। इसमें जैन धर्म, सिद्ध संप्रदाय तथा नाथ संप्रदाय के कवियों की रचनाएँ समाहित हैं। यद्यपि आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि ये रचनाएँ विविध धर्मों के विषय में लिखी गई हैं, इसलिए इन्हें साहित्यिक रचनाएँ नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः ये रचनाएँ केवल धर्म का प्रचार मात्र ही नहीं थीं अपितु इन्हें उत्तम काव्य की कोटि में भी रखा जा सकता है। इस संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है कि “इधर जैन, अपभ्रेश चरित-काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सिर्फ धार्मिक संप्रदाय के मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है।...........अपभ्रंश की कई रचनाएँ जो मूलतः जैन-धर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निस्संदेह उत्तम काव्य हैं। यह बात बौद्ध सिद्धों की कुछ रचनाओं के बारे में भी कही जा सकती है।”
धर्म-संबँधी साहित्य के अँतर्गत हम उस काल के प्रमुख संप्रदायों एवं उनके प्रमुख कवियों द्वारा रचित साहित्य की विवेचना करेंगे। इस प्रक्रिया में सबसे पहले सिद्ध संप्रदाय के साहित्य का विश्लेषण किया गया है।
सिद्ध कवि
सिद्ध संप्रदाय को बौद्ध धर्म की पर॑परा का हिंदू धर्म से प्रभावित एक धार्मिक आंदोलन माना जाता है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें 'सिद्ध कहा जाने लगा। इन सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है। राहुल साँकृत्यायन ने तथा आचार्य हजाशैप्रसाद द्विवेदी ने इन 84 सिद्धों के नामों का भी उल्लेख किया है जिनमें सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्मिपा, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख हैं। इन सभी सिद्धों के नाम के आगे लगा 'पा' शब्द सम्मानसूचक शब्द 'पाद' का विकृत रूप है। इनमें से केवल 14 सिद्धों की रचनाएँ ही अभी तक उपलब्ध हैं।
सिद्धों द्वारा जनभाधा में लिखित साहित्य को सिद्ध साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य वस्तुतः बौद्ध धर्म के वज़यान का प्रचार करने हेतु रचा गया। अनुमानतः इस साहित्य का रचनाकाल सातर्वी से त्ेरहर्वी शत्ती के मध्य तक है। इन सिद्ध कवियों की रचनाएँ प्रमुखतः दो काव्य रूपों में मिलती हैं- 'दोहा कोष' तथा 'चर्यापद'| सिद्धाचायों द्वारा लिखित दोहों का संग्रह 'दोहा कोष' के नाम से जाना जाता है तथा उनके द्वारा रधित पद चर्यापद' या 'चर्यागीत' के नाम से प्रसिद्ध हैं।
सिद्ध साहित्य में स्वाभाविक सुख भोगों को स्वीकार करने की बात की गई है तथा गृहस्थ जीवन पर बल दिया गया है। इन्होंने पाखंड तथा बाहय अनुष्ठानों का विरोध किया है तथा अपने शरीर में ही परमात्मा का निवास माना है। सिद्धों के साहित्य में गुरु के विशेष महत्व को प्रतिपादित किया गया है। उनके अनुसार शरीर में स्थित ब्रहम की प्राप्ति गुरु की कृपा के द्वारा ही संमव है। क्योंकि विविध तांत्रिक क्रियाओँ एवं उनके प्रयोगों का विश्लेषण गुरु ही बता सकता है जिसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जा सकती है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार सिद्ध साहित्य की “रचनाओं में प्रधान रूप से नैरात्म्य भावना, काया योग, सहज शून्य की साधना और भिन्न प्रकार की समाधिजन्य अवस्थाओं का वर्णन है।'
सिद्ध साहित्य की भाषा को अर्धमागधी अपश्रंश के निकट माना जाता है। चूँकि इस साहित्य की भाषा को अपम्रश तथा हिंदी के संधि काल की भाषा माना जाता है, अतः इसे 'संध्या या संघा भाषा' का नाम भी दिया गया है।
नाथ कवि
नाथ संप्रदाय को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना जाता है। नाथ साहित्य का प्रवर्तकत गोरखनाथ को स्वीकार किया जात़ता है। इस संप्रदाय के रचनाकारों ने सिद्ध साहित्य को और अधिक पललवित किया | इनकी साधना सिद्ध साधना से अलग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाए गए योग प्रधान योगमार्ग के स्थान पर हठयोग-साथना का मार्ग अपनाया। इस संप्रदाय ने शैवमत के सिद्धांतों को स्वीकार किया तथा शिव को आदिनाथ माना। इनके योग मार्ग में मूलतः संयम तथा सदाचार पर बल दिया गया।
नाथ संप्रदाय को अनेक नामों से जाना जाता है जैसे-सिद्धमत, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधूत मत, सिद्ध मार्ग आदि। नाथ संप्रदाय में 'नाथ' शब्द का अर्थ 'मुक्ति देने वाला प्रचलित है। उन्होंने अपने साहित्य में स्पष्ट किया है कि यह मुक्ति सांसारिक आकर्षणों एवं भोग-विलास से है। इस प्रकार इस संप्रदाय के योगियों ने निवृत्ति के मार्ग पर जोर दिया तथा उन्होंने गुरु को ही इस मार्ग का मार्गदर्शक माना। उनके साहित्य में विविध साधना द्वारा कुंडलिनी जाग्रत कर परमानंद आदि की क्रिया का विवरण मिलता है| उनके अनुसार गुरु से दीक्षा लेकर उसके उपदेश द्वारा वैराग्य प्राप्त किया जा सकता है। वैरागी होने परशिष्य प्राणसाधना के माध्यम से कुंडलिनी जाग्रत कर मन को अंतर्मुखी कर लेता है जिससे उसे अपने मीतर ही परम आनंद की प्राप्ति होती है। इस संप्रदाय में प्राण साधना से पहले इंद्रिय निग्रह पर बल दिया गया है। इंद्रिय निग्रह के अंतर्गत नारी से दूर रहने की प्रवृत्ति प्रमुख है क्योंकि उनका मानना है कि नारी ही चारित्रिक पतन का कारण है। गोरख के काब्य में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से दिखाई देती है। आगे चलकर भक्तिकाल में कबीर ने भी इसी प्रवृत्ति को अपनाया तथा नारी का विरोध स्पष्ट शब्दों में किया। उनके तथा अन्य संत कवियों के काव्य में द्रष्टव्य प्राण साधना, कुंडलिनी जागरण एवं मनसाधना आदि की क्रियाओं का वर्णन भी नाथ योगी कवियों का प्रभाव कहा जा सकता है।
जैन कवि
सांसारिक विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त करने वाले को जैन कहा जाता है। जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है-विजय पाने वाला। यह सांसारिक आकर्षणों पर होने वाली विजय है| जैन संप्रदाय को बौद्ध धर्म से भी पूर्व का स्वीकार किया जाता है| इस धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी थे| जिनका आविर्भाव महात्मा बुद्ध से पहले हुआ था। इस संप्रदाय में दया, करुणा, त्याग तथा अर्हिंसा को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। यह त्याग केवल इंद्रियनिग्रह में ही नहीं अपितु सहिष्णुता में है| इसीलिए इन्होंने ब्रत-उपवास पर अधिक बल दिया।
जैन मुनियों ने अपने धर्म का प्रचार लोकमाषा में किया। यह अपभ्रश से प्रभावित हिंदी थी। इनकी अधिकाँश रचनाएँ धार्मिक हैं। जिनमें जैन संप्रदाय की नीतियों का प्रमुख रूप से उल्लेख है। इन कवियों की कृतियाँ रास, फागु चरित आदि विविध काव्य रूपों में प्राप्त होती हैं| इन कृतियों में उपदेशात्मक प्रवृत्ति की प्रधानता है तथा घटनाओं की बहुलता का अभाव है। चरित काव्यों में प्रसिद्ध पुरुषों की कथा का वर्णन है, परंतु उनमें भी धार्मिक भावनाओं की प्रधानता है। प्रमुख रास काव्यों में प्रेम, विरह तथा युद्ध आदि का वर्णन है लौकिक काव्य होने पर भी इनमें कहीं-कहीं धार्मिक तत्वों का समावेश हो गया है। कुछ जैन कवियों ने हिंदुओं की पौराणिक कथाओं के प्रमुख एवं प्रसिद्ध चरित्रों जैसे राम तथा कृष्ण को अपने धार्मिक सिद्धांतों के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया है| इनके अतिरिक्त जैन कवियों ने रहस्यवादी काव्यों की भी सृष्टि की। वास्तव में इन कृतियों की भाषा ही अधिक शिष्ट एवं परिनिष्ठित है। इनमें योगीन्दु मुनि रचित 'परमात्म प्रकाश', 'योगसार' तथा मुनि रामर्सिंह द्वारा रचित 'पाहुड़दोहा' उल्लेखनीय हैं।
जैन कवियों में रासो काव्यकारों के अतिरिक्त जिन प्रमुख कवियों का उल्लेख किया जाता है वे स्वयंभू तथा पुष्पद॑त हैं। हम इन्हीं दो मुख्य जैन कवियों तथा उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख यहाँ करेंगे|
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