रघुवीर सहाय नई कविता के कवि माने जाते थे। इनकी अधिकांश कविताएँ विचारात्मक, गद्यात्मक हैं। रघुवीर सहाय अपनी आरंभिक कविताओं में प्रवत्ति और जीवन के अनेक सहज चित्र प्रस्तुत करते थे, परंतु धीरे-धीरे यथार्थ की जटिलता सहाय के स्वभाव को प्रभावित करती है। सहज जीवनासक्त अभिव्यकितयों की जगह व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और यथार्थ का गंभीर विश्लेषण उनकी कविताओं में मूर्त और मुख्य हो उठता है।
स्वातंत्रयोत्तर उत्तर ओपनिवेशिक समाज में विश्रंखलित मूल्यों से जुड़े प्रश्नों पर विचार उनके “आत्महत्या के विरुद्ध काव्य संग्रह की आधार-भूमि है। इस संग्रह की लगभग सभी कविताएँ यथार्थ से जुड़ी हुई हैं। सन 1967 में प्रकाशित इस संग्रह की कविताएं तत्कालीन मोहभंग, व्यर्थताबोध ओर मामूली अनुभवों की सामान्यता को गद्य जैसे विन्यास में व्यक्त करने वाली कविताएं हैं। मूल्यांकन के विभिन्न उपलब्ध मानदंडों से अलग जाकर इन कविताओं की आलोचना करने का अर्थ इन्हें तर्कशील से परवना समझना हेै। यथार्थ को जानने के लिए आमंत्रित करती कविताओं का अर्थ-कविता के पाठ के तटस्थ साक्षात्कार पर ही निर्भर हे।
रघुवीर सहाय की काव्यचेतना और काव्यशिल्प की मुख्य कोशिश यही रही हे कि वे सबसे अलग अपनी पहचान बना सकें, अपना काव्य मुहावरा खोज सकें। यथार्थ भी उनके लिए खोज का विषय हे...भाषा भी। पहले से बनी बनाई साहित्यिक भाषा जेसे कवि की कोई मदद नहीं कर रही है ओर नई भाषा पाने के लिए... वह अपने समाज में बोलचाल के साधारण शब्दों में सर्जनात्मक अभिव्यंजना लाने के लिए लगातार संघर्ष करने के लिए बाध्य हें।
रघुवीर सहाय राजनीति को अनिवार्य मानते हैं। वही स्वतंत्रता-प्रापित के बाद (1967) सत्ता का राजनीति, उनके अन्तर्विरोध, नेताओं के छत-छदम, अवसरवादिता तथा ढोंग पावण्ड को स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत कर देते हैं। रघुवीर सहाय राजनेताओं सरकार के चरित्र को इस प्रकार स्पष्ट करते हें
सरकार आश्वासन देने के लिए राजाज्ञा का आश्रय लेती हे।
रघुवीर सहाय इन्हीं राजनीतिक विद्रूपताओं, पावंडों और झूठ को अपनी कविताओं का विषय बनाते हैं, क्योंकि भारतीय समाज तथा राष्ट्र की अवनति तथा दल की दुर्गत के लिए कहीं न कहीं राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार जिम्मेदार है। आजाद भारत की इस भ्रष्ट राजनीति ने “जनतंत्र' में से व्यकित को अश्रव्य अमूर्त और अदृश्य अवधारणा के रूप में बदल दिया हे।
रघुवीर सहाय, हिंदी कविता के उन हस्ताक्षरों में से थे; जिन्होंने साहित्य और समाज को एक-दूसरे के समक्ष खकर स्वातंत्रयोत्तर भारत में आदमी की विडंबनात्मक सिथति, उसकी समस्याओं और इस विरोधी व्यवस्था में राजनीति तथा जीवन के परस्पर संबंध को बचाए खने का प्रयास किया। रघुवीर सहाय की चिंता कला नहीं, अपितु मनुष्य और मनुष्य निर्मित समाज में व्याप्त सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक विषमता है। यह विषमता जिस आक्रोश, उत्तेजना, बेचेनी और संघर्ष को जन्म देती है, वह रघुवीर सहाय की कविता का आधार बनता है। वास्तव में रघुवीर सहाय, भारतेंदु निराला, नागार्जुन और मुक्तिबोध की भाषा साधारण हे। यह प्रत्येक समय में अनेक समस्याओं से घिरे मामूली आदमी की देन है। यथार्थवादी लेखन की प्राथमिक कसौटी उसकी विषय-वस्तु की होती हे इसीलिए रघुवीर सहाय के निकट की कविता हें।
आत्महत्या के विरुद्ध एक लम्बी आख्यानात्मक कविता है। मेरे लिए आधुनिक हिन्दी कविता की दस सर्वश्रेष्ठ कविताओं में एक। एक लम्बा नाटकीय आख्यान। रघुवीर सहाय की कविता की स्वाभाविक नाटकीयता जो दरअसल करुणा, पीड़ा और छटपटाहट को स्वर देने के लिए सम्भव होती है, शिल्प में चमत्कार करने के लिए नहीं। बड़ी बात है कि यहां मैं स्वाभाविक और नाटकीय, दो विरोधी पदों का प्रयोग एक-दूसरे के समर्थन में कर पाता हूं। क्या किसी और कवि के लिए ऐसा किया जा सकता हे? कविता में संदिग्ध सम्पादक, भ्रष्ट नेता-मंत्री, पदमुक्त न्यायाधीश, पिटे हुए दलपति दहाड़ कर कहते हैं समय आ गया है, जबकि कवि दस बरस पहले कह चुका होता हे कि समय आ गया है. किस बात का समय आ गया हे, यह सब जानते हैं और यह भी कि बाकी लोगों के कहने और कवि की कहन में क्या फर्क है. मेरा ध्यान समूची कविता रचाव में सम्भव हुई उस विराटता की ओर जाता हे, जिसे मैं मुक्तिबोधीय कहना चाहूंगा। यहां रघुवीर सहाय का सिग्नेचर शिल्प एक अलग विस्तार पाता है. इसमें वातावरण, घटनाएं, संवाद, मनुष्यता का अंधेरा, भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के मेगास्ट्रक्चर का प्रकोप आदि मिलकर ऐसा कुछ रचते हैं कि कविता को पढ़ने के आपका मन वही नहीं रह जाता जो पहले था। यह तो हिन्दी कविता में मुक्तिबोधीय होना है. मेरी मान्यता है कि कविता में निजी कुछ नहीं होता पर आत्म बहुत कुछ होता है। यह आत्म जब बोध, आलोचन, विश्लेषण आदि का उपसर्ग बनता है तो सार्थक्॑र और महान सम्पूर्ण क्रियाएं बन।
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