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भट्टनायक का भुक्तिवाद

भरत के रससूत्र की व्याख्या करने वाले तीसरे आचार्य मट्टनायक (दसवीं शताब्दी) हैं। इनका सिद्धांत भोगवाद कहलाता है। भट्टनायक ने अपने पूर्ववर्ती सिद्धांतकारों का खंडन करते हुए कहा कि शंकुक ने अनुमान सिद्धांत-के द्वारा मूल बात को उलझा दिया है। लोललट और शंकुक तथा ध्वनिकार की बात का खंडन करते हुए उन्होंने कहा कि रस का न तो ज्ञान होता है, न उत्पत्ति, न अभिव्यक्ति। यदि रस दूसरे के भाव के साक्षात्कार अथवा ज्ञान से उत्पन्न होता है तो शोक से शोक की उत्पत्ति होनी चाहिए आनंद की नहीं, और शोक प्राप्त करने के लिए कोई नाटक क्‍यों देखेगा अथवा काव्य क्यों पढेगा।

दूसरी बात यह कि रस यदि, सहदय के हृदय में ही स्थित है और विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त हो जाता है तो प्रश्न उठता है कि नायक का व्यक्तिगत भाव प्रेक्षक के वैसे ही व्यक्तिगत भाव को कैसे अभिव्यक्त कर सकता है।

भट्टनायक ने रस की स्थिति न तो नायक-नायिका में मानी और न नट-नटी में। रस की स्थिति उन्होंने सीधे सह्ृदय में मानी। उनके अनुसार काव्य में तीन शक्तियाँ रहती हैं - (1) अभिधा (2) भावकत्व और (3) भोजकत्व। अभिधा वह शक्ति है जिसके द्वारा पाठक या दर्शक काव्य के शब्दार्थ को ग्रहण करता है। दूसरी शक्ति है भावकत्व जिसके द्वारा उसे उस अर्थ का भावन होता है। भाव का भावन होने पर भाव की वैयक्तिकता का नाश होकर साधारणीकरण हो जाता है और भाव विशिष्ट न रहकर साधारण बन जाता है। उदाहरण के तिए दुष्यंत की शंकुतला के प्रति रति पाठक के लिए स्त्री पुरुष मात्र की रति रह जाती है। प्रेक्षक के हृदय में सहज साधारण भाव का अर्थ है - रजोगुणं, तमोगुण का लोप होकर सतोगुण का आविभोौव हो जाता है और पाठक भाव का भोग करता है। भाव का भोग या भोजकत्व व्यापार ही रस है। इस प्रकार रस की अभिव्यक्ति नहीं भोग या भुक्ति होती है। इसीलिए इस सिद्धांत को भोगवाद कहते हैं।

यहाँ भट्‌टनायक ने भारतीय काव्यशास्त्र के अति महत्वपूर्ण सिद्धांत - साधारणीकरण सिद्धांत - को जन्म दिया। भट््‌टनायक के मत से 'निष्पत्ति ' का अर्थ हुआ भावित होना। विमावादि के साथ संयोग होने से स्थायी भाव भावित होकर रस रूप में परिणत हो जाता है यही रस की निष्पत्ति है। विभावादि भावन

क्रिया के कारक हैं और स्थायी भाव भाव्य। अतः 'संयोग' का अर्थ हुआ भावक-भाव्य संबंध। इस प्रकार रस का स्थान है सह्ददय का चित्त। डॉ. नगेन्द्र का कहना है - 'कतिपय दिद्वानों का मत है कि भट्टनायक रस की स्थिति शब्दार्थ में मानते हैं। आरंभ में हमारी भी यही धारणा थी किंत इसमें अधिक सार नहीं है। अभिनवभारती आदि में उद्धृत भट्टनायक के मंतव्य के विश्लेषण तथा अभिनव द्वारा उसके खंडन से इस मत का निश्चित निराकरण हो जाता है' (रस सिद्धांत)। 

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