भारतीय काव्यशास्त्र का आधार संस्कृत भाषा है। 'संस्कृत काव्यशास्त्र' का आरंभ भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' से माना जाता है। हाल्रांकि राजशेखर प्रवर्तित कथा के अनुसार यह परंपरा भरतमुनि से भी प्राचीन है। चूंकि राजशेखर जनश्रुतियों का हवाला देते हैं इसलिए प्रामाणिक तौर पर संस्कत काव्यशास्त्र का आरंभ भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' से मानना ही तकैसंगत है। भरत 'रस-सिद्धांत' के प्रवर्तक थे। उनके सिद्धांत की व्याख्या विभिन्न टीकाओं के माध्यम से हुई। मातृगुप्त, उद्धट, भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, हर्ष, कीर्तिधर और अभिनवगुप्त आदि ने रस-निष्पत्ति की विविध व्याख्याएं की। भरतमुनि के पश्चात विभिन्न मत प्रवर्तक आचार्यों और उनके संप्रदायों का उल्लेख मित्रता है। आचार्य भामह 'अलंकार संप्रदाय' के सिद्धांत के प्रवर्तक आचार्य हैं, उनकी कृति का नाम है - 'काव्यालंकार'। आचार्य दंडी ने 'रीति संप्रदाय' का प्रवर्तन किया जिसका स्रोत है - 'काव्यादर्श'। 'ध्वनि सिद्धांत' के प्रवर्तक आचार्य हैं आनंदवर्धन, जिन्होंने 'ध्वन्यालोक' में अपने सिद्धांत की व्याख्या की। 'वक्रोक्ति-संप्रदाय' की प्रतिष्ठापना कुंतक ने 'वक्रोक्ति काव्य जीवितं' में की। क्षेमेंद्र ने 'औचित्य विचार चर्चा' में 'औचित्य संप्रदाय' की स्थापना और उसकी व्याख्या की। इन संप्रदायों पर विचार करने के पूर्व काव्यशास्त्र के कुछ महत्वपूर्ण अवयवों, 'काव्य-लक्षण', 'काव्य हेतु' और 'काव्य प्रयोजन', की चचौा करना आवश्यक है।
काव्यशास्त्रीय चिन्तकों का ध्यान इन सभी पक्षों की ओर सदा जाता रहा है। सबसे पहला प्रश्न जो कवि के संबंध में उठता है, वह यह है कि कवि या कलाकार अन्य मानव, धर्मोपदेशक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक विचारक से किस बात में विशिष्ट है और क्यों खास प्रकृति के व्यक्ति ही कवि या कलाकार बन पाते हैं? दूसरे शब्दों में, कवित्वशक्ति के हेतु क्या है। सुकरात ओर प्लेटो कवित्वशक्ति को दैवी आवेश की देन मानते हैं, अध्ययन और अभ्यास का प्रतिफल नहीं। भारत के काव्यशास्त्री काव्यरचना में प्रतिभा को प्रधान हैतु मानते हुए भी इसके साथ व्युत्पत्ति और अभ्यास को भी कम महत्व नहीं देते। परम्परावादी आलोचक केवल प्रतिभा को काव्यशक्ति का हेतु नहीं मानते। उधर पश्चिम के रोमैंटिक विचारक कलाकृति की मूल प्रेरणा एकमात्र प्रतिभा को ही मानते हैं। फिर भी इस बात में सभी चिंतक एकमत हैं कि कवि विशिष्ट प्रतिभाशील व्यक्ति है जो अपनी प्रतिभा के माध्यम से काव्य के रूप में नई सृष्टि की उद्भावना करता है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, कविता का प्रयोजन क्या है? अखिर कवि कविता क्यों करता है? इस सम्बन्ध में चिंतकों के दो दल हैं- परंपरावादी चिंतक काव्य का लक्ष्य या प्रयोजन नैतिक उपदेश की प्रतिष्ठा मानते हैं। काव्य द्वारा कवि किन््ही मूल्यों की स्थापना करना चाहता है, ठीक उसी तरह जैसे धार्मिक उपदेशक। किन्तु फर्क यह है कि उसकी कृति शैलीशिल्प की दृष्टि से रमणीय और रसमय होने के कारण धर्मग्रंथों या नीतिग्रंथों से विशिष्ट बन जाती है। स्वच्छंदतावादी चिंतक इसे नहीं स्वीकारता। वह कवि को उपदेशक नहीं मानता। उसके अनुसार कवि सर्जक है, सृष्टिकर्ता है, जो ब्रह्मा से भी विशिष्ट है। वह अपनी सृष्टि, अपनी कलाकृति के माध्यम से हमारे सामने रखता है। वस्तुत: वह अपनी अनुभूतियों को काव्य के द्वारा वाणी देना चाहता है। काव्य और कुछ नहीं, उसकी समस्त अनुभूतियों का सारभत तत्व और उसके अंतस् में उमड़ते-घुमड़ते भावों का स्वत: बहा हुआ परिवाह मात्र है। पूर्व और पश्चिम के प्राय: सभी मतमतांतर इन दो खेवों में मजे से समेटे जा सकते हैं।
काव्य का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष वह कृति है, जो हमारे समक्ष चाक्षुष (नाटक में), श्रावण तथा बौद्धिक सन्निकर्ष का माध्यम बनती है और इस माध्यम से वह हमारे मन या संवित् (चेतना) को प्रभावित करती है। अत: काव्यशास्त्रीय चिंतन में यह वह प्रधान पक्ष है जिसके अनेक पहलुओं को लेकर पूर्व और पश्चिम के विचारक पिछले अढ़ाई हजार वर्षो से ऊहापोह करते आ रहे हैं। सबसे पहला सवाल जो काव्य के कथ्य के विषय में उठता है, वह यह है कि काव्य में वर्णित घटनाएँ आदि कहाँ तक वैज्ञानिक सत्य से मेल खाती हैं। यह प्रायः सभी समीक्षक स्वीकार करते हैं कि काव्य में तथ्य-कथन-प्रणाली का आश्रय नहीं लिया जाता। उसमें जिस सत्य का समुद्घाटन होता है, वह वास्तविक सत्य न होकर संभाव्य सत्य होता है। इसी आधार पर काव्यविरोधी कवि की कल्पना को भ्रमित या सत्य से बहुत दूर घोषित करते हैं। प्लेटो ने तो इसे सत्य से 'दुहरा दूर' सिद्ध किया है। भारत के विचारकों ने काव्यकृति को भ्रान्ति नहीं माना हैं, यद्यपि एक स्थान पर भट्ट लोल्लट ने रससूत्र की व्याख्या करते हुए नाटक के अभिनय में राम आदि का अनुकरण करते नटों में राम आदि के भ्रांतिज्ञान का संकेत किया है। पश्चिम में इधर मनोविज्ञान के विकास के परिप्रेक्ष्य में काव्यशास्त्रीय चिंतन ने भ्रांतिवाले इस पक्ष को और अधिक मजबूत किया है। कहा जाता है, कला मात्र भ्रांति है (आर्ट इज़ नथिग बट डन्यूज़नी। इसी से मिलता जुलता एक और मत भी है। कला कुछ नहीं महज सम्मोहन है (आर्ट इज़ नथिग बट हेल्यूसिनेशन)। इधर नृतत्व विज्ञान के अध्ययन के आधार पर भी काव्य की सम्मोहिनी शक्ति पर जोर दिया जाने लगा है और यह मत प्रबल हो उठा है कि काव्य या कला में पुराने आदिम समाज के ओझाओं के मंत्रों की तरह जादुई असर होता है
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