1923 में प्रकाशित सावरकर की रचना एसेशियल ऑफ़ हिंदुत्व को उनके केंद्रीय लेखन में से एक के रूप में पढ़ा जा सकता है जिसने हिंदुत्व की अवधारणा प्रदान की। यह पुस्तक राष्ट्रीय एकता, हिंदू एकता, का एक विवरण था जो कि केवल राजनीतिक एकता की एक पुनरावृत्ति नहीं थी जैसा कि भारतीय विचारों के कई पहलुओं में मौजूद है। हिंदुत्व के बारे में उनकी समझ का एक बड़ा अर्थ निम्नलिखित अंश से प्राप्त किया जा सकता है।
अतएव स्राखत्व यह है कि हिंदू वह है. जो सिंधु से सिंधुपर्यन्त समुद्र तक फैले हुए इस देश को अपने पूर्वजों की थ्रूगि के रूप मे-अपनी ितमूमि पितृश) मानकर यूजता हो जिसके शरीर में उस महान जाति का रक्त अवाहित हो रहा हो जिसका मूल वैदिक सप्तसिंषुओं में सर्वप्रथम दिखाई देता है और जो कुछ भी इसमें शामिल था उसको आत्मसात करते हुए तथा जो भी शामिल था उसको और बेहतर योग्य करते हुए सार में हिंदू” नाय से विख्यात हुईं. और जो हिन्दुस्तान को अपनी पितृभूमि और हिन्दू जाति को अपनी जाति गानने के कारण उस्र हिन्दू सस्कृति को अपनी विरासत गानता है और दावा करता है जो युख्य रूप से उनकी सामान्य पएरपरिक थाणा संस्कृत में व्यक्त की जाती है और एक साझा इतिहास, एक साज्मा साहित्य कला और वास्तुकला कानून और न्यायशास्त्र संस्कारों और रिजों समारोहों और क्षार्मिक उत्सवों मेलों और त्योहारों द्वारा ग्रकट होती है; और सबसे बढ़कर इस भथ्रूगि को इस सिंधुस्तान को अपनी पवित्र शृमि एिग्ययु) के रूप में संग्रेधित करता है. और इसे धर्फ्र्वतकों (पिंयस्करों) की श्रूगि के रूप में अपने ईश्वर और गुरुओं की तथा धर्मप्रायणता और तीर्थश्रूमि के रूप में देखता है। ये हिंदुत्व की अनिवार्यताएं हैं- एक साझा सष्ट्र (धष्ट्) एक साञ्मा नसत्र (जाति) और एक सराझ्मा सभ्यता (सस्क्ति)/ इन सभी आवश्यक बातों को समेटकर सक्षेप में यह कहकर अस्तुत किया जा सकता है कि एक हिंदू वह है जिसके लिए सिंधुस्थान न केवल पितृभ्रगि है. बल्कि पवित्र भूमि (एण्यमु) भी है।*
सावरकर के विद्वार में, एक पहचान के रूप में, हिंदुत्व की अवधारणा विशिष्ट सामान्य विषयों पर आधारित है जिन्हें उन्होंने पहचाना। इनमें सार्वजनिक रक्तसंबंध, सार्वजनिक जाति, सार्वजनिक भाषा, सार्वजनिक संस्कृति शामिल थी। इस सौँँचे में, वह साझा पितृभूमि और श्रद्धा क॑ सार्वजॉनेक स्थान क॑ विषय को भी जोड़ते है। वे लिखते हैं, 'क्योंकि हम (हिंदू न केवल उस श्रेम के बंधन से ब्धे हैं जो हम एक सामान्य पितृभूमि के लिए रखते हैं और स्राञ्मा रक्त से जो हमारी नसों में बहता है और हमारे दिलों में धड़कता है और हमारे श्रेम की यर्माहट को बनाये रखता है बल्कि हम सभी अपनी गरहान सभ्यता - हमारी हिंदू सस्कृति- के अति सर्वस्ामरान्य श्रद्धा रखते हैं जिसे बेहतर तरीके से संस्कृति शब्द के अलावा म्खुत नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह संस्कृत भाषा ही है जिसे हमारी सरकृति की अधिव्यक्ति और अस्ुति का साधन चुना गया है जो हमारी जाति के इतिहास में सबसे अच्छा और संरक्षित करने लायक सर्वोत्तत था / हम एक र॒ष्ट्र वंश हैं और एक साज्ना संस्कृति के मालिक हैं।
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