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प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ………………….. कुक उठी सहसा तरुवासिनि

संदर्भ और प्रसंग :

सुमित्रानंदन पंत की प्रथम रश्मि कविता 1919 में लिखी गई थी और वीणा में संग्रहित हुई है। यह कविता छायावाद की शुरुआती कविताओं में प्रमुख है। इसमें छायावादी प्रवृत्तियों को प्रमुखता से व्यक्त होने का अवसर प्राप्त हुआ था। पंत ने प्रारंभिक दौर में ही जिस तरह की परिपक्व छायावादी काव्य भाषा प्राप्त कर ली थी उसका सुंदर उदाहरण है यह कविता।

पंत ने इस कविता में चिड़िया को संबोधित करके कुछ बातें कहीं हैं। यह चिड़िया किशोर उम्र की है। यह उसे बाल विहगिनी कहते हैं जिसका अर्थ है बालिका चिड़िया। प्रकृति में मनुष्य को देखने का यह एक सुंदर उदाहरण है। वे उस चिड़िया से कोमलता पूर्वक बात करते हैं। एक तरफा संवाद में रूमानियत की अंतर धारा बहती हुई जान पड़ती है। नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक छायावाद में 1 अध्याय का नाम ही रखा है प्रथम रश्मि।

. कठिन शब्द

. प्रथम रश्मि

. सुबह की पहली किरण

. बाल बिहंगिनी

. किशोर उम्र की चिड़िया को संबोधन

. स्वप्न नीड़

. घोंसले मानव चिड़िया के सपनों को जगह देते हैं

. कामरूप

. अपनी इच्छा से रूप धारण करने वाले

व्याख्या :- बालिका चिड़िया को संबोधित करते हुए पंत कह रहे हैं कि हे रंगों वाली चिड़िया। कैसे पता चला कि सुबह होने वाली है? सुबह की पहली किरण के आने से पहले ही तुम उसके आने का संकेत कर देती हो। तुम कैसे पहचान जाती हो कि प्रथम रश्मि आने वाली है? पंत की इस प्रकार की जिज्ञासा को बाल सुलभ जिज्ञासा कहा गया है। इस कविता में वे कई बार इस तरह की जिज्ञासा प्रकट करते हैं। आगे पूछते हैं कि हे बाल विहगिनि। तुम्हें इतना सुंदर गायन कहां कहां से प्राप्त किया है?

भोर से पहले तुम अपने घोंसले में सोई थी और सुन्दर सपने देख रही थी। आते समय तुमने अपने शरीर को पंखों से ढक रखा था। इस तरह तुम सुख पूर्वक सोती हुई सपनों में डूबी थी। तुम्हारे घोंसले के आसपास जुगनू घूम रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो वे पहरेदार हूं और तुम्हारे दरवाजे की रक्षा कर रहे हैं। हालांकि सुबह होने तक वे जुगनू मानो थक गए थे और उघते हुए घूम घूम कर पहरेदारी कर रहे थे।

पंत भोर के पहले के कई दृश्य इस कविता में उपस्थित कर रहे हैं। अगला दृश्य यह है कि चांद की किरणों के सहारे बादल धरती पर उतर रहे थे। बादल तो कामरूप होते हैं और आकाश में चलते हैं मगर चांदनी की डोर पकड़ कर और ओस की बूंदे बनकर वे धरती पर उतर आए हैं। उन बादलों के नवल कलियों के कोमल मुख को स्नेह प्रेम से चुम्मा है कि कलियों ने खेलते हुए मुस्कुराने की कला सीख ली है।

आकाश के तारे रात में दीपकों की तरह चमक रहे थे। भोर होने से पहले ऐसा लगा मानो उन दीपकों में तेल समापन हो गया हो और वे बुझते बुझते से जल रहे हो। धरती पर हवा लगभग रुक गई थी। बेल के पत्ते ऐसे स्थिर हो गए थे मानों वे सांस भी नहीं ले रहे हो। धरती के सभी प्राणी सोए थे। चारों तरफ अंधेरा छाया था और केवल सपनों का आवागमन मालूम पड़ रहा था। किसी को आभास नहीं था कि अब रात समाप्त हो गई है और प्रथम रश्मि यहां पहुंचने के लिए चल पड़ी है।

विशेष :- छायावाद की शुरुआती कविताओं में प्रमुख है इसके प्रश्नों में बाल सुलभ जिज्ञासा है। यह कविता प्रकृति के सुकुमार कवि पंत की पहचान बन गई है।  16 और 14 मात्राओं की पंक्तियों के क्रम में पूरी कविता लिखी गई है। प्रकृति में मनुष्य को देखने की छायावादी प्रवृत्ति का यह सुंदर उदाहरण है। अपने ढंग से जागरण की कविता है।

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