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उच्चारणगत विशेषताओं के आधार पर हिंदी वर्णमाला का विवेचन कीजिए।

‘स्वतो राजन्ते इति स्वराः’ (महाभाष्य-पतंजलि), जो स्वतः उच्चरित हो, वह स्वर है अर्थात् जिसका उच्चारण किसी अन्य ध्वनियों की सहायता के बिना हो, वह स्वर है। विश्व की कुछ भाषाएं (दक्षिण अफ्रीका की बान्तू आदि भाषाएं) ऐसी हैं, जिनमें स्वर के बिना ही व्यंजन उच्चरित होते हैं, अतः उपर्युक्त परिभाषा हिंदी अथवा संस्कृत भाषा के लिए उपयुक्त हो सकती है, परंतु विश्व की सभी भाषाओं के लिए नहीं। स्वर मात्रा के प्रतीक हैं, वे ह्रस्व होते हैं अथवा दीर्घ। संस्कृत में मात्रा के आधार पर स्वरों के तीन प्रकार हस्व, दीर्घ और प्लुत माने गए हैं।

किसी स्वर के उच्चारण में लगने वाला समय, मात्रा कहलाती है। पाणिनि ने स्वर की तीन मात्राएं मानी हैं-ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। स्वरों का वर्गीकरण-हिंदी में स्वर ध्वनियों का वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन आधारों पर किया गया है - 

1. जिह्वा की ऊँचाई-जिह्वा की ऊँचाई के आधार पर स्वरों को चार वर्गों में विभक्त किया गया है

(i) संवृत-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का जितना अधिक भाग ऊपर उठता है, उससे वायु उतनी ही संकुचित होकर बिना किसी रुकावट के बाहर निकलती है, इससे उच्चरित होने वाले स्वर संवृत कहलाते हैं। ई, इ, ऊ, उ संवृत स्वर हैं।

(ii) अर्धसंवृत-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का भाग कम ऊपर उठता है और वायु मुखविवर में कम संकुचित होती है। इससे उच्चरित स्वर अर्धसंवृत कहलाते हैं। ए’ और ‘ओ’ अर्ध संवृत स्वर हैं।

(iii) अर्धविवृत-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा अर्धसंवृत से कम ऊपर उठती है और मुखविवर में वायु मार्ग खुला रहता है। इससे उच्चरित स्वर अर्धविवृत स्वर कहे जाते हैं। आप और औ अर्धविवृत स्वर हैं

(iv) विवृत-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा मध्य में स्थित होती है और मुखविवर पूरा खुला रहता है, ऐसे उच्चरित स्वर को विवृत _ कहते हैं। ‘आ’ विवृत स्वर है

2. जिह्वा की स्थिति-किसी स्वर के उच्चारण में जिह्वा की स्थिति के आधार पर स्वरों के तीन भेद किए जाते हैं

(i) अग्रस्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का अग्रभाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को अग्रस्वर कहते हैं। हिंदी में इ, ई, ए, ऐ, अग्रस्वर हैं।

(ii) मध्य स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को मध्य स्वर कहते हैं। हिंदी में ‘अ’ मध्य स्वर है।

(ii) पश्चस्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को पश्च स्वर कहते हैं। हिंदी में ऊ, उ, ओ, औ एवं आ पश्च स्वर हैं।

3. होंठो की आकृति-किसी स्वर के उच्चारण में होठों की आकृति के आधार पर स्वरों को दो वर्गों में रख सकते हैं

(i) गोलीय-जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति कुछ गोलाकार होती है, ऐसे उच्चरित स्वर को गोलीय कहते हैं। ऊ, उ, ओ, औ, ऑ गोलीय स्वर हैं। (अंग्रेजी से आए हुए व् स्वर के लिए ऑ का उच्चारण होता है; जैसे-डॉक्टर, नॉर्मल आदि।)

(ii) अगोलीय-जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति गोलाकार नहीं होती है, ऐसे उच्चरित स्वर को अगोलीय कहते हैं। अ, आ, इ, ई, ए और ऐ अगोलीय स्वर हैं।

व्यंजन ध्वनियाँ-परंपरागत व्याकरण में जिन ध्वनियों का उच्चारण स्वतः होता है और उसके उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की आवश्यकता नहीं होती, उसे स्वर तथा जिन ध्वनियों के उच्चारण के लिए स्वर की सहायता लेते हैं उन ध्वनियों को व्यंजन कहा गया है। व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण-परंपरागत वैयाकरणों की दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों को स्पर्श, अंत:स्थ एवं ऊष्म वर्गों में रखा गया है। स्पर्श के अंतर्गत सभी वर्गीय ध्वनियों (क वर्ग से प वर्ग तक कुल पच्चीस ध्वनियाँ) को रखा गया है, अंत:स्थ के अंतर्गत य र ल व को तथा ऊष्म ध्वनियों के अंतर्गत श ष स ह को रखा गया है। यह वर्गीकरण आभ्यंतर प्रयत्न के आधार पर किया गया है।

आधुनिक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उच्चारण स्थान (Place of Articulation) एवं उच्चारण प्रयत्न (Manner of Articulation) के आधार पर किया गया है। उच्चारण स्थान-किन्हीं ध्वनियों का उच्चारण मुखविवर के किस स्थान से हो रहा है। इन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में वायु का दबाव कम होता है अथवा अधिक।

इसके आधार पर व्यंजन ध्वनियाँ अल्पप्राण होती हैं अथवा महाप्राण। इन्हें उच्चारण स्थान के आधार पर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है

(i) द्वयोष्ठ्य-जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण दोनों होठों के स्पर्श से होता है। उन ध्वनियों को द्वयोष्ठ्य ध्वनि कहते हैं। हिंदी में प, फ, ब, भ, म, व द्वयोष्ठ्य व्यंजन हैं।

(ii) दंत्योष्ठ्य-जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण ऊपरी दाँत एवं निचले होंठ के स्पर्श से होता है। ऐसी व्यंजन ध्वनियों को दंत्योष्ठ्य ध्वनि कहते हैं। हिंदी में दंत्योष्ठ्य व्यंजन नहीं पाये जाते। इस प्रकार की व्यंजन ध्वनियाँ फारसी में ‘फ’ व अंग्रेजी में विद्यमान हैं। हिंदी की ‘व’ ध्वनि को कुछ ध्वनिविज्ञानी दंत्योष्ठ्य मानते हैं, परंतु ‘व’ द्वयोष्ठ्य व्यंजन है।

(iii) दंत्य-जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा दांत को स्पर्श करती है। ऐसे उच्चरित व्यंजन दंत्य कहलाते हैं; जैसे-त, थ,द, ध, न, स। दंत्य ध्वनियाँ दंत व वर्क्स दोनों के बीच उच्चरित होती हैं।

(iv) मूर्धन्य-जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण मूर्धा से होता है, उन्हें मूर्धन्य कहा जाता है। इनके उच्चारण में जीभ को कठोर तालु के पिछले भाग में स्थित मूर्धा का स्पर्श करना पड़ता है। ट, ठ, ड, ढ ण, ड़ एवं ढ़ आदि मूर्धन्य व्यंजन हैं।

(v) तालव्य-जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण तालु स्थान से होता है, उन्हें तालव्य कहते हैं। इनके उच्चारण में जीभ का अगला भाग तालु को छूता है; जैसे-च, छ, ज, झ, ञ, य तथा श।

(vi) कंठ्य-जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है, उन्हें कंठ्य व्यंजन कहते हैं। इन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ, का पिछला भाग कोमल तालु को छूता है,

इसीलिए कुछ भाषा वैज्ञानिक कंठ्य व्यंजन को कोमल तालव्य व्यंजन मानते हैं। क, ख, ग, घ, ङ कंठ्य ध्वनियाँ हैं। ध्वनि गुण-ध्वनियों के साथ कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं, जिन्हें ध्वनियों से अलग नहीं किया जा सकता, परंतु वे अपने आप में ध्वनि नहीं होते, इन्हें ध्वनि गुण कहा जाता है। भाषाविज्ञान में इन्हें खंडेतर ध्वनियां (Supra Segmental) कहते हैं। ये ध्वनि गुण मात्रा, बलाघात, सुर, अनुनासिकता और संगम आदि के रूप में ध्वनियों में विद्यमान होते हैं। मात्रा-किसी ध्वनि के उच्चारण में जितना समय लगता है, उसे हम उस ध्वनि की मात्रा कहते हैं। इसी के आधार पर स्वरों को ह्रस्व एवं दीर्घ कहा जाता है। यदि ये मात्राएं अर्थभेदक होंगी, तो वे ध्वनि स्वनिमिक होती हैं।

हिंदी में स्वरों के मात्रा-भेद के उदाहरण इस प्रकार हैं कल-काल जल-जाल मिल-मील दिन – दीन तुल -तूल आदि।  हिंदी में व्यंजन ध्वनियों में भी काल-मात्रा होती है। इसके कारण अर्थभेद भी होता है, परंतु यह काल-मात्रा लेखन में व्यंजन के द्वित्व के रूप में प्रयोग करने की परंपरा है; जैसे-पका-पक्का, सजा-सज्जा, पता-पत्ता आदि। बलाघात-बोलते समय कभी-कभी किसी ध्वनि पर विशेष जोर दिया जाता है। इसे ही सामान्यतः बलाघात कहा जाता है। किसी विशेष ध्वनि पर वाक्य अथवा पद की अन्य ध्वनियों की अपेक्षा उच्चारण में अधिक प्राणशक्ति लगाना बलाघात कहलाता है।

बलाघात का अर्थ है-शक्ति अथवा वेग की वह मात्रा, जिससे कोई ध्वनि या अक्षर उच्चरित होता है। इस शक्ति के लिए फुफ्फुस को एक प्रबल धक्का देना पड़ता है। परिणामतः एक अधिक बलवाला निःश्वास फेंकना पड़ता है, जिससे प्रायः ध्वनि में उच्चता की प्रतीति होती है। कम अथवा अधिक आघात का प्रयोग कुछ भाषाओं में अर्थ परिवर्तन का कारण भी होता है; जैसे-अंग्रेजी के Present शब्द में यदि प्रथम अक्षर पर अधिक बल दिया जाए तो ‘Present’ (उपस्थिति) का अर्थ होता है और यदि दूसरे अक्षर पर बल दिया जाए तो Present (उपहार) देने का अर्थ होता है सुर-ध्वनि को उत्पन्न करने वाली कंपन की आवृत्ति ही सुर का प्रमुख आधार होती है। इसी आधार पर इसे उच्च या निम्न कहा जा सकता है। सुर का प्रमुख आधार स्वरतंत्री होती है। चूंकि प्रत्येक व्यक्ति की स्वरतंत्री एक जैसी नहीं होती। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति का सुर एक जैसा नहीं होता। सुर के तीन भेद बताए गए हैं-उच्च, निम्न और सम।

उच्च में सुर नीचे से ऊपर जाता है, निम्न में ऊपर से नीचे आता है और सम में बराबर रहता है। इसे आधुनिक भाषाविज्ञान में उच्च 6122 सुर, निम्न सुर और सम सुर कहा गया है। अनुनासिकता-अनुनासिक खंडेतर (Segmental Phoneme) ध्वनि है। इसे स्वरगुण के रूप में जाना जाता है। अनुनासिकता अर्थभेदक इकाई है; जैसे-साँस-सास, सँवार-सवार, भाँग-भांग आदि। संगम अथवा संहिता-जिन भाषिक ध्वनियों का प्रयोग वाक्य में होता है, उन ध्वनियों की सीमाओं का स्पष्ट होना अनिवार्य होता है। किन्हीं दो भाषिक इकाइयों (ध्वनियों) के बीच कुछ क्षण के लिए रोका जाता है, तो उस अनुच्चरित समय का सीमांकन होता है। 

इस प्रकार के समय सीमांकन को संहिता या संगम कहा जाता है। यदि उपयुक्त संगम या संहिता न हो, तो अभिप्सित अर्थ से परे अर्थ मिलने की संभावना बढ़ जाती है; जैसे

खा + ली = खाली।
पी + ली = पीली।
उग + आया है = उगाया है।
बंद + रखा गया = बंदर + खा गया।
रोको मत + जाने दो = रोको + मत जाने दो।

भारतीय प्राचीन शास्त्रों में अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि शुद्ध उच्चारण का कितना महत्त्व था। यदि ‘इंद्रशत्रु’ में प्रथम अक्षर पर उदात्त हो, तो बहुव्रीहि समास होगा और अर्थ होगा-‘इंद्र है शत्रु जिसका’ और यदि अंतिम अक्षर पर उदात्त होगा, तो तत्पुरुष समास होगा, अर्थ होगा-इंद्र का शत्रु। इस प्रकार सुर-भेद से अर्थभेद हो जाता था।

एक-एक अक्षर के शुद्ध उच्चारण का महत्त्व प्राचीन भारतीय परंपरा में भी था। पाणिनीय ‘शिक्षा’ (ध्वनिविज्ञान) में एक स्थान पर आया है। जब किसी मंत्र में कोई अक्षर कम हो तो जीवनक्षय हो सकता है और जब अक्षर उचित सुर के साथ न पढ़ा जाए, तो इससे पढ़ने वाला व्याधि से पीड़ित हो सकता है और कोई अक्षर अशुद्ध ही उच्चरित किया जाए, तो वह उच्चरित रूप दूसरे के सिर पर वज्र की तरह पड़ता है।

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