परामर्श प्रक्रिया के दौरान परामर्शदाता एवं परामर्शकांशी दोनों ही अनेक भावनात्मक लहरों में साथ-साथ बद्दकर एक परस्पर चिकित्सकीय संबंध सूचर की रचना कर लेते है। दोनों अच्छे-बुरे का सामना करते हैं और उतार चढ़ावों से गुजरते हैं। सारी परामर्श प्रक्रिया केवल कर्मचारी को अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने में सहायक नहीं होती, यह परामशैदाता के वस्तुस्थिति विषयक बोध को भी विस्तार प्रदान करती है। परामर्श प्रक्रिया सफल एवं सुखद होने के पूर्व इन 6 सोषानों से गुजरती है:
1) अनुध्यान पूर्वावस्था: यह परामर्श प्रक्रिया का प्रथम प्रारंभिक सोपान है। यहां सारी परामर्श प्रक्रिया एवं परामर्शदाता के प्रति किंचित शंकापूर्ण होता है। इससे पूर्व वह या तो अन्य लोगों एवं परिस्थितियों को दोषी बताया रहता है या यही सोच रहा होता है कि आखिर क्या समस्या हो गई? यह भी संभव है कि उसे इस विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं हो कि उसे परामर्शदाता के पास भेजा क्यों गया 194 है? यहां परामर्शदाता एक श्रेयस्कर स्थिति में होता है और वष् एक आशापूर्ण माष्ठौाल की रचना कर कर्मी का विश्वास जीत सकता है। यह आवश्यक है कि कर्मचारी सुरक्षा कर्मी को परामर्शदाता पर भरोसा हो जाए, तभी सकारात्मक परिणाम पाना संभव और स्वास्थ्य हो पाता है।
2) अनुध्यानावस्था: यह अनुशीलन की अयस्था भी कहलाती है। दोनों, कर्मी और परामर्शदाता इस बात को लेकर आशंकित होते हैं कि दूसरे को जाने समस्या के बारे में क्या पता है। वे एक दूसरे को जानने का प्रयास करते हैं और यह भी स्पष्ट करने लग जाते हैं कि उनकी एक दूसरे से क्या अपेक्षाएं हैं। कर्मी की विगत एवं वर्तमान समस्याओं, उसके जीवन मूल्यों, कार्य एवं संगठन के प्रति उसकी वरीयता का अन्वेषण करने को स्वतंत्र होता है। इस सोपान में उन्हें परस्पर मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने का पर्याप्त अवसर मिलता है। कर्मी, दूसरी ओर, परामर्श प्रक्रिया को समझने और परामर्शदाता के अनुभवों एवं दुनियादारी के झान को समझने का प्रयास करता रहता है। यहीं पर परामर्शदाता के व्यवहार के आधार पर ही उस कर्मी के मन में विश्वास या अविश्वास विकसित होता है। यह सुज्ञाया जाता है कि इस सोपान में ही परामर्शदाता को प्रस्तुत अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए कर्मचारी का मरोसा जीत लेना चाहिए और फिर आगे बढ़ना चाहिए।
3) तैयारी: इसे समझ लेने की अवस्था भी कहते हैं। परामर्शदाता वार्तालाप का चिंत्राकन शुरू कर देता है और कर्मी समस्या विषयंक अपनी जानकारी सांझी करना शुरू कर देता है। यहां नितांत आवश्यक है कि परामर्शदाता सतर्क रहे, बहुत ध्यान से अपने शब्द चुने। कर्मी भी सच्चाई स्वीकार करने और वास्तविकता का सामना करने हेतु स्वयं को तैयार कर ले।
4) हस्तक्षेप: हस्तक्षेप के लिए परामर्शदाता को धैर्य और कर्मी द्वारा प्रोत्साहन की नितान्त आवश्यकता होती है। किसी द्वारा भी जल्दबाजी से प्रक्रिया का परिणाम बर्बाद हो सकता है। कोई कार्य सुझाने या सीधे प्रश्न करने से पूर्व परामर्शदाता को कर्मी की भागीदारी की तत्परता का आंकलन कर लेना चाहिए। कर्मचारी के संगठन में मान-प्रतिष्ठा, आत्मानुभूति, प्रक्रिया की स्वीकार्यता, परामर्दाता की स्वाकार्यता और परिवर्तन हेतु तत्परता मिलकर यह निर्धारित करेंगे कि परामर्श प्रक्रिया किस प्रकार जीवन वृत्ति करेगी। यदि यहां जल्दबाजी या बहुत दीर्घ॑सूत्रता होती है तो सारी प्रक्रिया का सत्य समाप्त हो सकता है तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आ पाता।
5) संधारण-अनुरक्षण: इस सोपान में परामरशंदाता एवं कर्मचारी विकल्पों की खोज प्रारंभ कर देते है और प्रत्येक विकल्प के गुण-दोषों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करते हैं। सभी बातें सांझी और समझाई गई होती हैं, सभी योजनाएं निर्धारित और स्वीकृत होती है”, सभी वचन दिए जा चुके होते है और उनकी पूर्ति की अपेक्षा है। पहले ईच्छा को समझ एवं स्वीकार कर अपनी मानकर अपने विचारों में उसका मूल्यांकन होता है किसी द्वारा थोंपने की भावना से नहीं। जब सब बातें पर्याप्त विवरण-विस्तार के साथ बता दी जाती हैं तो कर्मी स्वयं भी व्यवहार में बदलाव के प्रभावों की मूत्त कल्पना करने लगता है। तब यह मान लेना उचित होगा कि वह व्यवहार परिवर्तन परामर्श प्रक्रिया के अंतर भी बना रहेगा।
6) पश्च देखभाल: परामर्शदाता और कर्मी दोनों को यह समझ लेना चाहिए कि कुछ परिस्थितियां एवं कारक तो पूर्णतः परिहार्य या परिवर्तनीय नहीं होते। अतः संभव है कि तनाव को आरंभ करने वाली स्थिति फिर पैदा हो जाएं और हमें फिर पूर्ववत व्यवहार करने को उकसाने लगे।
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