नागरिकता की परिभाषा-प्राचीन समय से ही एक राजनीतिक समुदाय की वैध सदस्यता के रूप में नागरिकता को परिभाषित किया गया है। रोम की न्याय-व्यवस्था में नागरिकता का आशय विधि के अनुसार व्यवहार करने की स्वतंत्रता, विधि से सुरक्षा मांगने और अपेक्षा करने की स्वतंत्रता था। आधुनिक राज्य में कानूनी स्तर पर नागरिकता व्यक्ति और राजनीतिक समुदाय के सदस्यों के बीच अधिकारों और कर्त्तव्यों की निश्चित समानता को बताती है। वास्तव में किसी क्षेत्रीय राज्य की सहभागितापूर्ण सदस्यता को ही नागरिकता कहते हैं।
ग्रीक और रोम में पैदा हुई तथा मध्यकाल में नगर-राज्यों में प्रचलित तथा 19वीं और 20वीं सदी में पूँजीवादी समाजों में तेजी से फैली यह विचारधारा प्रारम्भ से ही पश्चिमी विचारधारा है। कानूनी और राजनीतिक सिद्धान्तों के अनुसार नागरिकता का आशय किसी राष्ट्र-राज्य अथवा नगर के सदस्य के अधिकारों एवं कर्तव्यों से है। समाजशास्त्र में नागरिकता का सिद्धान्त टी.एच. मार्शल की विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित है।
उसने नागरिकता को एक ऐसी हैसियत के रूप में परिभाषित किया है जिसे किसी समुदाय का पूर्ण सदस्य प्राप्त करता है। उसने नागरिकता के नागरिक, राजनीतिक और सामाजिक तीन अंगों की चर्चा की है। नागरिक अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं तथा जो कानूनी न्यायालय में संस्थागत हैं। राजनीतिक नागरिकता समाज में वोट डालने या राजनीतिक पद ग्रहण करने के माध्यम में राजनीतिक शक्ति के प्रयोग करने में सहभागिता की गारंटी देती है।
सामाजिक नागरिकता एक समुचित जीवन स्तर में भागीदार होने का अधिकार है और यह अधिकार आधुनिक समाजों के कल्याणकारी और शैक्षणिक व्यवस्था में समाहित हो चुका है। मार्शल की परिभाषा की यह कहकर आलोचना की गई है कि यह आर्थिक नागरिकता के विषय में मौन है। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नागरिक किसी राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत रहने वाला वह व्यक्ति है जिसे राजनीतिक, कानूनी एवं सामाजिक सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त होते हैं।
वैश्विक नागरिकता प्रौद्योगिकीय विकास तथा व्यापार का राष्ट्रीयता से परे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय बन रहा है, जिससे नागरिकता की पुरानी अवधारणा फीकी पड़ती जा रही है और वैश्विक नागरिकता की अवधारणा जोर पकड़ती जा रही है। वैश्विक नागरिकता उस प्रक्रिया की शुरूआत है जहाँ मिट्टी और खून की पहचान लुप्त होगी और हमारी चेतना विश्व नागरिक के रूप में विस्तृत होगी तथा जो जातीय और राष्ट्रीय इतिहास से उत्पन्न तनावों पर काबू पाने में हमारी सहायता करेगी। वास्तव में विश्व नागरिकता संकीर्ण राष्ट्रीय पहचान को कमजोर करके पूरे विश्व का सदस्य बना है। 1960 में मार्शल मकलुहन ने विश्वगाँव की जो भविष्यवाणी की थी वह आज वास्तविकता बन गई है। सूचना के वर्तमान युग में लोगों और पूँजी के प्रवाह की सहायता से नए प्रकार के सामाजिक ढांचे का उदय हो रहा है।
यह ऐसी सीमाओं से मुक्त विश्व की कल्पना करता है, जो प्रत्यक्ष रूप से सर्वदेशीय होती है। इसमें राष्ट्र के संकुचित दृष्टिकोण का कोई स्थान नहीं है। यह लोगों को एक से अधिक देश और संस्कृति का दावेदार होने की छूट प्रदान करती है। वैश्विक नागरिकता की अवधारणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भारतीय दृष्टिकोण के काफी निकट है। दोहरी नागरिकता सैद्धान्तिक रूप से दोहरी नगारिकता का तात्पर्य दो राज्यों की नागरिकता से व्यक्ति का लैस होना है। किसी प्रवासी समुदाय के किसी अन्य अपनाने वाले समुदाय से आत्मसात होने का अर्थ अपनी जातीय और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए मेजबान देश के लोगों के आपसी लाभ के लिए सुखदायी होना है। दोहरी नागरिकता की अवधारणा आज के वैश्वीकरण में मात्र समय का भ्रम है।
दोहरी नागरिकता से स्थानीय लोगों में जलन की भावना पैदा हो सकती है, जिनको यह महसूस हो सकता है कि प्रवासियों को खुशहाली के लिए अपना देश छोड़कर जाने के लिए पुरस्कृत किया जा रहा है। यदि ध्यान से देखा जाए तो दोहरी नागरिकता केवल भौतिक, आर्थिक लाभ और सुविधा के लिए है। उदाहरणस्वरूप प्रवासी भारतीयों को यात्रा, शिक्षा, काम और भारत में कहीं भी सम्पत्ति खरीदने का अधिकार और योग्यता प्राप्त होती है। इससे प्यार और जुड़ाव की कोई भावना पैदा नहीं होती।
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