दलित लोक कथा की विरासत एवं दलित कहानी भारतीय लोक कथाओं का अति प्राचीन एवं समृद्ध इतिहास रहा है। इस परंपरा का विकास मौखिक तथा वाचिक अभिव्यक्ति से भी हुआ है। लोक कथाओं के प्राकट्य काल के संदर्भ में निश्चित तौर पर अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यह मनुष्य के जन्म की कहानी से संबद्ध है न केवल भारतीय भाषाओं में अपितु विश्व के हर समाज में ऐसी परंपराएँ विभिन्न भाषाओं में व्याप्त होगी।
घर-परिवार में बड़े बूढ़ों के मुख से कदाचित सभी ने अनेक कहानियाँ सुनी होगी। इसी के प्रकार लोक कथाओं की परंपरा अभी तक जीवत है। लोक कथाओं के माध्यम से दलित कहानियों की विकास यात्रा तथा उसको। विशिष्टताओं एवं सरोकारों को समझ जाना अति आवश्यक है। विश्वव्यापी प्रतिरोध को प्रकृति इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने में सहायक रही है। जातक कथाओं की एक विकसित परंपरा बौद्धकालीन भारत में भी देखने को मिलती है।
कल्पना एवं वास्तविकता के आधार पर भविष्य निर्माण के साहित्य की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। जादुई एवं भूतप्रेत की कहानियों ने इस परंपरा को और अधिक सशक्त बना दिया है। इन कथाओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन के अतिरिक्त, लोगों के मध्य दलित समस्याओं को प्रस्तुत करना भी है। धेरिंगाथाएँ ढकाल में महिलाओं द्वारा रचित प्राचीनतम साहित्य है, जिसके माध्यम से महिलाओं के मन में पनप रहे विरोध के स्वरों को सुना जा बौद्धकाल सकता है।
भारतीय सामाजिक सरचना जाति, धर्म, समुदाय आदि अनेक स्तरों पर बटी हुई है। वर्चस्व एवं प्रतिरोध के स्तर विभिन्न प्रकार एवं स्तर पर देखने को मिलते हैं। कदाचित यह लोगों के विभिन्न स्तरों पर बटे होने का उल्लेख करता है। साहित्य इतिहास लेखन में लोक को लोकधर्म के सूत्र में बांधने की परंपरा रही है। इसको व्याख्य विभिन्न हिंदी लेखकों ने अलग-अलग प्रकार से की है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ. नामवर सिंह ने लाकधर्म का परपरा को एक विचारधारा का रूप दिया है। किसी धर्म में इसे मर्यादा पालन संदर्भ में देखा जाता है, तो अन्य किसी में लोक विद्रोह के रूप में प्रभुत्वसम्पन्न लोक के लिए लोकधर्म परंपरा, प्रतिष्ठा, नीति-रिवाज तथा अस्पृश्यता का व्यवहार है, जिसके द्वारा वे अपना प्रभुत्व बनाए रख सक।
वहीं दूसरी ओर उत्पीड़न च त्रासद युक्त जीवन को जीने के लिए विवश लोक धर्म, रीति-रिवाज तथा आडंबर की इस परंपरा का विरोध करने के लिए एक प्रतिरोधी संस्कृति के निर्माण के पक्षधर रहे हैं। लोक कथाओं के माध्यम से ही विभिन्न सामाजिक अधिकारों तथा सुविधाओं जैसे शिक्षा शास्त्र आदि से विपन्न यह समाज अपनी मनोदशा की अभिव्यक्ति करते हुए तथाकथित वरिष्ठ वर्ग को चुनौती देता है। मुहावरे लोकोक्तियाँ लोक कथाएँ, स्मृतियाँ एवं गोष्ठी इनका पोषण करती हैं। वर्ण व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना के द्वारा शोषण-उत्पीड़न की इन मानसिकताओं के विरोध में प्रतिशोध की परंपरा का इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया है।
बुद्ध कबीर, जोतिबा फुले तथा डॉ. अंबेडकर जैसे कालजयी समाज सुधारकों एवं संतों ने इस दलित आंदोलन के द्वारा विद्रोह की पृष्ठभूमि रची है। दलित जनमानस व लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में वर्चस्व के विरुद्ध चेतना का निर्माण करने में सक्षम रहे हैं। समकालीन कहानी से पहले की कहानी का प्रारूप दलित जीवन की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। शिक्षा से जागृत प्रेरणा ने दलित साहित्य में कहानी लेखन की शैली का विकास किया है तथा इसे नवीन एवं उच्चतर आयाम प्रदान किए हैं। अबेडकरवादी विचारधारा ने भूतप्रेत, जादू जैसे आडंबरयुक्त एवं अंधविश्वासपूर्ण कर्मकाडा से दलित लेखन को मुक्त किया है। दलित छवि को धूमिल करती कहावतों, लोकोक्तियों का खंडन दलित विमर्श एवं समतावादी विचारधारा ने किया है।
आधुनिक दलित लेखन की विचारधारा इस विषय में सुस्पष्ट है। इनकी कहानियाँ सवर्ण पुरुषों द्वारा घरा के भीतर अपनी ही स्त्री के शोषण को कथा मुक्तिकामी स्वर में गुंजायमान हैं। दलित कहानियों को कथावस्तु असमानता र तथा अन्याय की समाप्ति एवं उसके विद्रोह के इर्द-गिर्द घूमत है। दलित कहानियाँ समतापरक समाज का निर्माण करने के उद्देश्य से परिपूर्ण हैं, जिसके लिए इनमें यदा कदा मिथकों को रूपातरित करके चेतना फूंकने का प्रयास भी किया जाता है।
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