Recents in Beach

अधिकारों का मार्क्सवादी सिद्धान्त

परिभाषाओं, व्याख्याओं और औचित्य की विभिन्नता के बावजूद व्यक्ति के अधिकारों का अस्तित्व उदारवाद की मौलिक धारणा है।  अधिकार सामाजिक स्तर पर व्यक्ति की कुछ ऐसी माँगें हैं जिन्हें राज्य अपने कानून द्वारा सुरक्षित करता है। इन अधिकारों के आधार चाहे प्राकृतिक हों या कानूनी, ऐतिहासिक, नैतिक अथवा कल्याणकारी, ये व्यक्ति के मौलिक अधिकार हैं। इसके विपरीत, मार्क्सवाद में हम अधिकारों के किसी निश्चित सिद्धांत का अभाव पाते हैं। मार्क्सवाद के अधिकार सम्बन्धी विचार निजी सम्पत्ति की धरणा के साथ जुड़े हुए हैं।

मार्क्स का मुख्य लक्ष्य पूंजीवादी समाज और अर्थव्यवस्था की आलोचना रहा; उसने राज्य अथवा राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों का कोई निश्चित सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किया। अतः मार्क्सवाद के अन्तर्गत हम अधिकारों के किसी सकारात्मक सिद्धांत का अभाव पाते हैं। तथापि अधिकारों पर उसके विचारों ने बुर्जुआ अधिकारों के खोखलेपन का पर्दाफाश किया जो परम्परा बाद में आने वाले मार्क्सवादी लेखकों ने भी निभाई।

क्रांति के बाद सोवियत यूनियन और चीन के संविधानों के अध्याय जोड़े गये परन्तु व्यवहारिक स्तर पर उनकी प्राप्ति भी एक सपना ही रही। मार्क्स ने अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में बुर्जुआ राज्य में दिए जाने वाले अधिकारों की प्रकृति का विश्लेषण किया। उसका विचार था कि आर्थिक असमानताएँ राजनीतिक असमानताओं को जन्म देती है। परिणामस्वरूप, मजदूरवर्ग बहमत में होने के बावजद सरकार में शासक वर्ग का दर्जा कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता और उनके अधिकार खोखले ही रहेंगे।

अपनी पुस्तक ‘The Jewish Question 1843’ में फ्रांस और अमरीका के संविधनों में निहित किए गये मानव अधिकारों का विश्लेषण करते हुए मार्क्स कहते हैं कि यह मानव अधिकार बहुत हद तक राजनीतिक अधिकार थे जिनका उपयोग समाज में अन्य लोगों के साथ ही किया जा सकता था। इनकी विषय-वस्तु और प्रकृति राज्य की प्रकृति पर निर्भर करती है।

Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE

For PDF copy of Solved Assignment

WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

Post a Comment

0 Comments

close