दलित स्त्री आत्मकथा का वैशिष्ट्य दलित आत्मकथनों की चर्चा करते हुए दलित स्त्री आत्मकथना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ये आत्मकचन दलित लेखन एवं चिंतन का एक नया स्वरूप है। ये आत्मकथन दलित साहित्य में हो रहे सतत विकास को इंगित करते हैं। इन आत्मकथनों पर निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से विचार किया जाएगा
(क) दलित स्त्री की जिन्दगी का सच
(ख) दलित स्त्री का प्रतिशोध दलित स्त्री की जिंदगी का सच
सत्यशोधक समाज (IST) के संस्थापक महात्मा ज्योतिबा फुले ने सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा का समर्थन किया स्त्रियों की दशा को दर्शाते हुए उन्होंने कहा राख ही जलने का दर्द जानती है। यह कथन दलित स्त्री आत्मकथनों के मूल्यों को सही मायने में समझाता है। इस अभियान को आगे बढ़ाते हुए डॉ. अम्बेडकर ने स्त्रियों को सामाजिक परिवर्तन के अभियान से जोड़ा दलित स्त्रियों में भी इस आंदोलन के प्रति जागृति तथा संघर्ष की भावना का प्रसार हुआ। इसी पीढ़ी ने आत्मकथन लिखना आरंभ किया।
मुख्य दलित स्त्री आत्मकथना में राजनंदिन आमा’ (1990) शांताबाई धनजोदानी (19192001), “मिटलेली कवाड’ (1983) मुक्ता गोड (1922-2004). “मान्या जल्माची चित्तर कथा’ (199) शांताबाई कृष्ण काबल-(1928) हिंदी अनुवाद ‘नाजा’ (2009), ‘अतः स्फोट (1989) कुमुद पाई (1988), ‘आययाने’ (2003, कमिला प्रचार (1945) आदि है। हिन्दी में अब तक दोहोआत्मकपन पूर्ण है अभिशाप (1999, कौशल्या मंत्री) तथा ‘शिकर्ज का दर्द (सुशीला टाकभर)।
दलित स्त्री आत्मकथन दलित साहित्य जगत में एक बड़े अभाव को पूरा करते हैं। इन आत्मकथनों के द्वारा दलित आंदोलन का स्तर बढ़ाया जा सकता है। जीवन की वास्तविकताओं को शब्दों डालकर उन्होंने आंदोलन को अधिक सघन बनाया है। दलित स्त्रियों के जीवन एवं उनकी समस्याएँ अम्बेडकरवादी आंदोलन से दृढ़ता से संबद्ध हैं। भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे की परंपरा विद्यमान है। दलित स्त्री आत्मकथनों के प्रकाशन से इस प्रथा के ‘दलित संस्करण पर विमर्श अपेक्षाकृत अधिक जुझारू हुआ है। दलित स्त्रियाँ तीन संतापों से ग्रस्त है-स्त्री होने का दलित होने का तथा गरीब होने का।
गैर-दलित सवर्ण समुदाय के लिए वे तिरस्कृत अथवा उपभोग की सामग्री मात्र हैं। यहाँ तक कि दलित समुदाय भी उन्हें निकृष्ट ही समझता है। दलित स्त्रियों साथ बहुधा अमानवीय व्यवहार देखा जा सकता है। दलित समुदाय में अनेक घोर स्त्री विरोधी कुरीतियाँ देखो जाती हैं। बेबी काबले ने ‘जीवन हमारा’ में इसी प्रकार की एक छोड़ो प्रथा का उल्लेख किया है, जिसमें आदमी अपना । प्रभुत्व साबित करने के लिए स्त्री (बर) को पौटता है। यदि बहू अत्याचारों से तंग आकर अपने मायक चली जाती है, तो उसे पुनः ससुराल लाकर प्रताड़ित किया जाता था। पाँच किलो वजन की लकड़ी को गोल आकार में कटवाया जाता था तथा उसके बीचोबीच पाँव घुसने जितना छेद बनाया जाता व एक सरिया लगा दिया जाता था। यह खोड़ा बहू को सौधे पाँव में पहनकर घर का सारा काम करना पड़ता। उसके पाँव जख्मी होत एवं उसमें से खून भी निकलता था।
यूँ तो दलित स्त्रियों को स्वतंत्र करवाने के लिए अनेक राग अलापे गए है परन्तु, दलित स्त्री आत्मकथन इनकी वास्तविकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। कौशल्या बैसत्री के दोहरा अभिशाप तथा शांताबाई कामले के ‘नाजा में यह वर्णित है कि दलित स्त्री अत्यधिक पीड़ाग्रस्त है एवं उनको अनेक कार्यों में वर्जित रखा जाता है। कौशल्या बैमंत्री ने अपने आत्मकथन में लिखा है कि उनके पति उच्च शिक्षा प्राप्त लेखक तथा भारत सरकार में उच्च पद पर कार्यरत थे। वे स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन भी पाते थे। फिर भी उन्होंने कभी भी अपनी पत्नी का सम्मान नहीं किया तथा प्रतिदिन होने वाले विवाद एवं अपशब्दों के कारण लेखिका को मजबूरी में घर छोड़ना पड़ा।
शांता कांबले तथा सुशीला टाक मौरे आदि अन्य लेखिकाओं को भी इसी प्रकार प्रताड़नाएँ सहन करनी पड़ीं। प्रायः हर उच्च शिक्षित दलित परिवार की वास्तविकता रही है। दलित स्त्रियों को सुधा (भूख) का भी सामना करना पड़ता है। इसका जीवंत उदाहरण लालू महारिन की आत्मकथा मिलता है। लालू महारिन को सुधा शांत करने के लिए भुट्टे के खेत में चोरी करके अपना पेट भरना पड़ा. जबकि उसके पास नवजात बारह दिन का बच्चा भी था। इसी प्रकार का अनुभव रावलीबाई का भी था। अपने आत्मकथन ‘मेरी संस्कृत कथा में कुमुद पावड़े लिखती हैं कि सवर्ण समाज के लोगों ने उनकी पढ़ाई पर बहुधा व्यंग्य कसे है, साथ ही बहुजन समाज के तथाकथित सुधारक खुद को ब्राह्मण विरोधी कहकर इठलाने वाले महाभागों ने भी उनका मजाक उड़ाया है।’
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