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भारत की चुनावी राजनीति में मतदान व्यवहार के निर्धारक के रूप में जाति की भूमिका का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

 मत व्यवहार का अध्ययन चुनाव अध्ययनों का एक हिस्सा है। चुनावों के अध्ययन के विषय को सेफोलोजी कहते हैं। इसका उद्देश्य चुनावों के दौरान मतदाताओं के व्यवहार के बारे में प्रश्नों का विश्लेषण करना होता हैं। मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट क्यों देते हैं? या वे चुनाव में एक ही पार्टी को क्यों पसंद करते हैं? क्या ये आर्थिक कारक? क्या यह मजबूत नेतृत्व या करिशमाई नेतृत्व हैं? ये कुछ सवाल हैं जिन पर मतदान के निर्धारकों के संबंध में अध्ययन किया जाता है। भारत में राजनीतिक विद्धान, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, मीडिया हाउस और राजनीतिक दल चुनावी अध्ययनों में लगे हुए हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में 1951-52 के प्रथम आम चुनावों के समय से 1950 के दशक से चुनाव अध्ययन शुरू हुए थे। लेकिन व्यवस्थित तरीके से चुनावी अध्ययन 1960 के दशक से शुरू हुए थे। रजनी कोठारी और मायरन वीनर जैसे राजनीतिक वैज्ञानिकों ने इसका आरंभा किया था। जाति मतदान व्यवहार का सबसे प्रमुख कारक माना जाता है।  यद्यपि जाति स्वतंत्र भारत में चुनाव का एक महत्वपूर्ण और प्रभावी तत्व है लेकिन 1990 के दशक से यह अधिक प्रभावशील हो गया है। इसका प्रमुख कारण है वी.पी. सिंह सरकार ने ओ.बी.सी. के लिये मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना था जिसने केन्द्र सरकार की संस्थाओं में इन वर्गों के लिये आरक्षण का सुझाव दिया था। इसने उत्तर भारत में प्रमुख दलों जैसे बी.एस. पी., एस.पी. और आर.जे.डी. को उभरने का मौका दिया।

इन राजनीतिक दलों की पहचान दलितों, पिछड़े वर्गों या कृषक वर्गों के दलों के रूप में हुई है। इनके उदय के पूर्व काँग्रेस पार्टी विभिन्न जातियों के गठबंधन का प्रतिनिधित्व करती थी। इन पार्टियों ने निम्न जातियों के महत्व को रेखांकित किया है और इन जातियों ने चुनावी राजनीति में अपनी अहम भूमिका निभाई है। इन जातियों के उदय ने विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ावा दिया है। भारत में चुनावी अध्ययनों से यह पता चला है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में जाति एक महत्वपूर्ण मापदंड के तौर पर कार्य करती है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि विभिन्न जातियों की विशेषकर दलितों एवं पिछड़े वर्गों की भागीदारी ने लोकतंत्र में एक शांत क्रांति (Silent Revolution) अथवा प्रजातांत्रिक उथल-पुथल का संकेत दिया है।

जाति के राजनीतिकरण ने कमजोर वर्गों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समुचित भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया है।  राजनीतिक दल भी अपने कार्यक्रमों, घोषणा पत्रों को बनाते समय जाति का विशेष ध्यान रखते हैं। जाति नीति-निर्माण को भी प्रकाशित करती है। राजनीतिक दल अपने प्रत्यशियों का चयन उनकी जाति के आधार पर तय करते हैं। जो प्रत्याक्षी चुनाव लड़तें हैं वो सीमित जातियों से होते हैं लेकिन जो जातियाँ मतदान में हिस्सा लेती हैं वो संख्या में अधिक होती है। ऐसे मामलों में, जातियाँ अपनी-अपनी जाति के प्रत्याशियों को वोट देती हैं।

क्या इसका अर्थ यह है कि जाति का महत्व कम हो जाता है? क्योंकि मतदाता उम्मीदवारों के लिये अपनी जाति के साथ-साथ अन्य जाति के प्रत्याशी को भी वोट देते हैं। आमतौर पर जाति समूह (एक से अधिक जातियाँ) ऐसे उम्मीदवार को वोट देने का निर्णय करता है जो अपनी जाति का नहीं होता क्योंकि मतदान देने वाली जातियाँ अनेक होती हैं तथा उम्मीदवार एक जाति का होता है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में चुनावों में जाति अधिक निर्धारक कारक होता है। जाति कारक न केवल पार्टी के गठन को प्रभावित करता है बल्कि, राष्ट्रीय पार्टी के साथ जाति विशेष के संबंध को भी प्रभावित करता है। जैसा कि पुष्पेन्द्र ने एक लेख में उल्लेख किया है, जिसमें 11वीं लोकसभा चुनाव (1996) में उच्च जाति के नेताओं ने खासकर उत्तरी भारत में काँग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और भाजपा के पीछे चले गये।

आंतरिक विभाजन तथा संघर्षों क बावजूद क्षेत्रीय दलों और पिछड़ी जातियों के उदय को विभिन्न क्षेत्रीय दलों और मतदाताओं के रूप में जबरदस्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला है। जिन पक्षों की पहचान विशिष्ट जातियों के साथ की जाती है, वे मुख्य जातियों में अपना समर्थन आधार बनाए रखना चाहते हैं।  जिन पार्टियों का समर्थन का आधार प्रमुख जातियां होती है वो उन्हें बनाए रखना चाहती है। उदाहरण के तौर पर बी. एस.पी., एस.पी., आर.जे.डी., जे.डी.यू.। इन पार्टियों का आधार दलित एवं पिछड़े वर्ग हैं जबकि बी.जे.पी. का आधार मुख्यता उच्च जातियां है। लेकिन कई अवसरों पर जातियों का एक वर्ग अन्य पार्टियों को भी समर्थन करता है। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि ये जातियाँ अपने दलों से असंतुष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए यू.पी. में 1990 में, कई पिछड़ी जातियों ने बी.जे.पी. को समर्थन दिया था।

शोधकर्ताओं ने इसे बी.जे.पी. का मंडलीकरण कहा था। इस शताब्दी के प्रथम दशक तक कई उच्च जातियों ने बी.एस.पी. एवं एस.पी. का भी समर्थन किया था। शाह के अनुसार पाटियाँ विभिन्न जातियों के सदस्यों को पार्टी का टिकट देकर अकॉमॉडेट (शामिल) करती हैं। 1950 के दशक के चुनावों के दौरान, जातिवादी संगठनों ने अपनी एकता बनाये रखी और अपने समर्थकों को वोट देने के लिए उत्साहित किया। उन्होंने अपनी जाति के अपने सदस्य को वोट देने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया चाहे वे किसी भी दल के उम्मीदवार हों। तथापि, कभी भी जातियाँ एकजुट जाति के आधार पर वोट नहीं डालती हैं।

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