रैदास रामानंद की शिष्य परंपरा और कबीर के समकालीन कवि थे। रैदास का जन्म सन् 1299 ई. में काशी में हुआ। रैदास विवाहित थे, उनकी पत्नी का नाम लोना था। इन्होंने स्वयं अपनी जाति का उल्लेख किया है-‘कह रैदास खलास चमारा | संत रैदास पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने प्रयाग, मथुरा, वृंदावन, भरतपुर, चित्तौड़ आदि स्थानों का भ्रमण कर निर्गुण ब्रह्म का जनसाधारण की भाषा में प्रचार-प्रसार किया। चित्तौड़ की रानी और मीराबाई इनकी शिष्या थीं।
रैदास में संतों की सहजता, निस्पृहता, उदारता, विश्वप्रेम, दृढ विश्वास और सात्विक जीवन के भाव इनकी रचनाओं में मिलते हैं। इनकी रचनाएँ संतमन की, विभिन्न संग्रहों में संकलित मिलती हैं। इनके फुटकर पद ‘बानी’ के नाम से “संतबानी सीरीज में संग्रहित मिलते हैं। इनके “आदि गुरु ग्रंथ साहिब” में लगभग चालीस पद मिलते हैं। इन्होंने संत कबीर के समान मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा आदि बाहा आडम्बरों का विरोध किया है। कुछ पद नीचे उद्भुत हैं
"तीरथ बरत न करौ अंदेशा । तुम्हारे चरण कमल भरोसा ।। जहँ तहँ जाओ तुम्हरी पूजा । तुमसा देव और नहीं दूजा ।।
संत रैदास ने जाति-प्रथा पर भी प्रहार किया है अपने अपमान और ओछेपन को लेकर उन्होंने लिखा है
जानी ओछा पाती ओछा, ओछा जनम हमारा। राम राज की सेवा कीन्हीं, कहि रविदास चमारा।।
निर्गुण उपासना पद्धति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है। हिंदू ग्रंथ में ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूप और उनके उपासकों के बारे में बताया गया है। निर्गुण ब्रह्म थे माकता है कि ईश्वर अनादि, अमम्त है. वह न जन्म लेता है न मरता है, इस विचारधारा को मान्यता दी गई है। निर्गुण’ शब्द का व्याकरण की दृष्टि से व्युत्पन्नार्थ है निर्गुतोगुणोभ्यः अथति गुणों से विहीन या शून्य कोश के अनुसार, ‘निर्गुण’ शब्द का अर्थ गुणों से रहित है।
साहित्य में निर्गुण शब्द का प्रयोग प्रभाव, शील, धर्म, प्रत्यंचा, सगुण, सद्गुण आदि के अर्थ में मिलता है। दार्शनिक अर्थ में गुण का अर्थ प्रकृति के तीन गुणों सत्, रज, व तम से माना जाता है। इस प्रकार निर्गुण’ का सामान्य अर्थ हुआ जो प्रकृति के सत्, रज एवं ‘तम’ तीनों गुणों से परे हो । वेदों से लेकर अन्य भारतीय आस्तिक दर्शनों में तीनों गुणों से इतर ब्रह्म को ही माना गया है जिसे ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहा गया है। निर्गुण ब्रह्मा के संबंध में ‘श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है
एको देवा सर्व भूतेषु गूदः सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्व भूतादिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।
इसका अर्थ है कि समस्त प्राणियों में एक ही देव शक्ति या ब्रह्म की स्थिति है वह बह्म सर्व व्यापक, समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ सबका साक्षी सबैको चेतना का वरदान देने वाला शुद्ध एवं निर्गुण है। वह परमपुरुष मूर्त, व्यक्त, साकार, रूप से परे व इंद्रिय ग्राह्य नहीं है। वस्तुतः निर्गुण भारतीय दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। तत्वचिंतकों ने ब्रह्म-निरूपण के प्रसंग में निर्गुण को सूक्ष्मता से परिभाषित करते हुए कहा है कि निर्गुण वह है जिसका किसी प्रकार के विशेषण या लक्षण द्वारा इदमित्थं निरूपण नहीं किया जा सकता। निर्गुण भक्ति के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है “निर्गुण भक्ति मार्ग की आरंभिक अवस्था ज्ञान की कथनी वाले मार्गों की परंपरा का ही अंतिम रूप रही होगी।
वस्तुतः इनकी साखियाँ आठ योगांगों के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट करने के उद्देश्य से ही लिखी गई हैं। इन उपदेशों में ज्ञान-प्रवण नैतिक स्वर ही प्रधान है, योग संबंधी स्वर गौण । इसी ज्ञान-प्रवण नैतिकता प्रधान योग-मार्ग के खेत में भक्ति का बीज पड़ने से जो मनोहर लता उत्पन्न हुई. उसी का नाम ‘निर्गुण’ भक्ति-मार्ग है| स्थान-स्थान पर कबीर आदि निर्गुण संतों ने अपने पदों में “त्रिगुणातीत, द्वैताद्वैत विलक्षण, भावाभावविनिर्मुक्त, अलख, अगोचर, अगम्य, प्रेमपारावर भगवान को निर्गुण राम कहकर संबोधन किया है। वह समस्त ज्ञान तत्त्वों से भिन्न है फिर भी सर्वमय है। उस सर्वव्यापक, अनुभवजन्य, अगम, अगोचर परमात्मा को कबीर ने गूंगे का गुड़ बताकर जिस तरह से अभिव्यक्त किया है वह निम्न पद में देखा जा सकता है
बाबा अगम अगोचर कैसा, ताते कहि सुझावौ ऐसा। जो वीसै सो तो नाहीं, है सो कहा न जाई।। सैना-बैना कहि समुझाओं, गूंगे का गुड़ मई। दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, विनसै नाहि नियारा ।।
वस्तुतः निर्गुण ब्रहा को निर्गुण संतों ने तार्कित बहस से परे व विभिन्न दार्शनिक वाद-विवादों से ऊपर माना है जो तर्क से अगम्य है, अनुभूति का विषय है और सहज भाव व प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के संबंध में लिखा है कि ‘ईश्वर पूजा की उन भिन्न भिन्न बाह्य विधियों पर से ध्यान हटाकर जिनके कारण धर्म में भेदभाव फैल हुआ था, ये शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार करना चाहते थे। भारतीय शास्त्रों में जिस दुर्लभ निर्गुण ब्रह्म का वर्णन मिलता है, निर्गुण संतों ने उसे ज्यों का त्यों नहीं स्वीकार किया है। अद्वैत वेदांत का वह ब्रह्म निर्गुण होने के कारण निर्मम और निष्ठुर है। संतों का निर्गुण ब्रह्म उनसे परे चींटी और कुंजर की खबर रखता है। वह प्रेम की पीड़ा देता है और उसे हरता भी है। वह कण-कण में व्याप्त है। इसलिए सबका दुलारा है।
निर्गुण संतों ने उसे परम पुरुष, अलख, अनामी, राम, गोविंद, बितुला, अल्लाह, करीम, केशव, खुदा, रहीम आदि नाम दिया है, जिसकी प्राप्ति केवल प्रेम द्वारा ही संभव है। रविदास ज्ञानमार्गी शाखा के निर्गुण कवि हैं। ये कबीर के समकालीन थे। निर्गुण शाखा के होते हुए भी रविदास ने अपने वचनों में सगुण भक्ति के पौराणिक प्रसंगों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है-विशेष रूप से भगवान के कल्याणकारी कार्यों का उल्लेख किया है। प्रहलाद चरित’ पर तो उन्होंने स्वयं कविता भी लिखी है। इसी तरह ईश्वर से प्रार्थना करते हुए वे ईश्वर के उन कार्यों का स्मरण करते हैं, जो ईश्वर के सगुण रूप को स्थापित करते हैं। उस सगुण ब्रह्म को उन्होंने इंद्रियातीत, सृष्टि का नियंता एवं स्वामी माना है उस प्रियतम के दर्शन घट के भीतर ही किए जा सकते हैं
बाहर खोजन का फिरह, घट भीतर ही खोज। 'रविदास' उनमनि साधिकर, देखहु पिक कू ओजी ।।
रविदास ने स्पष्ट कहा कि ईश्वर हमारे अंदर उसे तीर्थ, मंदिर-मस्जिद, काबा, कैलास में टूटने की आवश्यकता नहीं। उस परम प्यारे को आंतरिक अभ्यास और सुमिरन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। रविदास की दृष्टि में सारी बहिर्मुखी साधनाएँ, कर्मकांड, धार्मिक वेश-भूषा सब छलावा और निरर्थक है। उन्होंने कबीर की तरह पंडितों को फटकार लगाते हुए कहा
पांडे हरि विचि अंतर डादा। मुंड मुड़ावै सेवा पूजा, भ्रम का बंधण गादा। माला तिलक मनोहर बामो, लगो जम की पासी। जे हरि सेती जोड्या चाहो. तो जग सौ रहो उदासी।।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि माया-मोह प्राणी को बाँधता है। अतः यदि परमात्मा से सच्चा हित जोड़ना है तो सांसारिक विषय वासनाओं से ध्यान हटाकर रूहानी मंडलों में ध्यान को लगाना होगा। उन्होंने साधक के आंतरिक केंदों को क्रमशः पार करने की विधि बताते हुए परमात्मा से साक्षात्कार कर भवसागर से पार होने की बात कही है
ऐसा ध्यान धरौ बनवारी मन पवन दृद सुषमन नारी। से जप जपूँ जो बहुरि न जपना । सो तप त' जो बहुरि म तपना। सुन्न में बास. ताते मैं रहूँ। कह रैदास निरंजन ध्याऊँ, जिस पर जाय बहुरि नहि आऊँ।।
रविदास ने जीव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना। उन्होंने उसे माटी का पुतला माना है। इस जीव की सार्थकता इसी में है कि वह राम-नाम की शरण में जाकर उसका आश्रय ले। उन्होंने संसार के शाश्वत सत्य को बहुत सरलता एवं सहजता से स्पष्ट किया है
ऊँचे मंदिर थाल रसोई. एक धरी पुनि रहति न होई। यह तन ऐसा जैसे घास की टाटी, जल गई घास, रलि गई माटी।
जगत की इस अवस्था को देखकर रविदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भाई-बंधु, पति-पत्नी जीते जी जो इस शरीर से प्यार करते हैं वो ही सबसे पहले उसे घर से निकालने को उग्र होते हैं। अतः इस संसार सागर से केवल राम नाम ही छुटकारा दिला सकता है और कोई नहीं। उन्होंने अपनी साधना में सिद्धों-नाथों तथा कबीर आदि निर्गुण संतों द्वारा अपनाई गई पारिभाषित शब्दावली का उपयोग अपने काव्य में किया है। उनके यहाँ सुरति-निरति, सहज, सुन्न, गगन मंडल, गंगा-जमुना, सुषमना, सुरसरि धार, जोति उल्टा कुआँ, अनाहत नाद आदि निर्गुणवादी शब्द बार-बार आए हैं, जो उनकी साधना पद्धति के विशेष अंग रहे हैं।
उन्होंने इन शब्दों का प्रयोग कर आंतरिक अनुभवों से उन्हें नया अर्थ भी दिया है। उन्होंने अपनी वाणियों में बार-बार मन को स्थिर करते हुए उसे माया से दूर रहने की सलाह दी है। रविदास ने सदैव ईश्वर की कृतज्ञता को अनुभव किया । भगवत कृपा से ही वे हीनता की ग्रंथि से उबर सके हैं। उन्होंने अपने को निम्न बताते हुए प्रभु के उपकार का बहुत ही विनयपूर्ण एवं प्रेमभाव से वर्णन किया है
तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगी तुमारे बासा। नीच रूख ते ऊँच भए है गंध सुगंध निवासा।। माधव सतसंगति सरनि तुम्हारी। हम अनुगन तुम्ह उपकारी।
इस तरह उन्होंने अपने आपको भगवान के सामने पूरी तरह समर्पित कर दिया तथा कथित नीची जाति में जन्म लेकर भी अपने उच्चतम संस्कारों के कारण अपने युग के महामानव बन गए। रविदास कबीर की भाँति उग्र रूप में सगुण का खंडन नहीं करते। वे अपने मत को प्रतिष्ठित करते हैं लेकिन मूर्ति पूजा अवतारवाद और अन्य पौराणिक गतिविधियों की कठोर निंदा करते हैं। निर्गुण भक्ति धारा के कवि सगुण मत की इन मान्यताओं का विरोध करते हैं। सगुण भक्त मानते हैं कि वेद प्रमाण है और ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं अर्थात् समाज में सभी मनुष्य समान नहीं है। इस तरह वर्णाश्रम श्रेष्ठ है। रविदास ने भी इन मान्यताओं का खंडन किया । वे कहते हैं कि वेद प्रमाण नहीं है, वरन् अनुभव प्रमाण है, जिसे कबीर ने ‘आँखिन देखी’ कहा है।
इसी तरह वे मानते हैं कि कोई मनुष्य श्रेष्ठ या अधम नहीं है। वे मानते हैं कि ऊँच-नीच की भावना का समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. सभी मनुष्य ईश्वर की संतान है. इसलिए सभी मनुष्य समान हैं। अर्थात् वर्णाश्रम कर्म सही नहीं है। इसके स्थान पर रविदास ‘बेगमपुरा की धारणा सामने रखते हैं, जहाँ मनुष्य को दैहिक, भौतिक और दैविक किसी प्रकार का ताप सहन करना नहीं पड़ता। डॉ. धर्मपाल मैनी लिखते हैं कि रैदास ने बारंबार अपनी जाति की घोषणा करके अपने युग के धर्म के ठेकेदारों को यह समझा दिया था कि मात्र जन्म से कोई भी व्यक्ति उच्च या नीच नहीं हो सकता। उनका यह स्वर सत्य की अनुभूति पर आधारित होने के कारण ब्राह्मणों के अंतर्मन में घर कर गया था। इसलिए उन्हें रैदास की वाणी को विवश होकर सुनना पड़ा।
जन्म जात मत पूछिए, का जात अरु पात रविदास पूत सभ प्रभ के, कोई नहीं जान कुजाव।। जात-पात के फेर मंहि. उरझि रहद सभ लो। मानुषता कू खात हइ 'रविदास जात कर रोग...
इस तथ्य को रविदास ने कहा है कि सब लोग उसी एक ही परमात्मा की ज्योति से उपजे हैं, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद, मुल्ला हो या शेख । मनुष्य को उनका कार्य ही ऊँचा या नीया बनाता जिनसी निर्गुण कालीन समय में हिंदू मुस्लिम का झगड़ा भी जोरों पर था उस झगड़े को खत्म करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा
मंदिर मस्जिद दोउ एक है. इन मँह अंतर नांहि। रैदास राम रहमान का, झगड़उ कोई नांहि।।
इसलिए उस राम-रहमान को रविदास दिल की अनंत गहराइयों में खोजने का उपदेश देते हुए कहते हैं
तुरुक मसीति अल्लाह ढूँढइ, देहरे हिंदू राम मुसांई। रविदास दूंदिया राम-रहीम कं, जंह मसीत देहरा नाही।।
कबीर की तरह रविदास को समाज में जहाँ कहीं भी आडंबर व पाखंड दिखे उन्होंने जमकर प्रहार किया तथा तीर्थाटन, मूर्तिपूजा, व्रत-उपवास, वेश धारणा करना आदि सबकी निंदा की। लेकिन उनका स्वर अत्यधिक आक्रामक ज होकर प्रबोधात्मक होता था ।बाह्याडंबरों और मानवीय दुर्गुणों को वे विनय और सहज भाव से प्रकट करते या रविदास ने चाहचायार के साथ सामाजिक बुराइयों माँस-मंदिरा के सेवन को भी बुरा बताया तथा आचरण की पवित्रता पर बल दिया एवं प्रेम-नहारस पीने की सलाह दी और शूरवीर, छत्रपति, राजा से भी बड़ा भगवान के भगत को बताया
पंडित सूर छत्रपति राजा, भगत बराबरि अउरू न कोई जैसे पुरैन पात रहे जल समीप भनि रविदास जन में जगि ओई॥
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