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'सत्यशोधक समाज' के गठन की पृष्ठभूमि बताते हुए उसके सिद्धांतों का मूल्यांकन करें।

 भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के कारण सामाजिक संरचना एवं उत्पादन प्रणाली र दीर्घकाल तक अपरिवर्तनशील और बनी रही। कार्ल मार्क्स इसे एशिया की उत्पादन प्रणाली कहते हैं। इस प्रणाली में जाति के आधार पर जजमानी प्रथा की प्रमुख भूमिका थी। बदलाव न होने के कारण इस काल के रेखीय विकास और इतिहास बोध का रूप धीमा रहा। ज्योतिबा फुले ने इन अभावों के मध्य कार्य करने का संकल्प लिया। उनका उद्देश्य शूद्रों और अतिशद्रों में चेतना जगाना था।इसके लिए उन्होंने शिक्षा पर बल दिया। इस चेतना का प्रमुख प्रयोजन उनकी वर्तमान अवस्था – दासता और पतन का परिवर्तन करना था ।

ऐतिहासिक दृष्टि ने उनकी समाज संबंधी सोच को विकसित किया और इस समाज को परिवर्तित करने के संकल्प से सत्यशोधक आंदोलन का उदय हुआ। ज्योतिबा फुले सिर्फ प्राचीन काल के ब्राह्मण और उनकी जाति प्रथा तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने अन्य शक्तियों पर भी अपने सम्यक विचार प्रस्तुत किए। इनमें बौद्ध और इस्लाम धर्मों का भारत में प्रभाव दिखाई दिया। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्ड की अपेक्षा बौद्ध धर्म की करुणा, प्रेम और सादगी की प्रशंसा की। इन समस्त गुणों की वजह से यह धर्म सामान्य जनमानस के मध्य अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। ज्योतिबा फुले कहते हैं कि बाद में आर्य ब्राह्मणों की अगुवाई करने वाले शंकराचार्य ने बौद्धधर्मी सज्जन और सदाचारी लोगों का तरह-तरह से दुष्प्रचार करके उन्हें देश में प्रभावहीन करने की कोशिश की।

सामाजिक भेद के मर्म को सहन करने वाले ज्योतिबा फुले को सत्य या ईश्वर के स्तर पर भी कोई भेद स्वीकार नहीं था। वे कथनी नहीं, करनी पर बल देते थे और व्यवहार को महत्त्वपूर्ण मानते थे । वेदांत के खिलाफ ज्योतिबा फले एक ऐसे धर्म के आकांक्षी थे, जिसमें समानता का सशक्त आश्वासन हो। सार्वजनिक सत्य धर्म वे सृष्टि के निर्माता ‘निर्मीक’ को मानते हैं। सृष्टिकर्ता को वे निर्मीक अर्थात निर्माणकर्ता नाम से पुकारते हैं। उनका मानना था –

1. निर्मीक नाम का स्मरण करना, अपने कर्मों का पालन करना और दूसरों के हित के लिए सदैव तैयार रहना ही उसके प्रति सच्ची भक्ति है।

2. निर्मीक की सष्टि के संसाधनों का सम्यक उपयोग करते हुए जीवन निर्वाह करना तथा अपने सुख और स्वार्थ के लिए दूसरों का अहित न करना ही पुण्य है।

3. इस सृष्टि का निर्माता निर्मीक है। उसने ही आकाश, तारामंडल, ग्रह, महासागर, दिशाओं और धरती सहित अनेक तत्त्वों को बनाया है।

4. ब्राह्मण धर्मग्रंथों बताए गए नियम और कर्मकांड निराधार हैं। महत्त्वपूर्ण सिर्फ व्यक्ति का व्यवहार है, न कि पूजा-पाठ और व्रत-उपवास।

5. अपना कल्याण करने के लिए छुआछूत पैदा रकना, ऊँच-नीच का भेद करना तथा लोगों पर जुल्म करना पाप है।

फुले ने सत्य आचरण के 33 नियमों का प्रतिपादन किया, जिनमें से प्रमुख हैं

1. निर्माणकर्ता ने सभी जीवों व प्राणियों को उत्पन्न किया है, जिनमें नर व नारी दोनों जन्म से ही स्वतंत्र हैं। ये सभी अधिकारों का उपभोग कर सकते हैं। ऐसा मानने वाला सत्य आचरण करने वाला कहलाएगा।

2. सत्य आचरण करने वाला नर हो या नारी, वह निर्माणकर्ता के अतिरिक्त किसी अन्य की आराधना न करता हो, उसे सत्य आचरण करने वाला कहना चाहिए।

3. निर्माता ने नर-नारियों को समान अधिकार दिए हैं। उसमें कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति पर जोर जबरदस्ती नहीं कर सकता। ऐसा न करने वाला सत्य आचरण करने वाला कहा जाएगा। )

4. नर हो या नारी, कोई व्यवसाय किए बिना ही व्यर्थ ही धार्मिकता का पाखण्ड न करके अज्ञानी लोगों को नवग्रहों का भय दिखाकर उनको नहीं लूटता, वह सत्य आचरण करने वाला होना चाहिए।

इसी प्रकार से आचरण के कुल 33 नियम हैं, जो सत्य धर्म की नैतिकता का आधार हैं। इनके अतिरिक्त सत्य धर्म में जन्म व मरण के समय के विधानों का प्रावधान किया गया है। ज्योतिबा फुले ने जाति की दासता को नारी की दासता के समान माना। उन्होंने नारी दासता की प्रखर विरोधी रमाबाई का उस समय समर्थन किया, जब उन्होंने जाति की दासता वाले हिन्दू धर्म की आलोचना की।

ज्योतिबा फुले ने स्त्री को पुरुष के बराबर जन्म से ही प्रतिष्ठा और आजादी की दृष्टि से समान माना। उनकी सोच के अनुसार निर्मीक ने सृष्टि निर्माण किया, तो स्त्री-पुरुष को भी बनाया, लेकिन उनमें अंतर नहीं किया। यह अंतर ब्राह्मणों ने अपने ग्रंथों में लिखकर फैलाया है। ज्योतिबा फुले ने सार्वजनिक सत्य धर्म में इन ग्रंथों के खिलाफ साफ कहा है कि नारी-पुरुष दोनों समान रूप से मानवाधिकारों का उपभोग करने के अधिकारी हैं, तथापि स्त्री के लिए एक अलग प्रकार का सिद्धांत और अहंकारी व्यक्तियों के लिए दूसरे प्रकार का सिद्धांत,व्यवहार में लाना भेदभाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

उनके अनुसार ये अधिकार शिक्षा से ही प्राप्त हो सकते हैं। शिक्षा से चेतना विकसित होती है और एक सचेत व्यक्ति अपने अधिकार किसी से भीख में नहीं मांगता, अपितु उन्हें प्राप्त करता है। ज्योतिबा फुले ने नारियों की शिक्षा पर बल दिया। महात्मा ज्योतिबा फुले ने नारी के लिए सुधार नहीं आजादी की वकालत की और यही बात उनको 19वीं शताब्दी के समस्त समीक्षकों से अलग करती है। नारी की आजादी कोई नारा नहीं, अपितु ज्योतिबा फुले के चिंतन का एक मूल्य है। उन्होंने ब्राह्मण कर्मकाण्डों से स्वतंत्रता के लिए सत्यशोधक विवाहों की शुरुआत की।

ज्योतिबा फुले ने सामाजिक क्रांति में शिक्षा को अपना प्रमुख साधन माना। सत्यशोधक समाज ने शूदों अतिशूद्रों की शिक्षा के लिए संघर्ष किया। ज्योतिबा फुले ने लोगों में शिक्षा की चेतना जगाने के लिए स्वयं पढ़ाया, स्कूल खोले, अखबार निकाले और पुस्तकें लिखीं। यही वह समस्या थी, जिसको ब्राह्मणों ने ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक आंदोलन के समक्ष खड़ा कर दिया था, तब उन्होंने सरकार से शूद्रोंअतिशूद्रों को शिक्षा दिलवाने के लिए इन दो आधारों पर बहस की

1) कानून के राज में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार सभी जातियों के लोगों को है।

2) कृषक – श्रमिकों के श्रम से उत्पन्न प्रशासनिक संपत्ति से मात्र ब्राह्मणों को शिक्षा क्यों? सभी जातियों के लोगों को शिक्षा क्यों नहीं? सत्यशोधक आंदोलन ने शिक्षा ही नहीं, खेती और विशेष रूप से किसानों की दशा पर भी अत्यधिक प्रभाव डाला।

1875 में पूना के किसान साहकारों के अत्याचारों से त्रस्त थे। जब किसान ऋण की अदायगी करने में असमर्थ होते, तो साहूकार उनका खेत हड़प जाता था। ऐसे हालात में सत्यशोधक समाज ने ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में इस क्षेत्र में संघर्ष किया। किसानों ने साहूकारों और ब्राह्मणों का बहिष्कार कर दिया। परिणामस्वरूप सरकार ने किसानों को राहत देते हुए 1878 में ‘डक्कन एग्रीकल्चर रिलीफ एक्ट’ पारित किया। इस दौरान ज्योतिबा फुले ने कृषक जीवन का सूक्षमतापूर्वक मूल्यांकन किया। 1878 में उन्होंने ‘किसानों का कोड़ा’ नामक पुस्तक लिखी |

ज्योतिबा फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों की दासता से आजाद कराने के लिए जिस सत्यशोधक धर्म को विकसित किया था, उसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी संस्कारों के लिए नियम बनाए गए। इसकी प्रेरणा पाकर शूद्रों ने सत्यशोधक विवाहों का आयोजन किया। इसमें ब्राह्मणों के बिना साधारण तरीके से ज्योतिबा फुले के विचारों के अनुसार विवाह संपन्न हो जाते थे। इससे घबराकर ब्राह्मणों ने प्रसिद्ध समाज-सुधारक न्यायमूर्ति रानाडे की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। न्यायमूर्ति रानाडे ने फैसला ब्राह्मणों के पक्ष में किया, किन्तु न्याय नहीं किया। इस निर्णय के पश्चात ज्योतिबा फुले ने जो आंदोलन चलाया, उसने महाराष्ट्र में शूद्रों-अतिशूद्रों की सोच को बदलकर रख दिया। इस नई सोच के कारण समाज के प्रत्येक भाग में बदलाव की लहर दौड़ गई।

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