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प्रारम्भिक वैदिक ग्रंथों में प्रमाणित समाज की प्रकृति की विवेचना कीजिए।

 वर्ण का विकास वर्ण का शाब्दिक अर्थ होता है रंग। किंतु वैदिक संदर्भ में तथा बाद में भी इसका प्रयोग सामाजिक श्रेणियों के नामकरण के लिए हुआ है। इस प्रकार के नामकरणों को निम्न दो परिप्रेक्ष्यों में देखा जा सकता है -

(i) पहला परिप्रेक्ष्य जिसमें कुछ लोग यहाँ पर पुरोहित, स्वयं को तथा अन्य लोगों को भी प्रस्थिति पद देने का अधिकार जता सकते हैं।

(ii) दूसरे परिप्रेक्ष्य में ये पद उनके द्वारा स्वीकृत/अस्वीकृत/ संशोधित किए जा सकते हैं, जिनके द्वारा ये दिए गए हैं।

ऋग्वेद में संदर्भ इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में ‘आर्य’ और ‘दास’ के दो वर्णों के मध्य भेद करने के लिए किया गया है। प्रारंभ में 19वीं शताब्दी में और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, यह कहा गया था कि इन दो वर्णों के मध्य जो भी अंतर था वह अन्तर नस्लीय था। किंतु यह पुष्टि होता प्रतीत नहीं वर्गीकृत नहीं किया गया था। वस्तुतः आर्यों और दासों के मध्य नस्ल का नहीं वरन् भाषा, सांस्कृतिक व्यवहारों और धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का अंतर था।  आर्य व दास ‘आर्य’ और ‘दास’ का उल्लेख ऋग्वेद के विशिष्ट खंडों में हुआ है। इस ग्रंथ में सामाजिक समूहों की पहचान के लिए बारंबार दो शब्दों का प्रयोग मिलता है। (i) एक दोनों शब्द है ‘जन’, दूसरा शब्द है ‘विश’।

उपर्युक्त दोनों ही शब्दों का सम्बन्ध लोगों के समूहों से है, जो साझा आर्थिक, राजनीतिक और कर्मकांडीय हितों वाले समुदाय के घटक होते हैं। आदि पुरुष ऋग्वेद में चतुर्वर्ग का एक दृष्टव्य और बारबार वर्णित उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त नामक स्रोत में इसमें एक आदि पुरुष की बलि का वर्णन किया गया है। इस बलि से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन निम्न प्रकार किया गया है कि

(i) ब्राह्मण की उत्पत्ति इस पुरुष के मुख से हुई।

(ii) क्षत्रिय की उत्पत्ति उसकी भुजाओं से हुई।

(iii) वैश्य की उत्पत्ति उसकी जंघाओं से हुई।

(iv) शूद्र की उत्पत्ति उसके पाँवों से हुई।

दो विचार इस अवधारणा में दो विचार अंतर्निहित हैं

(i) पहला यह कि चतुर्वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति दैवीय है। अत: उस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है।

(ii) दसरा यह कि वर्गों में एक स्पष्ट श्रेणीबद्धता है, जिसमें ब्राह्मण का स्थान सबसे ऊपर है और अन्य जातियाँ उससे नीचे हैं।

कर्मकाण्ड कर्मकांडों से प्रारंभ करने पर, हमें दो या तीन भिन्न मुद्दों पर विचार होता दिखाई देता है

(i) प्रथम कर्मकांड विशेषज्ञों का मुद्दा कि ब्राह्मण किन्हें माना जाए?

(ii) दूसरी समस्या कर्मकांड में भागीदार पर केंद्रित थी अर्थात् लोगों को किस आधार पर इनमें सम्मिलित किया जाए?

(iii) तीसरा मुद्दा कर्मकांडों को दिए जाने वाले महत्त्व का था?

(1. ब्राह्मण जब धर्म सूत्रों की रचना हुई, उस समय तक ब्राह्मण कर्मकांड के क्षेत्र पर अपना अनन्य नियंत्रण स्थापित कर चुके थे। उन्होंने जीविका के छ: तरीके बताए 2ीसमें वेदी कोहना और सीखना दान यज्ञ कराना शामिल थे | क्षत्रिय क्षत्रिय के लिए भी ‘जीविका के साधन’ निर्धारित किए गए हैं। इनमें से तीन अर्थात् वेदों का अध्ययन, यज्ञ सम्पन्न करवाना, दान देना, ब्राह्मण और वैश्य के लिए समान ही हैं।

अन्य का सम्बन्ध निम्न से है -

(i) कर एकत्र करना

(ii) न्याय करना

(iii) लोगों की रक्षा करना

आर्थिक स्थिति पुरातावित्त्वक अभिलेख की जाँच करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र में एक लम्बे समय तक कृषि और पशुचारण का काम चलता रहा। उस काल में व्यापार का भी विकास रहा था। यह संकेत इस विशिष्ट भांड निर्माण के प्रसार के साक्ष्य से और सिक्कों के साक्ष्य से भी मिलता है। विकल्प उस समय विकल्प भी थे और कुछ परिस्थितियों में शूद्र धनी भी होते थे। नंद जैसे शासक वंशों को शूद्र मूल का माना जाता था। इसलिदा वर्ण-व्यवस्था इस समय में नियत अथवा तयशुदा नहीं थी।

सगोत्रीय सम्बन्ध और पितृसत्तात्मक ढाँचों का सुदृढ़ीकरण :

सगोत्रीय सम्बन्ध प्रारंभिक वैदिक संदर्भ में हमें सगोत्रीय सम्बन्धों पर अनेक प्रमाण मिलते हैं। देवताओं की कल्पना सगोत्रीय सम्बन्धों के संदर्भ में ही की गई है: पिता, भाई यहाँ तक कि पत्र के रूप में भी। जो सम्बन्ध सर्वाधिक मिलता है, वह उसे सहारा देता है। उसी प्रकार पुत्र से भी अपेक्षा है कि वह पिता की वृद्धावस्था में उसका सहारा बनेगा। पितृ-पुत्र के सम्बन्ध की संकल्पना इस युग्म के परे भी की गई थी। इसका विकास ‘पितृ’ अथवा पितृवंशीय पूर्वज की अवधारणा के माध्यम से किया गया। ऋग्वेद में ‘पितृ’ का महत्त्व अपेक्षाकृत कम है। पितृवंशीय सम्बन्धों पर बल कालांतर में और अधिक बढ़ता दिखाई देता है।

अन्य सगोत्री अन्य सगोत्रियों अथवा कुटुंत्रियों के साथ सम्बन्धों को अधिक जटिल माना गया है। ये इस प्रकार थे

(i) विवाह के माध्यम से बने सगोत्रीय कुटुंबी। 

(ii) वे सगोत्रीय जिन्हें संभावी प्रतिद्वंद्वी समझा जाता है।

(iii) पहली श्रेणी में ससुर और मामा आते हैं। मामा पूर्वी वैदिक लेखों में कभी-कभी मिलते हैं।

(iv) दूसरी श्रेणी में ‘भ्रातृव्य’ और ‘सपत्न’ आते थे।

(a)भ्रातृत्व का अर्थ होता है भाई समान पुरुष और

(b)सपत्न का अर्थ होता है बैरी अथवा प्रतिद्वंद्वी। अन्य सगोत्रों को ‘समान’, ‘स्व’ अथवा ‘सजात’ का नाम दिया गया था।

(i) समान का शाब्दिक अर्थ होता है बराबर’

(ii) ‘स्व’ का अर्थ होता है स्वयं अपना

(1) ‘सजात’ का अर्थ होता है साथ उत्पन्न।

कर्मकांड और उनका महत्त्व : इस संदर्भ में ग्रंथों की दो व्यापक श्रेणियाँ विचाराधीन हैं

(a) वे ग्रंथ जिनमें मंत्र है, और

(b) वे ग्रंथ जिनकी प्रकृति व्याख्या करने की अथवा उचित ठहराने की है।

मंत्र मंत्रों की प्रकृति प्रार्थनारूपी है। मंत्रों को सीखने और उच्चारित करने की योग्यता कुछ चयनित व्यक्तियों तक, जैसे पुरोहित, यजमानों और कुछ स्थितियों में यज्ञ के संरक्षक तक सीमित थी। मंत्र हमें उन लोगों की आशाओं, भय और आकांक्षाओं के विषय में भी बताते हैं, जो उनका प्रयोग करते थे। कर्मकांड महत्त्व कर्मकांड के संदर्भ में देवों की संकल्पना सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिम्बित करती थी। अधिकांश कर्मकांडों को सार्वजनिक अनुष्ठान के अवसर के तौर पर समझा जा सकता है। ये अनेक प्रकार से महत्वपूर्ण थे।

(i) प्रथम, परिभाषा के अंतर्गत किसी भी कर्मकांडी अवसर में पवित्रता का आभामंडल जुड़ा रहता है, क्योंकि यह वह स्थिति होती है, जिसमें देवता और पुरुष और कभी-कभी स्त्रियाँ भी एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

(ii) द्वितीय, कर्मकांड जहाँ अनेक कार्य करते हैं।

(iii) तृतीय, कर्मकांडों का उपयोग सामाजिक सम्बन्धों को वैधता प्रदान करने के लिए भी होता है। कर्मकांड की सफलता के लिए यजमान के अतिरिक्त अन्य लोगों की सहभागिता आवश्यक हो गई थी।

(iv) इन अन्य लोगों में से कुछ तो शायद मात्र दर्शक ही होते थे।

(v) दूसरे वे स्त्री पुरुष थे, जो यजमान के समर्थकों के तौर पर उससे सम्बन्धित होते थे, जिनमें उसके कुटुंबीजन भी सम्मिलित होते थे।

वैदिक परिस्थितियों में घरेलू कर्मकांडों की एक सम्पूर्ण श्रृंखला को ब्राह्मणी परम्परा के दायरे में ले जाया गया था। यह कार्य गृह्य सूत्र जैसेग्रंथों की रचना और संकलन के माध्यम से किया गया था।

(1) अनेक श्रौत कर्मकांडों को सरल किया गया।

(2) जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे अनेक संस्कारों को ब्राह्मणी रूप दिया गया। इसके लिए निम्न प्रकार की एक तीन-स्तरीय रणनीति बनाई गयी

(i) वैदिक मंत्रों के प्रयोग की अनुशंसा करना।

(ii) यह सुझाव देना कि ऐसे अवसरों पर एक पुरोहित की उपस्थिति आवश्यक है।

(iii) एक होमाग्नि स्थापित करने पर बल देना।

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