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सुमन की चारित्रिक विशिष्टताएँ बताइए।

सुमन को कीचड़ में स्थित रहने वाले उस कमल पुष्प से उपमित करना जो उससे अछूता रहता है. पर्याप्त अंशों में उपयुक्त है। यह सत्य है कि वह एक बार अर्थात् अपने विवाहोपरान्त कुछ अंशों में कीचड़ में फँस जाती है भोली के ठाठ-बाद को देखकर उससे ईर्ष्या करती हुई सुमन परिस्थितियवश वेश्यावृत्ति की कीचड़ में सन जाती है, किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मौना बाजार की सर्वाधिक सुन्दरी तथा आकर्षण का केन्द्र होते हुए भी अपना शरीर नहीं बेचती यह दूसरी बात है कि ऐसी परिस्थितियों में कोई युवती अपने सतीत्व की रक्षा कर सकती भी है अथवा नहीं, किन्तु उपन्यासकार ने तो उसे बहुत कुछ अंशों में एक दूध-घुली सी पथभ्रष्ट युवती चित्रित किया है और हमारा सम्बन्ध सुमन के उस रूप से ही है जिसकी उपन्यास में अभिव्यक्ति हुई।

जहाँ तक सुमन के उपन्यास में अभिव्यक्त हुए स्वरूप का सम्बन्ध 1 है, अपने जीवन के आरंभ में कुछ भूल करने वाली सुमन अन्तत देवील की ओर उठती जाती है। यदि उसका आरम्भिक जीवन किसी सामान्य चंचल युवती जैसा है, तो उसके जीवन का अंतिम भाग निश्चय ही देवीत्व के गुणों से ओत-प्रोत है। वह दाल मंडी में रहते हुए भी अपना शरीर नहीं बेचती, विधवाश्रम में रहते हुए तपस्विनियों जैसा जीवन व्यतीत करती है तथा अपने अनथक सेवा भाव से सभी का दिल जीत लेती है, अपने पूर्व प्रेमी सदन और शांता के साथ रहते हुए वह रंच मात्र भी ऐसा आचरण नहीं करती कि उसकी और उंगली उठाई जा सके. जबकि उपन्यास के अन्त में तो वह वेश्यापुत्रियों की शिक्षा-दीक्षा में अनुरक्त परहित-रता महामानवी है ।

अतः उसे कीचड़ में रहते हुए भी कीचड़ से अछूती मानना सर्वथा उपयुक्त है। उसके चारित्रिक गुणावगुणों पर निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रकाश डाला जा सकता है -

(1) लाड़ प्यार में पली अभिमानिनी पुत्री- सुमन दारोगा कृष्णचन्द्र की दो पुत्रियों में से बड़ी पुत्री है तथा उसके कोई पुत्र न होने के कारण माता-पिता का लाड़ प्यार अपनी इस बड़ी पुत्री पर ही केन्द्रित है। इस लाड़-दुलार ने उसे बिगाड़ दिया है। उपन्यासकार ने उसका परिचय देते हुए लिखा है कि दोनों पुत्रियों में से “बड़ी पुत्री सुमन बचपन से ही चंचल अभिमानिनी शृंगारप्रिय तथा दूसरों से बढ़कर रहने की प्रवृत्ति की है।”

अपनी अभिमानिनी तथा दूसरों से बढ़कर रहने की प्रवृत्ति के कारण ही उसे यह भी सहन नहीं होता कि उसकी छोटी बहन के लिए भी वैसी ही साड़ी क्यों लाई गई है, जैसी कि उसके लिए आई है और वह इसी बात को लेकर मुँह फुला देती है। अफसर पिता की लाड़ली पुत्री होने के कारण वह गृहकायाँ की ओर अपना ध्यान ही नहीं देती उसके माता-पिता भी उस पर तदर्थ जोर नहीं डालते कदाचित् सुमन ने सोव रखा था कि उसका विवाह किसी ऐसे घर में होगा जहाँ नौकरचाकर और महरी दासियाँ होंगी अतः मुझे गृहकार्यों को सीखकर क्या करना है?  कहना न होगा कि इस धारणा के कारणा उसका गृहस्थ जीवन बड़ा दुखद सिद्ध होता है।

(2) आलसी तथा गृहकार्यों में अकुशल - “एक तो करेला कड़वा दूजे नीम चढ़ा की उक्ति सुमन के पत्नी रूप पर चरितार्थ होती है। उसकी आशा-आकांक्षाओं के सर्वथा विपरीत उसका विवाह 14) मासिक पाने वाले गजाधर के साथ होता है। कुछ समय तक तो गजा पर की फूआ द्वारा गृहकार्यों को करते। रहने के कारण गजाधर और सुमन की गृहस्थी की गाड़ी चलती रहती है, किन्तु फूआ की हैजे से मृत्यु हो जाने पर उसमे ब्रेक लग जाते हैं।

चौका-बर्तन से जी चुराने वाली सुमन के कारण (शोक के कारण नहीं) घर में दो-तीन दिन तक चूल्हा नहीं जलता अतः गजाधर को बाजार से पूड़ियाँ लाकर दिन काटने पड़ते हैं किन्तु 14 वेतन पाने वाला गजाधर बाजार से पूड़ियाँ हैं। खा-खाकर कितने दिन खर्च चला सकता था, अतः वह बेचारा तीसरे दिन घड़ी रात रहते ही उठकर बरतन मांज डालता है, चौका लगा देता है तथा नल से पानी नी भर लेता है। जब सुमन स्व-पति को इस प्रकार गृहकार्यों में संलग्न देखती है, तो मन मारकर उसे ही चौका-चूल्हा संभालना पड़ता है। गजाधर उसकी स्व-मित्रों से यह कहकर प्रशंसा करता तो है बनाती है कि दाल-रोटी में पकवान “इतने बड़े घर की लड़की, घर का छोटे से छोटा काम भी अपने हाथ से करती है।

भोजन तो ऐसा का स्वाद आ जाता है। किन्तु यह प्रशंसा मिथ्या-प्रशंसा ही है क्योंकि सुमन गृहकार्यों को लगन से नहीं करती। वह चटोरी भी है। यही कारण है कि जब गजाधर उसे अपना वेतन सौंप देता है, तो महीने के बीस दिन भी नहीं बीत पाते कि रुपये समाप्त हो जाते हैं। शेष दस दिन का खर्च कैसे चले इस बात को लेकर पति-पत्नी में प्रथम बार तो चख चख हो ही जाती है। गजाधर की उसके विषय में यह धारणा उचित है कि वह उसकी रसपूर्ण बातों की अपेक्षा मिठाई के दोनों से अधिक प्रेम करती है। 

(3) प्रदर्शन प्रिय - सुमन के चरित्र में अपनी स्थित को अपनी वास्तविक स्थिति से बढ़-चढ़कर दिखाने की दुर्बलता है। सौभाग्य से उसे ईश्वर-प्रदत्त सुन्दरता उपलब्ध है, जिसके ऊपर गर्व करते हुए तथा प्रदर्शन-प्रियता का आश्रय लेकर वह मुहल्ले की स्त्रियों से सीधे मुँह बात नहीं करती। उपन्यासकार के शब्दों में “अपने सौंदर्य और गवली प्रकृति के कारण मुहल्ले की स्त्रियों की रानी बनी सुमन उसके समक्ष स्वयं को बढ़-चढ़कर दिखाती।

वह उनके सामने रेशमी साड़ी पहनकर बैठती जो वह मैके से लायी थी। रेशमी जाकट झूटी पर लटका देती।” कुछ दिनो तक तो वह अपनी रेशमी साड़ी और रेशमी जाकट का गुहल्ले की स्त्रियों पर प्रभाव डालती है स्वयं को उनसे ऊँची सिद्ध करने के लिए अपने भाग्य की सराहना करती है जबकि मुहल्ले की स्त्रियों अपने भाग्य का रोना रोती है, किन्तु विवाह के समय के कपड़े कितने दिनों तक उसकी प्रदर्शन-प्रियता का आधार बन सकते थे?

अतः धीरे-धीरे उसके मन में यह असंतोष जड़ें पकड़ने लगता है कि अन्य स्त्रियों के लिए तो नये-नये वस्त्र-आभूषण आते रहते हैं, जबकि मेरे लिए नये वस्त्र आभूषण आने का तो कहना ही क्या, पति के कम वेतन के कारण गुजारा तक कठिनता से होता है। वह पति को जलीकटी सुनाने लगती है, क्योंकि पड़ोसिन स्त्रियों की बातों में आकर वह उसी पति को आदर और प्रेम के योग्य समझने लगती है जो पत्नी का वस्त्र आभूषणों और स्वादिष्ट पदार्थों से तप्त करता हो।

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