(1) राजनीतिक पृष्ठभूमि
अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे। यहाँ की राजनीतिक परिस्थिति को उन्होंने ध्यान से परखा उन्होंने देखा कि यहाँ के छोटे-छोटे राजाओं में आपसी शत्रुता कूट-कूट कर भरी हई है। अपनी कूटनीति के बल पर शासकों से मित्रता और शत्रुता बढ़ा कर उन्होंने राजनीतिक शक्ति प्राप्त करनी शुरू कर दी औरंगजेब के बाद तो मुगल सामाज्य ताश के पत्तों की तरह गिरता गया। 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों की शक्ति में बढ़ोत्तरी हई दक्षिण के मराठों की शक्ति को भी अंग्रेजों ने कम करना शुरू किया |
1764 ई. में बक्सर की लड़ाई में मुगलों के अंतिम समाट शाह आलम को भी अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया । अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में पूर्वी हिंदी प्रदेशों पर भी अंग्रेजों का प्रभुत्व कायम होने लगा। इसके पहले के पचास वर्षों में अंग्रेजों ने मराठों, जाटों और सिखों को परास्त किया | असल में 1764 ई. की बक्सर की लड़ाई में सारा हिंदी प्रदेश अंग्रेजों के अधीन हो गया। 1826 ई. में भरतपुर पर कब्जा करके अंग्रेजों ने अपनी शक्ति बढ़ाई | 1849 ई. के द्वितीय सिख युद्ध के बाद संपूर्ण भारत पर अपनी शक्ति कायम करने के लिए अंग्रेजों के सामने कोई बाधा नहीं रही।
अपनी धूर्तनीति के बल पर उन्होंने 1885 ई. में अवध को भी अपने सामाज्य में मिला लिया। इस प्रकार व्यापार करने के उद्देश्य से आई हुई ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत पर पूर्ण राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो गया| यदि अंग्रेज भारतीय वस्तुओं का व्यापार करफे मुनाफा ही कमाते तो भारत की आर्थिक स्थिति पर इसका अधिक प्रतिकूल असर नहीं पड़ता कितु इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यह स्थिति बदल गई। इस देश से कच्चे माल का आयात किया जाता और फिर उससे तैयार माल को यहीं के बाजार में अधिक कीमत पर बेचा जाता। इस बदली हुई परिस्थिति के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को गहरा धकका लगा। देशी कारीगर कंगाल होने लगे। कर व्यवस्था के कारण जनता को घोर कष्ट होने लगा। भारतीय जनता में असंतोष बढ़ने लगा। उधर जिन राजाओं और सामंतों की सत्ता छिन गई थी उनमें भी बदले की भावना बढ़ रही थी। परिणामत: 1857 ई. में जन विद्रोह भड़क उठा।
मुगल बादशाह बहादुरशाह को अपना नेता घोषित कर सामंतों और राजाओं ने फिर से अपने अधिकार पाने का प्रयत्न किया। उधर जनता भी इस विद्रोह में शामिल हो गई। चूंकि एक संगठित योजना के अनुरूप विद्रोह की शुरुआत नहीं हई थी, इस कारण जगह-जगह अंग्रेजों ने इस विद्रोह को शक्ति से कुचल दिया। विद्रोह के बाद शासन यी बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकज़फर महारानी विक्टोरिया यो हाथ में चली गई। महारानी ने घोषणा पत्र जारी किया। किंतु यह एक छलावा था। जनता की मलाई का प्रलोभन देकर शासन-तंत्र को मजबूत करने का कार्य हआ | साहित्य की उन्नति के लिए अंग्रेजों ने कोई कार्य नहीं किया। 1835 ई. में कवि घासीराम ने बहुत दुख के साथ लिखा, छोड़ के फिरंगन को राज, लै सुधर्म काज जहाँ होत पुन्य आज चलो वही देस को।” किंतु महारानी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र से सभी अमित हए । तत्कालीन कवियों ने रचनाओं में महारानी की प्रशंसा के गीत गाए। कुछ कार्यों से भारतीयों को लाभ भी हआ।
कॉलेजों की स्थापना से नई शिक्षा की शुरुआत हई। यातायात के साधनों, रेल, डाक, तार की व्यवस्था से अप्रत्यक्ष रूप से भारतीयों को लाभ हुआ। प्रेस की स्थापना से साहित्यिक रचनाओं के प्रचार-प्रसार में सहायता मिली। किंतु 1885 ई. के पहले तक अंग्रेजों ने जितने भी कदम उठाए उसमें यहाँ के लोगों पर हर प्रकार के प्रतिबंध और शोषण से संबंधित कार्य शामिल थे। भारतीयों को पश्चिम में पनपी समानता की विचारधारा का पता लग गया था | तत्कालीन प्रबुद्ध नेतागण देश के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान के कार्य में लग गए थे। किंतु देश में ऐसे आधार की तलाश जारी थी जिससे हर क्षेत्र के नेता एकजुट होकर विदेशी शासन के खिलाफ आवाज उठाते | अंततः सन् 1885 ई. में भारतीयों की अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना से वह मंच मिल गया और अब संगठित रूप से जन आंदोलन शुरू हुआ | इस प्रकार भारतेंदु के आगमन और उनके जीवन की अल्पावधि के बाद एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ जिसने भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित किया।
2) सामाजिक पृष्ठभूमि :– नई शिक्षा पद्धति के कारण भारतीय समाज में परिवर्तन का दौर शुरु हुआ। विदेशी शासन के कारण जनता का जो शोषण हो रहा था उसके विरुद्ध समाज में क्रांति का स्वरूप उभरने लगा था। भारतेंदु और उनके सहयोगियों का ध्यान सामाजिक कुरीतियों की ओर गया। समाज की दुर्दशा देख कर तत्कालीन नेतागण जिनमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, रानाडे आदि थे, द्रवित हो उठे। वे सामाजिक सुधार के लिए आगे बढ़े। मादक द्रव्यों, मांस आदि पर प्रतिबंध, धर्म के प्रसार तथा ईश्वर प्रेम के प्रचार के उददेश्य से 1873 ई. में ‘तदीय समाज’ की स्थापना हई भारतेंदु ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण अपनी रचना ‘भारत देशा’ में भी किया है।
भारतेंद् पुरुष और स्त्री की समानता और स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। नवजागरण के उद्देश्य से उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन किया। समाज में घिर आई बुराइयों को दूर करने के लिए उन्होंने मंदिरों और मस्जिदों में व्याप्त भष्टाचार का भंडाफोड़ किया। तत्कालीन समाज दो वर्गों में बँट गया था। एक वर्ग प्राचीन मान्यताओं का पक्षपाती था तो दूसरा वर्ग अग्रगामी सोच वाला था। प्रगतिशील सोच वाले नेताओं ने सामाजिक संकीर्णताओं और रुढ़ियों को खत्म करने के लिए अनेक प्रयास किए। पर्दा प्रथा के कारण नारियों का उत्थान रुका हआ था। उन्हें किसी प्रकार का सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं था। इस प्रकार समाज का आधा हिस्सा अविकसित था। स्त्रियों को भोग्य वस्तु समझा जाता और कई-कई स्त्रियों रखना शान-शौकत समझा जाता था।
सन् 1872 ई. में केशवचंद्र सेन के प्रयत्न से सरकार ने बाल-विवाह और बह-विवाह पर प्रतिबंध लगाया। राजा राममोहन राय के कठिन प्रयास से सन् 1829 ई. में सती प्रथा को दंडनीय घोषित किया गया। किंतु इस प्रथा के बंद होने पर एक और समस्या समाज के सामने उठ खड़ी हई, वह थी विधवाओं की समस्या। ईश्वरचंद्र विदयासागर ने इस समस्या का समाधान पेश किया। उनके प्रयास से ही सन् 1856 ई. में विधवा विवाह को वैध घोषित किया गया। धर्म के क्षेत्र में उस समय बहदेववाद का बोलबाला था। हिंदू धर्म के अंतर्गत ही कई संप्रदाय खड़े हो गए थे। शैय, शाकस, वैष्णव विचारधारा वाले अपने-अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ साबित करने में लगे हए थे। कर्मकांड को बढ़ावा देकर पुजारी वर्ग लोगों से लाभ कमा रहा था। ये जनता को देवता के कोप का भय दिखाकर ठगते | इन सब कुरीतियों को रोकने के लिए समाज सुधारकों ने आंदोलन शुरु किया। दूसरी ओर ईसाई पादरी भी अपने मत का प्रचार करने में लगे हुए थे।
हिंदू समाज के सारे रीति-रिवाजों में खामियों निकाल कर ईसाई धर्म का प्रचार करना ही पादरियों का मुख्य कार्य बन गया था कि समाज का बुद्धिजीवी वर्ग जाग उठा था। उसमें सोचने समझने की शक्ति आ चुकी थी। अपने समाज के रीति रिवाजों को वैज्ञानिक ढंग से परखने की शक्ति ने जहाँ अच्छी बातों को बनाए रखा वहीं उन बातों को दूर करने का प्रयास किया जिससे वास्तव में हानि ही हानि हो रही थी। समाज में नई चेतना लाने के लिए पश्चिम में हई ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के समाचार को प्रचारित कियागया। तत्कालीन साहित्यकारों ने कविताओं और विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से जन जागरण में हाथ बँटाया।
3) साहित्यिक पृष्ठभूमि
भारतेंदु युग से पहले सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में रीतिकालीन परंपरा का ही जोर था। अंग्रेजों के आगमन के बाद इस स्थिति में परिवर्तन आया अंग्रेजों ने अपनी जरूरत के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की इससे गद्य का विकास हुआ | आधुनिक युग की बदली हुई परिस्थिति में साहित्य के विषय बदल गए | अब देश की दुर्दशा, धन के शोषण आदि विषयों पर लिखा जाने लगा। हालाँकि कविता में ब्रजमाषा तथा रीतिकालीन विषय की उपस्थिति बनी रही। भाषा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन उपस्थित होने लगा। ब्रजभाषा और अक्धी को लेकर जो मान्यता स्थापित हो गई थी उसमें परिवर्तन आ गया। अब ब्रजभाषा की जगह खड़ी बोली में साहित्य रचा जाने लगा।
यद्यपि ब्रजभाषा में रचना एकदम समाप्त नहीं हो गई किंतु खड़ी बोली के गद्य के अनुकूल होने के कारण ब्रजभाषा की प्रमुखता कम हो गईं | खुसरो और कबीर द्वारा बनाई गई भाषा का विकास होने लगा। कितु हिंदी साहित्य में इस प्रकार का परिवर्तन क्या बिना किसी के नेतत्व के हो गया। ऐसा नहीं था। हिंदी साहित्य के इसयुगांतकारी परिवर्तन को लाने का श्रेय युगपुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र को है। उन्हीं के प्रयास से हिंदी गद्य की विविध विधाओं में समयोचित परिवर्तन हुआ | भारतेंदु ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी| आइए इस युग के साहित्य का परिचय प्राप्त करें।
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