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आधुनिक कन्‍नड़ साहित्य।

आधुनिक काल में कन्नड़ साहित्य नवोदय, प्रगतिशील, नव्य बन्ध तथा दलित आदि धाराओं में विस्तार पा सका। भारतीय भाषाओं में जो नवजागरण का काल था, वही कन्नड़ में नवोदय के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ। नवोदय युग गद्य और पद्य दोनों विधाओं के लिए ही सर्वाधिक उर्वर सिद्ध हुआ। 

इस युग को एक तरफ जहाँ मास्ति वेंकटेश आय्यंगर जैसे शीर्षस्थ लेखक ने अपने कथा साहित्य से समृद्ध किया, वहीं डी.आर. बेन्द्रे जैसे मूर्धन्य कवि ने उसे अपनी रचनाओं से सँवारा कन्नड़ भाषा एवं साहित्य में पुनर्जागरण का घोष करने वाली पीढ़ी के आधार स्तंभ मास्ति वेंकटेश कन्नड़ साहित्य के जनक समझे जाते हैं। तो कन्नड़ में गर्व का भाव फूंकने वाले बेन्द्रे आधुनिक कन्नड़ काव्य के अगुआ। चाहे वह राष्ट्रीय चेतना हो, परिवर्तन की कामना हो, भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षण हो, परम्परा की शक्ति हो, रहस्यमयता का आवरण हो या फिर वैयक्तिता का भाव हो, नवोदय धारा के ये तमाम गुण बेन्द्रे के काव्य में देखे जा सकते हैं।

जैसा कि स्वाभाविक था, स्वतंत्रता संग्राम ने प्रदेश के समृद्ध इतिहास के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाया और नवोदय युग में चन्द ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे गए मास्ति वेंकटेश आय्यंगर का चक्कवीर राजेन्द्र और चन्नबासव नायक इसी कोटि के सुप्रसिद्ध उपन्यास हैं। मास्ति और बेन्द्रे के अलावा बी. एम. श्रीकान्तैय्या और के.वी. पुट्टप्पा का अवदान भी नवोदय साहित्य धारा को संवारने में रहा है। दरअसल, 1920 के दशक में अपने सुंदर अनुवादों से श्रीकान्तैय्या ने इस आंदोलन का सूत्रपात किया। इसके बाद बेन्द्रे और पुट्टप्पा ने अपनी रचनाओं से इसे गति दी।

इसके बाद ही शिवराम कारंथ अनन्तमूर्ति, लंकेश और भैरप्पा जैसे प्रभावशाली लेखकों की पंक्ति खड़ी हो गई। गिरीश कर्नाड तथा खम्बार जैसे शीर्षस्थ नाटककारों ने कन्नड़ साहित्य की श्रीवृद्धि ही नहीं की, उसे विविधता भी दी। इनमें शिवराम कारन्य का प्रभाव तो खास तौर पर कर्नाटक की सांस्कृतिक चेतना पर बेहद रहा है।

सही अर्थों में वह पुनर्जागरण पुरुष कहे जा सकते हैं। अनन्तमूर्ति की तरह उनकी रुचियाँ और उपलब्धियाँ भी महज साहित्य तक सीमित न रह कर शिक्षा, विज्ञान और पर्यावरण तक पसरी हुई हैं। कालजयी उपन्यासकार के रूप में ख्यातिप्राप्त कारन्य को कनन्ड़ में यथार्थवादी उपन्यास लेखन का सूत्रपात करने का श्रेय दिया जाता है। अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कारन्थ के प्रभाव को स्वीकार करते हुए अनन्तमूर्ति ने लिखा है, “मैं अपने अस्तित्व को तभी सार्थक बना सकता था, जबकि मैं अपने चारों तरफ़ घिरी सच्चाई को बेध सकता क्योंकि यह सच्चाई मुझे शेष दुनिया से अलग थलग कर देती थी। मैं बहुत सी पवित्र चीजों से घिरा हुआ था।

इसलिए मैं पेड़ के नीचे रखे पत्थर पर गुपचुप ढंग से पेशाब कर देता था, जबकि इस पत्थर की पूजा शक्तिशाली देवता के तौर पर किया करते थे। इस तरह मैं रात के अंधेरे में डर से काँपते हुए खुद को यह साबित कर दिखाता था कि पत्थर सिर्फ पत्थर और महज पत्थर है। मैं उस । पवित्र समझे जाने वाले मठ का भी तिरस्कार करने लगा, जहाँ कि मेरे पिता काम करते थे क्योंकि यह मठ गरीब किराएदारों के साथ कानूनी कार्रवाइयों में ही उलझा रहता था। मुझे आदर्श और यथार्थ के बीच का फ़र्क मालूम होने लगा था। इसी समय मैंने अपने महान उपन्यासकारों में एक कारन्थ का ‘चोमना डुडी’ पढ़ा।

यह अपनी जमीन को वापस चाहने वाले अछूत की त्रासद दास्तान है। अब तक मैं जिन समानी कहानियों का दीवाना था, वे मुझे बकवास लगने लगीं। मैंने जाना कि अगर अपने आस पास दिखने वाले यथार्थ को इतनी सुन्दर कहानी में ढाला जा सकता है तो फिर मुझे सिर्फ उन चीजों को बारीकी से देखने-परखने की जरूरत है। मेरे अग्रज जो कारन्थ की क्रांतिकारी विचारधारा से नफ़रत करते थे, वे भी उनकी लेखकीय कला की प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाते थे और उनके बारे में मुग्ध मन से बात करते थे।” इस तरह अनन्तमूर्ति का रुझान यथार्थवादी साहित्य की तरफ हुआ।मराठी में दलित साहित्य की उन्नत परम्परा देखी जा सकती है। 

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