सखान मूलत-भक्त कवि हैं और सगुण भक्ति परंपरा के अंतर्गत आने वाली कृष्ण भक्ति शाखा के महत्त्वपूर्ण कवि हैं, पर उनकी भक्ति प्रेमपगी भक्ति है जिसमें उनका हृदय प्रेम से स्पंदित होता है। प्रेम इस भक्ति का प्रस्थान है और सिद्धि भी। अपनी रचनाओं में रसखान प्रेम में डूबे ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं जिसका रोम-रोम पुलकित है और वह विसर्जित नहीं. पल-पल सम्मोहित है।
इस प्रेम में ही भक्ति है. शृंगार में ही श्रद्धा है. मनुहार में ही ब्रह्मानंद है तो संवेदित होने में ही मुक्ति । उन्होंने अपनी समस्त सर्जना को लीला बिहारी कृष्ण के वर्णन में लगाया, जो स्वयं रस की खान हैं। रसखान कहते भी हैं- ‘त्यों रसखानि वहीं रसखानि जु है रसखानि सो है रसखानी
रसखान की प्रेम भावना में लौकिकता का गहरा पुट है। श्रीकृष्ण का प्रेममय रूप पूरी तरह मानवीय है। इस वजह से यहाँ सौंदर्य के आकर्षण में बिंधा हुआ मन बाहरी मर्यादाओं को त्याग कर एक दूसरे के भीतर समा जाने की तजबीजें सोचता है प्रेम में मिलन की जो उत्कंठा आकुलता व विह्वलता होती है वह रसखान के काव्य में कितने ही रूपों में आती है। गोपियों के हृदय में कभी अपने बनवारी की मुस्कान चुभ जाती है तो वे अपनी कुलमर्यादा को भूल जाती है।
प्रेम का मार्ग ही ऐसा मार्ग है, जहाँ रूदियों के बंधनों के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसी तरह रसखान की गोपियाँ भी कृष्ण साहचर्य पाने के लिए लोकलाज की कोई परवाह नहीं करती। कृष्ण जहाँ भी दिखाई दे जाते हैं वहीं अपने रूप के आकर्षण में बाँध लेते हैं। वे प्रेम का फंदा डालकर प्रिय को फंसा लेने की कला में इतने माहिर है कि उससे बाहर निकल पान संभव ही नहीं होता।
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