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भारत के संविधान के दार्शनिक आधारों की विवेचना कीजिए।

दर्शन का अर्थ है दृष्टिकोण जो कि कार्यप्रणाली में प्रतिबिंबित हुआ था। भारत के संविधान के निर्माण का कार्य संविधान सभा को सौंपा गया था। संविधान सभा के अंदर राजनीतिक और कानूनी विद्वान मौजूद थे। ये सभी सदस्य अपनी व्यक्तिगत विचारधारा को संविधान निर्माण में सभा योजन करने को उत्सुक थे।

इसलिए लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता न्याय एवं स्वतंत्रता जैसे सिद्धांतों को भारतीय संविधान में जगह दी गयी और ये सभी सिद्धांत भारत के संविधान के अहम बिंदू माने गये थे जो संविधान सभा ने बनाये थे।

1) संप्रभुता – जब संविधान निर्माताओं ने भारत की राजनीतिक भविष्य के बारे में सोचा तो उन्होंने सबसे ज्यादा भारत की संप्रभुता के बारे में सोचा था। भारत को संप्रभु बनाना उनके लिए महत्वपूर्ण था और सर्वोच्च शक्ति को उन्होंने लोगों में निहित की थी। केन्द्र एवं राज्यों के सभी अंग तथा कार्यप्रणाली केवल भारत के लोगों से ही शक्ति ग्रहण करते हैं।

2) लोकतांत्रिक मूल्य – संविधान निर्माताओं ने इस सिद्धांत को भी बहुमूल्य माना था। क्योंकि लोकतंत्र या लोकतांत्रिक मूल्य देश को मजबूती प्रदान करते है तथा सभी लोगों की आवाज़ को समान महत्व देते हैं।

3) आम सहमति से निर्णय लेना – ग्रेनविल ऑस्टिन के अनुसार आम सहमति की अवधारणा संविधान सभा में आम बात थी।  नेतृत्व के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह किसी नतीजे पर पहुँचने से पहले आम सहमति से निर्णय ले क्योंकि यह तार्किक एवं प्रभावी रास्ता माना जाता है किसी समझौते को अंतिम रूप देने के लिए। यह सिद्धांत भी भारतीय संविधान की रचना के लिये सबसे उपयुक्त था। सबके अधिक आम सहमति शायद संघीय प्रावधान एवं भाषायी प्रावधानों में देखने को मिली है।

4) समायोजन का सिद्धांत – ग्रेनविल ऑस्टिन के अनुसार, संविधान निर्माण में भारत का मूल योगदान इसके समायोजन का सिद्धांत था। अर्थात् जाहिर तौर पर असंगत अवधारणाओं में सामंजस्य करने की क्षमता। इसने संघीय एवं एकल व्यवस्था के बीच सामंजस्य बैठाया, राष्ट्रमंडल एवं रिपब्लिक सरकारों की सदस्यता के बीच सामंजस्य तथा मजबूत केन्द्र सरकार के साथ-साथ पंचायती राज व्यवस्था के प्रावधानों के सामंजस्य की दुहाई देना। चयन एवं परिवर्तन की कला – संविधान सभा केवल अनुकरणात्मक नहीं थी।

विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं से लिये गये प्रावधानों को संविधान सभा ने भारतीय स्थिति के साथ अनुकूल बनाने के लिये प्रयास किये। चयन एवं परिवर्तन का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण, ऑस्टिन के अनुसार संविधान में संशोधन की विधि था। इसने संविधान को लचीला बनाया तथा राज्यों के अधिकारों की भी रक्षा की थी। किसी अन्य देश में संशोधन की प्रक्रिया हमारे देश से अच्छी नहीं है क्योंकि यहाँ संघवाद और ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था दोनों संविधान का आधार स्वरूप है।

5) मूल अधिकार – विशेष रूप से वल्लभ भाई के कारण मूल अधिकारों को संविधान में न्यायोचित बनाया गया है और ये अधिकार आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों के जीवन का आधार माने जाते है। अधिकारों की वजह से ही सभी नागरिक स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकते है।

6) धर्मनिरपेक्ष राज्य – धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत वह सिद्धांत है जो कि भारत के नागरिकों के लिए पूर्ण रूप से अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिये हैं धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को संविधान सभा में काँगेस के एक वर्ग ने स्थापत्य किया था, जिनका मानना था कि भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य होना चाहिये।

7) समाजवाद – वल्लभभाई पटेल के प्रभाव के कारण ही हमारे संविधान में समाजवाद के सिद्धांतों को जगह दी गयी। यह पहले कभी नहीं था जैसा कि वर्तमान संविधान
में है।

8) अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण – समायोजन के सिद्धांत से संबंधित प्रावधान के समानांतर ही संविधान सभा ने समाज के अल्पसंख्यक तबकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का प्रावधान किया था। संविधान सभा की दो महिला सदस्यों ने इस सिद्धांत को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इनमें अमृत कौर तथा बेगम एजाज रसूल प्रमुख थी जिन्होंने यह कहा कि सभी अल्पसंख्यक वर्ग भारत के आंतरिक भाग हैं उन्हें आरक्षण की जरूरत है ताकि उनके अधिकारों की रक्षा की जा सके।

9) वयस्क मताधिकार – संविधान सभा ने वयस्क मताधिकार को एकदम सही माना था।राजेन्द्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरु दोनों महत्वपूर्ण सदस्य थे जिन्होंने वयस्क मताधिकार का समर्थन किया था तथा सभी नागरिकों को वोट का अधिकार देकर अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया।

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