छायावाद ने शिल्प विधि में अपनी पृथक पहचान बनाई है। इन कवियों के काव्य सौष्ठव को समझने के लिए इनके बिम्ब-विधान अथवा कल्पना विधान को भली-भांति समझना होगा और उसी के साथ-साथ इनकी काव्य-भाषा तथा काव्य शिल्प को भी।
स्वच्छंद कल्पना का नवोन्मेष : छायावादी कविता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है- अनुभूति और कल्पना का नवोन्मेष । प्रसाद जी का कल्पना-विधान तो बहुत ही विलक्षण है। कामायनी में श्रद्धा की मुख-छवि कवि को घटाटोप के बीच में खिले गुलाबी रंग के बिजली के फूल जैसी प्रतीत होती है। उस मुख पर थिरकती हुई स्मिति को कवि ने अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा स्थापित किया है। प्रसाद जी की कल्पनाएँ बहुत सुदूरगामी हैं। प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने बड़े विराट एवं सूक्ष्म बिम्ब प्रस्तुत किए हैं। कवि ने पृथ्वी को सिन्धु की सेज पर संकुचित बैठी हुई नवोढ़ा वधू के रूप में जिस प्रकार चित्रित किया है,
वह एक विदग्ध कल्पना है “सिन्धु सेज पर धारा वधू अब, तनिक संकुचित बैठी सी”। इसी प्रकार हिमालयी प्रकृति को श्वेत कमल कहना और उस पर प्रतिबिम्बित अरूणिमा को “मधुमय पिंग पराग” कहना विलक्षण उक्ति है। कल्पना और अनुभूति का ऐसा मणिकांचन संयोग दुष्कर है। प्रसाद की काव्य कला बिंबविधायिनी कल्पना और रूपक रचना के सहारे बहुशः व्यक्त हुई है। “बीती विभावरी जागरी” शीर्षक गीत इसका विरल उदाहरण है। इन कल्पना चित्रों में बड़ी गूढार्थ व्यंजना है। कवि ने अप्रस्तुतों का प्रयोग करके यत्र-तत्र बिंबमाला-सी उपस्थित कर दी है। बिंबधर्मिता उनकी काव्य कुशलता की सर्वोपरि सिद्धि है।
काव्य-भाषा : छायावादी कवियों ने काव्य शिल्प को सर्वाधिक प्राथमिकता दी है। प्रसाद जी के अनुसार काव्य के सौन्दर्यबोध का मुख्य आधार है- शब्द विन्यास-कौशल। निराला ने भी काव्य के भावात्मक शब्दों को ध्वनि और शब्द व्यापार कहा है और पन्त ने शब्द चित्र, चित्रभाषा तथा भावावेश मयी भाषा पर बल दिया है। वस्तुतः इन कवियों को शब्द प्रिय रहे हैं।
निराला जी तो घोषणा करते हैं कि “एक-एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार महादेवी जी भी टकसाली और स्वच्छ भाषा के प्रयोग में बहुत सचेत रही हैं। तात्पर्य यह है कि छायावादी काव्य भाषा ललित-लवंगी कोमल-कांत-पदावली की भाषा है। उसमें असाधारण लक्ष्यार्थ, व्यंग्यार्थ, प्रतीकार्थ, अमूर्तन व्यापार और संप्रेक्षण की संवेदना है।
काव्य-शिल्प :
छायावादी काव्य की छन्द योजना वैविध्यमयी है। निराला जी ने प्रथम बार मुक्त छन्द का आविष्कार करके कविता को तुकबंदी से मुक्त किया था। इन कवियों ने प्रायः सभी प्रकार के प्रयोग किए हैं, जिसमें अंग्रेजी के सानेट, फारसी के बहर, गजल, संस्कृत के वार्णिक और मात्रिक छंद उल्लेखनीय हैं। इन्होंने लोकधुनों को अपने छंदों में बांधा है और अपने कुछ नये छंद निर्मित किए हैं। इनके छंदों में ध्वन्यात्मकता का निर्वाह हुआ है और ओज, प्रसाद, माधुर्य तथा प्रायः समस्त कृतियों अथवा शैलियों का प्रयोग भी।
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