राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में वंशों की रचना प्रारम्भिक मध्यकाल में राजपूत राजवंशों की उत्पत्ति से सम्बन्धित अध्ययनों से यह पता चलता है कि यह एक राजनीतिक प्रक्रिया रही होगी। विवादास्पद राजपूतों की उत्पत्ति की प्रकृति विवादास्पद है -
(1. उनके गोत्रचर उन्हें सोमवंशी क्षत्रिय बताते हैं।
(2. प्राचीन काव्यों के आधार पर कुछ लोगों ने उन्हें सूर्यवंशी माना है।
(3. उनके उदय से सम्बद्ध मिथक के अनुसार कलियुग में म्लेच्छों के विनाश हेतु इन्हें क्षत्रिय माना गया।
(4. राजस्थानी चारण और इतिहासकार इन्हें अग्निकुल (अग्नि से उत्पन्न) मानते हैं।
विवरण इनका विवरण निम्न प्रकार है : उत्पत्ति के अग्निकुल विवरण के अनुसार, परमार वंश के संस्थापक की उत्पत्ति माउंट आबू पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुंड से हुई। अग्निकुंड से प्रकट व्यक्ति ने इच्छापूर्ति करने वाली वशिष्ठ मुनि की गाय को महर्षि विश्वामित्र से छीनकर उसे वशिष्ठ मुनि को सौंपा। वशिष्ठ मुनि ने उसे ‘परमार’ अर्थात शत्रु को मारने वाला नाम दिया। उस व्यक्ति से वह वंश उत्पन्न हुआ, जिसने उत्तम राजाओं का सम्मान प्राप्त किया। राजस्थानी कवियों तथा कथावाचकों ने परमारों के साथ-साथ प्रतिहारों, गुजरात के चालुक्यों और चहमानों की उत्पत्ति भी अग्नि से मानी है। समग्रता पर बल विद्वानों के अनुसार उत्पत्ति का प्रश्न किसी विशेष राजवंश के दृष्टिकोण से न देखकर पूर्ण समग्रता के रूप में देखा जाना चाहिए जिससे कि उसके राजनीतिक महत्त्व को समझा जा सके। उनका तर्क है कि क्षत्रिय होने का दावा करने वाले सामाजिक समूहों का चलन प्रारम्भिक मध्यकाल में व्यापक था। क्षत्रिय होना वह प्रतीक था, जिसे नवोदित सामाजिक समूह अपनी नई अर्जित शक्ति की वैधता के लिए पाना चाहते थे।
कालान्तर में प्रारम्भिक मध्यकालीन तथा मध्यकालीन राजपूत वंशों ने राजनीतिक प्रतिष्ठा प्राप्त की। यह राजपूत वंश मिश्रित जातियों के थे। उनमें छोटे और जागीर युक्त सरदार बड़ी संख्या में सम्मिलित थे। “प्रतिहारों, गुहिलों, चहमानों और अन्य वंशों द्वारा राजनीतिक प्रतिष्ठा की उपलब्धि और क्षत्रिय वंश परम्परा जैसा प्रतिष्ठित सामाजिक पद प्राप्त की उनकी प्रवृत्ति के मध्य सम्बन्ध था। यह तर्क दिया जाता है कि इन राजवंशों ने सत्ता प्राप्त करने के दीर्घकाल उपरान्त प्राचीन क्षत्रियों के वंशज ह का दावा किया।” प्राचीन राजपूत वंशों में से एक, गुर्जर प्रतिहार, अपनी उत्पत्ति का दावा महाकाव्य के नायक राम के भाई लक्ष्मण के वंश से करते हैं। इसका वर्णन शताब्दी में राजा भोज के एक अभिलेख में है। राजपूत वंश परम्परा में प्रवेश राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति से संभव था। पौराणिक युग के क्षत्रिय वंशों से सम्बन्ध जोड़कर इसे वैधता प्रदान की जाती थी। राजनीतिक शक्ति का असमान वितरण कुछ विद्वानों के अनुसार राजनीतिक शक्ति का वितरण एक समान न था। पश्चिम भारत में राजनीतिक शक्ति के उदय की प्रक्रिया से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक सत्ता का वितरण सत्ता के राज्यतंत्रीय रूप की संरचना के भीतर कुलों/वंशों के नेटवर्क के अध्ययादि से स्थापित किया जा सकता है। बी.डी. चट्टोपाध्याय के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति को राजनीतिक संरचना में विद्यमान श्रेणीबद्धता में देख सकते हैं।
इनके परिणाम निम्न विवरणों से प्राप्त होते हैं -
(i) राजस्थान के चहमानों के विवरण से
(ii) दक्षिण राजस्थान के राजवंशीय विवरण से
(iii) गुजरात के राजवंशीय विवरण से
(iv) मालवा के परमारों के राजवंशीय विवरण से।
वंशीय शक्ति की रचना और संघठन का विकास एक समान नहीं हुआ। वंशीय शक्ति के गठन के सूचकों में से नए क्षेत्रों का औपनिवेशीकरण एक है। यह क्षेत्रीय विस्तार से ज्ञात किया जा सकता है। संगठित सैन्य शक्ति के द्वारा नवीन क्षेत्रों पर नियंत्रण द्वारा औपनिवेशीकरण किया गया। सप्तशत कहलाने वाले नाडोल चौहान प्रमुख ने सप्तशत बनाया, जिसने अपने राज्य की सीमाओं से संलग्न क्षेत्रों के प्रमुखों को परास्त कर उनके क्षेत्रों को अपने क्षेत्र में मिला लिया। पश्चिम भारतीय शक्तियों ने कुछ क्षेत्रों में जनजातीय क्षेत्रों की कीमत पर विस्तार किया। मंडोर प्रतिहारों के काक्कुका को अमीरों के बसे क्षेत्र का पुनर्वास करने का श्रेय प्राप्त है। पश्चिम और मध्य भारत में शबरों, भीलों तथा पुलिंदों जैसी जनजातीय जनसंख्या का दमन किया गया। चारण परंपरा के अनुसार दक्षिण राजस्थान में गुहिला राज्यों ने भीलों के प्रारम्भिक जनजातीय राज्यों पर विजय प्राप्त की। चौहानों का अहिछत्रपुर से जंगलदेश (शाकंभरी) की ओर प्रवास उस दुर्गम क्षेत्र के औपनिवेशीकरण के परिणामस्वरूप हुआ।
दसवीं शताब्दी के दस्तावेज में यह उल्लेख है कि शाकंभरी चहमान वंश के वाक्पटों के पुत्र लक्ष्मण ने कुछ अनुयायियों के साथ जाकर नड्डुला के निकटवर्ती स्थान पर निव.. करने वाले लोगों पर आक्रमण करने वाले मेड़ों के विरुद्ध युद्ध लड़ा। उस क्षेत्र के ब्राह्मण अधिपति ने प्रसन्न होकर उसे शहरों का रक्षक नियुक्त कर दिया। कालान्तर में, लक्ष्मण ने एक छोटे सैन्यदल को एकत्र कर मेड़ों को इन्हीं के क्षेत्र में चुनौती दी। मेड़ों ने गाँवों से दूर रहकर लक्ष्मण को शुल्क देना स्वीकार किया। लक्ष्मण 2000 घोड़ों का स्वामी बन गया। उसने अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार कर नाडोल में एक भव्य महल बनाना प्रारम्भ कर दिया। बी.डी. चट्टोपाध्याय ने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि राजपूतों की उत्पत्ति की प्रक्रिया जनजातियों के संक्रमण के संदर्भ में देखी जा सकती है।
बी.डी. चट्टोपाध्याय ने उपर्युक्त प्रक्रिया को ब्राह्मणों से आगे जोड़ते हुए कहा है कि “जब उन विभिन्न चरणों की बात की जाती है, जिनमें वंशक्रम) का गठन हुआ तो यह अधिक स्पष्ट हो जाता है कि नए उभरते हुए ब्रह्मक्षत्र (ब्राह्मण-क्षत्रिय) आदि राजसी वंशों की स्थित परिवर्ती थी। यह एक बार प्राप्त होने के बाद पूरी तरह नहीं त्याग दी गई। ब्राह्मणों से क्षत्रियों में तथाकथित प्रमाणिक परिवर्तनों को लेकर औचित्य दिए जाते रहे। यदि उनके अपेक्षाकृत परवर्ती दस्तावेजों के आधार पर यह स्वीकार कर लिया जाए कि गुहिला और चहमान दोनों ही मूलतः ब्राह्मणों के वंशज हैं। तब यह कहा जा सकता है कि अपनी नवीन क्षत्रिय भूमिका को वैध ठहराने हेतु इस स्थिति पर जोर दिया। चट्टोपाध्याय का तर्क है कि “सम्भवतया ब्रह्मक्षत्र अपेक्षाकृत एक ऐसी उदार प्रस्थिति थी जिस पर उनके विशुद्ध क्षत्रिय मूल का दावा करने से पहले ही नए राज परिवारों में आधिपत्य स्थापित कर लिया था।”
बी.डी. चट्टोपाध्याय के अनुसार शासक वंशों के विस्तृत वंशावलियों के आधार पर वास्तविक मूल का निर्धारण नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इनका गठन केवल सामंती से स्वतन्त्र स्थिति प्राप्त करने वाले संक्रमण काल में हुआ था। इन वंशावलियों का निर्माण अनेक चरणों में हुआ था। इनसे वह राजनीतिक प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है, जिसके अंतर्गत सामंती स्थितियों से ऊपर उठाने वाला प्रयास जारी था। यहाँ अपने दावों और उपाधियों वल्लभी के राजा में निष्ठा प्रकट करने वाले गुजरात के गुर्जरों या किष्किंधा और धावगर्व के गुहिलों के उदाहरणों में यह उल्लेख है कि उनका प्रार. . मूलतः सामंती स्थिति में हुआ। सामंती से स्वतंत्र प्रस्थिति प्राप्त होने वाला परिवर्तन सैन्य शक्ति के विकास से हुआ। उत्पत्ति से जुड़े मिथक यह बताते हैं कि उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य में राजपूतों का प्रवेश आकस्मिक और वैभवशाली था। इसकी अपेक्षा तत्कालीन राजनीतिक संरचना की तत्कालीन श्रेणीबद्धता में उनकी जाँच की जानी आवश्यक है। उनके अनुसार, “इस प्रारम्भिक राजनीतिक चरण को समझना अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण है।
इससे अन्य प्रक्रियाओं की जाँच करने में सुविधा प्राप्त होगी। उदाहरणार्थ, अपनी प्रारम्भिक सामंती प्रस्थिति से राजनीतिक आधिपताना स्थापित करने के प्रयत्न में राजपूत वंश किस प्रकार अपने अंतः ग्रंथित हितों के लिए आर्थिक एवं सामाजिक आधार तैयार करने हेतु बढ़े। आर्थिक आधार की विशेषताएँ राजपूत वंशों के नेटवर्क के इस आर्थिक आधार की अनेक विशेषताएँ थीं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है -
(1. राजकीय परिवारों में भूमि का आबंटन इस प्रक्रिया को मुख्य रूप से चहमान वंशों के विस्तार में देखा जा सकता है। रजोगढ़ में प्राप्त अलवर के गुर्जर-प्रतिहारों के मठान के अभिलेख में ‘वंशपोतकभोग’ (वंशजों द्वारा भोगी जाने वाली सम्पदा) आदि प्रयुक्त शब्दों का तात्पर्य वंश दाय या विरासत से लिया गया है।
जयपुर में 973 ईसवीं के हर्ष के अभिलेख में भी वंश की विशिष्टता की गई है। निम्न के स्वभोग (निजी सम्पदा) के अनेक प्रसंग मिले हैं
(i) राजा सिंहराज के
(ii) उनके वत्सराज और निग्रहराज नामक दो भाइयों के तथा
(iii) चंदराज और गोविंदराज नामक उनके दो पुत्रों के
अभिलेख में भोग (सम्पदा) के हकदार एक अन्य व्यक्ति का भी सन्दर्भ है। वह गुहिल वंश का था। राज्य के भीतर दुःसाध्य (अधिकारी) की अपनी भूसम्पत्ति थी। पर भूमि प्रदान करने हेतु वह राजा की स्वीकृति पर निर्भर था। इसका कारण यह था कि इस संदर्भ में उसके अधिकार सीमित थे। इसके विपरीत, कुछ लोगों को इस तरह की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी। वह स्वयं अनुदान करने में सक्षम थे। इस प्रक्रिया का बारहवीं शताब्दी तक अधिकाधिक विकास होता गया। जब नाडोल चहमानों के समय में ग्रास, ग्रासभूमि तथा मुक्ति कहलाने वाले आवंटनों का अधिकार राजा, कुमार (राजकुमार), राजपुत्रों, रानियों एक प्रसंग में राजा के मामा, जो उस वंश का सदस्य न था, का हुआ करता था।
(2. द्वितीय गढ़ों का निर्माण इस काल में गढ़ों का निर्माण राजपूतों के द्वारा कराया गया। इस काल में बड़ी संख्या में गढ़ों का निर्माण राजपूतों द्वारा इस काल में किए गए क्षेत्रीय विस्तार की उपलब्धि है। अभिलेख राजस्थान के विभिन्न भागों में इन गढ़ों के स्थान को भी प्रकट करते हैं, इनमें से कुछ गढ़ निम्न प्रकार हैं
(i) भरतपुर क्षेत्र में
(ii) काम्यकीयकोट्टा में
(iii) अलवर में
(iv) मांडव्यपुग
(v) जोधपुर के पास मंडोर में
(vi)चितौड़ में चित्रकुलमहादुर्ग आदि।
यह गढ़ सुरक्षा के साथ-साथ निम्न प्रकार अनेक व्यापक गतिविधियों वाले थे
(i) यह गढ़ उदीयमान शासक परिवारों की शक्ति के बहुसंख्यक केन्द्रों का प्रतिनिधित्व करते थे।
(ii) पड़ोसी क्षेत्रों में इनके काश्तकारों के साथ निकट सम्बन्ध थे। अतः यह गढ़ ग्राम्य परिवेश को नियन्त्रित करने के साधन हो सकते थे।
इससे इन क्षेत्रों पर विभिन्न वंशों के आधिपत्य का पता चलता है। संभवत: गढ़ों और ग्रामीण क्षेत्रों के मध्य आर्थिक विनिमय भी था। इस विनिमय तंत्र पर भी गढ़ों का नियन्त्रण था। सामाजिक सम्बन्धों के स्तर पर वंशों के सुदृढीकरण या संगठन का आकलन वंशों के मध्य विवाह सम्बन्धों से किया जा सकता है। इस संदर्भ में चट्टोपाध्याय ने अभिलेखों तथा वंशावलियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वंशावलियों में दर्ज विवाहों के विवरण से यह स्पष्ट है कि ‘विवाहों के विवरण को वंशों के लिए उनके महत्त्वपूर्ण राजनीतिक निहितार्थ के दृष्टिगत दर्ज किया गया था। विवाह साक्ष्यों को काल-क्रमानुसार जाँचते हुए चट्टोपाध्याय विवाह-तंत्र के ढाँचे में परिवर्तन देखा है। उसमें केवल वंश मूल ही भूमिका नहीं निभाता वरन अंतर्वंशीय सम्बन्धों की ओर एक स्वभाविक परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है।
(1. जोधपुर क्षेत्र से प्राप्त एक अभिलेख जो प्रतिहार वंश का है तथा 837 ईसवीं का है में यह उल्लेख है कि वंश के प्रवर्तक ने ब्राह्मण और क्षत्रिय स्त्रियों से विवाह किया।
(2. 861 ईसवीं के अभिलेख में यह सन्दर्भ है कि ब्राह्मण पत्नी को वंश परंपरा से निष्कासित कर दिया गया।
(3. कुछ वंशावलियाँ यह प्रकट करती हैं कि प्रतिहारों और भट्टी वंशों में भी अंतर्जातीय विवाह हुए थे।
(4. चहमान अभिलेखों से स्पष्ट है कि विवाह के लिए राष्ट्रकूट, रात्रोध और राठौर वंश उनकी पंसद में सम्मिलित थे।
चट्टोपाध्याय के अनुसार किसी विशिष्ट समय में विवाह द्वारा अंतर्वशीय सम्बन्ध दो वंशों तक सीमित हो सकते थे। इस ढाँचे में किसी प्रकार की संगति इन वंशों के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों के कारण रही होगी। गुहिलों के प्रसंग में ऐसा ही था। यह संगति काफी व्यापक थी। “प्रायः इन वंशों के मध्य वैवाहिक तंत्र का नेटवर्क उन वंशों के मध्य था, जिनका संगठन राजपूत वर्ग के रूप में हुआ। इसके कारण अनिवार्य रूप से राजनीतिक थे। इसके उपर्युक्त प्रमाण प्रारम्भिक मध्यकालीन राजस्थान के शासन करने वाले संभ्रांत वंशों से मिलते हैं।” चट्टोपाध्याय का यह तर्क है कि इस बात की पूर्ण सम्भावना है कि विवाह के माध्यम से बनने वाले अंतर्वंशीय सम्बन्धों के व्यापक सामाजिक निहितार्थ भी थे। इससे हूणों जैसे वर्गों को, जिन्होंने पश्चिम भारत में पर्याप्त राजनीतिक शक्ति एकत्र कर ली थी। राजपूत वंशावलियों में अंततः सम्मिलित होने की सामाजिक वैधता भी प्राप्त हुई।
अंतर्वंशीय वैवाहिक सम्बन्धों के कारण सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों के व्यापक क्षेत्रों में सहयोग की स्थापना हुई। उदाहरणार्थ,
(i) गुहिल अल्लाता का विवाह हूण राजकुमारी से हुआ था। उसका पुत्र नरवाहन के राज्य की गोष्ठी में एक हूण सदस्य था।
(ii) इसी प्रकार हस्तिकुंडी राष्ट्रकूट वंश का अनाहस्तिकुंडी वंश में विवाहित धारवर्ष परमार के राज्य में धार्मिक संस्थाओं की गतिविधियों में सम्मिलित था।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि वैधता की यह राजनीतिक प्रक्रिया जिससे राजपूतों का प्रारम्भ हुआ, तत्वतः एक सामाजिक प्रक्रिया में परिवर्तित हुई। इस प्रक्रिया के राजनीतिक आयाम थे तथापि राजपूतों की उत्पत्ति की प्रक्रिया में यह एक विभिन्न चरण प्रकट करती है। वंशों का विस्तार बी डी. चट्टोपाध्याय का तर्क है कि कालान्तर में राजपुत्र और महाराजकुमार (राजा के बेटे) जैसे शब्द एक उच्च राजनीतिक प्रस्थिति’ के द्योतक न होकर वंशज समूहों के द्योतक बन गए। 1301 ईसवीं के चित्तौड़ में प्राप्त एक अभिलेख में राजपुत्रों की तीन पीढ़ियों का वर्णन है। इसके दृष्टिगत चट्टोपाध्याय ने यह मत प्रस्तुत किया है कि “13वीं शताब्दी के अंत तक राजपुत्र शब्द केवल एक राजनीतिक प्रस्थिति को ही व्यक्त न कर आनुवंशिकता को भी व्यक्त करता था। चट्टोपाध्याय के अनुसार प्रारम्भिक मध्यकाल में राजपूतों का विस्तार अनेक प्रकार के स्रोतों से विदित होता है।
(i) हेमचंद के त्रिसस्तिशलाकापुरू संचरित में राजपुत्रक या राजपुत्र वंशजों या अनेक राजपुत्रों का उल्लेख है।
(ii) परवर्ती के उत्तरार्द्ध में माउंट आबू में प्राप्त अभिलेख में एक यशस्वी राजपत्र वंश के समस्त राजपत्रों का उल्लेख है। यहाँ राजपत्र के अर्थ का प्रयोग एक बड़े क्षेत्र में “राजा के वास्तविक पुत्र से लेकर छोटे-से-छोटे भूमिपति” तक के लिए किया जाता था।
(iii) कुमारपालचरित और राजतरंगिनी से यह सूचना प्राप्त होती है कि राजपूतों के रूप में स्वीकृति अनेक वंश पर्याप्त संख्या में थे।
चट्टोपाध्याय का मत है कि इन स्रोतों में निश्चित संख्या के प्रसंग नहीं मिलते, बल्कि वंशानुक्रम के आधार पर ये एक राजपुत्रों को दूसरों से ! होने का संकेत देते हैं। नवीन शब्दों का प्रयोग 12वीं शताब्दी के बाद से सामंत और महासामंत आदि सामंती उद्बोधनों का प्रयोग अत्यल्प होने लगा। बाद में निम्न शब्दों का प्रयोग प्रचलन में था
(i) राजपुत्र, (ii) शैता, (iii) राउत, (iv) राजकुल या (v) रावल, (vi) रानका
उपर्युक्त शब्दों के आगे सामंत या महामंडलेश्वर आदि आधिकारिक उपाधियाँ जोड़ी जाती थीं। ये राजपुत्रों और अन्य लोगों की उन पदवियों को व्यक्त करती थीं, जो प्रशासनिक व्यवस्था में उन्हें प्रदान की गई थीं। अभिलेख से यह भी स्पष्ट होता है कि राजपुत्र और राउत आदि शब्द कुछ वंशों तक ही सीमित नहीं थे। इस बात की पुष्टि श्री वंश की राउत जैसी अभिव्यक्तियों से होती है। चट्टोपाध्याय के अनुसार ऐसी अभिव्यक्तियाँ उस व्यवस्था के लचीलेपन का पैमाना थीं, जिसमें नवीन समूहों के अनुसार उनके राजनीतिक नेतृत्व और शक्ति के आधार पर सम्मिलित कर लिया जाता था। दो भिन्न प्रक्रियाएँ चट्टोपाध्याय के अनुसार, इस समय में वंशों की प्रचुरता के साथ दो भिन्न प्रक्रियाएँ देखी गईं।प्रथम थी उन प्रारम्भिक क्षत्रिय समूहों की राजनीतिक हैसियत को नष्ट करना, ‘जिनका प्रभुत्व अपेक्षाकृत कम था।’
यह हमें उन अभिलेखों से विदित होता है, जिनमें यह उत्कीर्ण है कि क्षत्रिय व्यापारियों तथा कारीगरों के व्यवसाय को अपनाने लगे थे। इस समय शासक वर्ग को क्षत्रीय नहीं बल्कि राजपूत वर्ग प्रिय लगने लगा था। दूसरी प्रक्रिया थी विभिन्न राजपूत वंशों के मध्य बढ़ता हुआ ‘अंतर्वशीय सहयोग।’ वीर स्तम्भ इसके प्रमाण विभिन्न सैन्य अभियानों में उनकी सहभागिता से मिलते हैं। चट्टोपाध्याय ने इस संदर्भ में समकालीन स्मारकों या स्मृतिप्रस्तरों के प्रमाणों की जाँच की है। यह वीर स्तम्भ अनेक प्रकार से सामाजिक समूहों के सम्बन्ध में सूचना देते हैं, जिन्होंने इन गतिविधियों में सहभागिता की थी। शूरवीरों की स्मृति निर्मित यह स्मारक प्रायः उन समूहों से सम्बन्धित हैं, जिन्हें राजपूतों के रूप में स्वीकार किया गया है।
इन स्मारक प्रस्तरों में निम्न वंशों के नाम दर्ज हैं
(i) प्रतिहार, (ii) चहमानए? (iii) गुहिला परमार, (iv) सोलंकी, (v) राठौर, (vi) चंदेल, (vii) बोदना, (viii) मोहिला, (iv) देवड़ा, (x) डोडा, (vi) दहिया, (xii) भीचि, (xiii) धरकट।
(i) राजपुत्र (ii) राणा (iii) राउत
ये उपलब्धियाँ उन वीरों की राजनीतिक तथा सामाजिक हैसियत को प्रकट करती हैं। चटोपाध्याय के अनुसार, जिस प्रकार इन स्मृति प्रस्तरों को गढ़ा गया और इनमें से अनेक जिस प्रकार प्रारम्भिक मध्यकालीन राजस्थान के जो सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं, वे पर्याप्त सीमा तक उन नए क्षत्रिय समूहों से सम्बद्ध हैं जिन्होंने मिलजलकर राजस्थान की राजनीतिक व्यवस्था बनाई चट्टोपाध्याय के अनुसार “केवल राजवंशीय सम्बन्धों के इस विस्तार में, जिससे सामाजिक सम्बन्धों का एक व्यापक क्षेत्र बना, राजपूतों का काल और स्थान की दृष्टि से भावी विकास के चरणों का पता चलता है।” (आइडिया ऑफ राजस्थान)
ज़ीग्लर की विचारधारा मुगल काल पर नॉरसन ज़ीग्लर ने राजपूतों में सगोत्रता और वंश सम्बन्धों से सेवाओं तथा विनिमय के नेटवर्क की ओर गतिशीलता पर प्रकाश डाला है। इस विचारधारा के मुख्य तर्क का सम्बन्ध राजपूतों की सामाजिक संरचना के विस्तार के विवरण से है, जो मुख्य रूप से जीग्लर की धारणा पर आधारित है। प्रामाणिक इकाइयाँ ज़ीग्लर के अनुसार मध्यकाल तथा राजपूतों की पहचान और संदर्भ की निम्न दो प्राथमिक इकाईयाँ थीं
(i) उनका भाईचारा (भाईबंध) और (ii) विवाह द्वारा उनके सम्बन्ध (सगा)
इनका विवरण निम्न प्रकार है :-
(1. भाईबन्ध स्थूल रूप से भाईबन्ध वह इकाई थी, जिसकी अभिव्यक्ति कुल या वंश से होती। इसमें एक ही पूर्वज (वडेरो) से उत्पन्न पुरुषों से सम्बन्ध सभी लोग सम्मिलित थे। एक ही वंश का विस्तार राजस्थान में विभिन्न क्षेत्रों में होता था।
यह समष्टि समूह खाप और नाक थे।
(i) इनमें तीन से पाँच या छः पीढ़ियों के सदस्य थे।
(ii) पुरुषों की ओर से निकटता से सम्बन्ध सभी लोग, जैसे उनकी पत्नियाँ, पुत्र और अविवाहित पुत्रियाँ भी सम्मिलित थीं।
भ्रातृत्व क्षेत्रीय रूप से उन स्थानों से जुड़ा था, जो क्षेत्र भाइयों के मध्य उनके हिस्से के बंटवारे (भाईवंट) से प्राप्त थे। यह क्षेत्र भाइयों के मध्य उनके जन्मस्थान के नाम से जाना जाता था।
जन्मस्थान का अर्थ निम्न प्रकार भी था
(i) भ्रातृत्व का मूल स्थान और
(ii) उसका विस्तार
यह वह भूमि थी जहाँ से भ्रातृत्व को शक्ति और सम्पोषण प्राप्त होता था। जीग्लर के अनुसार भ्रातृत्व और भूमि दोनों
(i) अविच्छन्न रूप से जुड़े हुए थे और
(ii) एक-दूसरे के लिए सहारा भी थे।
बी.डी. चट्टोपाध्याय का मत था कि प्राचीनकाल में एक नई भूमि इकाई चलन में थी। इसमें छ: गाँव और उसके गुणज थे। इस भूमि खंड का प्रयोग राजस्थान तक सीमित नहीं था। तथापि इस काल में अन्य स्थानों की अपेक्षा पश्चिम भारत में इसके प्रयोग का प्रभाव अधिक था। उदाहर.. सौराष्ट्र में 84 गाँवों की भूमि इकाईयों में प्राचीनतम संदर्भ मिलते हैं। ये आठवीं शताब्दी के अंत में गुर्जर-प्रतिहारों के पास थीं।
राजस्थान तक इसका विस्तार सम्भवत: शासक वर्गों के मध्य राजनीतिक नियंत्रण और भूमि के विभाजन की प्रक्रिया को सरल करने के लिए चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक 84 गाँव के चौरसिया भूमिपति सरदारों के प्रसिद्ध वर्ग बन चके थे। ‘चौरसिया व्यवस्था’ सदैव राजपूतों की भूभागीय व्यवस्था से ही जुड़ी हुई नहीं थी वरन इसने उस प्रणाली को एक ‘सैद्धान्तिक ढाँचा’ प्रदान किया, जिसमें भू-इकाईयों की श्रेणीबद्धता तथा भू-इकाईयों और वंश के सदस्यों के मध्य सम्बन्धों को भली प्रकार तय किया जा सकता था।
( 2. सगा जीग्लर के अनुसार राजपूतों के लिए पहचान और संदर्भ की दूसरी प्राथमिक इकाई सगा थीं। जिनको वे अपनी बेटियाँ देते थे
यह सम्बन्ध निम्न प्रकार महत्त्वपूर्ण था।
(1. विवाहों में एक स्त्री को उसके पति के भाईबंध से जोड़ कर देखा जाता था।
(2. इसको सम्बन्ध और मैत्री स्थापित करने वाला भी माना जाता था। तथापि किसी स्त्री के पिता के भाईबंध उसे ‘बहन’ मानते रहे। लेवी स्ट्रॉस की क्लासिकीय अवधारणा में किसी माँ के भाई (मामा) और उसके बेटे के मध्य घनिष्ठ स्नेह के संकेत मिलते हैं।
महत्त्व जीग्लर ने भाईबंध और सगा के महत्त्व को प्रकट करते हए कहा है कि ‘पहचान और संदर्भ की प्रारम्भिक या प्राथमिक इकाई मुगलकाल में भी राजपूतों को परिभाषित करने में अपनी केन्द्रीयता के लिए निरंतर जारी थी। यह स्वभाविक घनिष्ठता की इकाईयाँ थीं। इनसे निम्न के अविलम्ब समझौते होते थे
(i) सहयोग (ii) सहारे और (iii) पारस्परिकता।
इस अर्थ में यह प्रायः राजपूतों की मूल प्रतिष्ठा स्थापित करती थी। यह आवश्यक नहीं था कि वे लोग उसके प्रति निष्ठावान थे पर किसी एक विशेष बंध के वर्चस्व वाले क्षेत्र में निष्ठा की जटिलताएँ इन समहों द्वारा उत्पन्न संरचनात्मक विशेषताओं की जटिलताओं को प्रकट करती हैं। जीग्लर के अनुसार इस अवधि में सगोत्र संस्था का प्रभाव जारी रहा। यह पश्चिम मारवाड़ के राठौर भाईबंध सम्बन्धों से स्पष्ट है। अपने एकरेखीय वंश परंपरा में भाइयों के मध्य भूमि तक पहुँच के अधिकार के साथ समानता का सिद्धान्त अस्तित्व में रहा।
भाइयों के मध्य पद और अधिकार को लेकर होने वाले आन्तरिक मतभेद भी कम रहे तथापि यह राठौर भाईबंध राजपूत शासकों या मुगलों से अपेक्षाकृत स्वतन्त्र थे। शेष स्थानों में “भाईबंध अत्यधिक स्वीकृत थे। उनकी सदस्यता में सम्पत्ति तथा शक्ति और अधिकार की स्थितियों के आधार पर अन्तर था।” इन भाईबन्धों की व्यवस्था पर राजशाही और सेवार्थी नामक दो अन्य संस्थाओं का भी प्रभाव पड़ा। ये संस्थाएँ अंतर्संबद्ध थीं। ये विभिन्न समष्टि भाईबंधों की तुलना में सगोत्रता तथा सम्बद्ध क्षेत्रों के संदर्भ में परिभाषित नहीं होती थी। इसके विपरीत ये निम्न के संदर्भ में परिभाषित की जाती थी
(i) श्रेणीबद्ध सम्बन्धों (ii) आवासी समूहों तथा (iii) लोगों में उच्च व्यक्ति या स्थानीय शासक (ठाकुर) के प्रति सामाजिक निष्ठा।
यही सम्बन्ध और निष्ठाएँ निम्न कार्य करती थीं
(i) राजपूत शासक के स्थानीय राज्य को परिभाषित करती थीं, और
(ii) राज्य के विस्तार को निर्धारित करती थीं।
जीग्लर ने विभिन्न वंशों तथा विभिन्न व्यक्तियों और वंशों के मध्य सम्बन्धों का वर्णन करने के लिए संरक्षक-आश्रित अवधारणा का प्रयोग कि है। भारतीय इतिहास में संरक्षक-आश्रित अवधारणा का प्रायः प्रयोग हुआ है। कतिपय सम्बन्धियों की आवश्यकता डेविड हार्डिमन के अध्ययन की भाँति अन्य अध्ययन यह स्पष्ट करते हैं कि यह अवधारणा यद्यपि स्थानीय यथार्थ को अच्छी तरह समझा सकती है तथापि इसका प्रयोग करने में कुछ सावधानी बरतनी आवश्यक है। उदाहरण के लिए, ‘विशाल भारतीय गुट’ जैसे अधि- सामान्यीकरण प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। उस स्थिति में हमें सतर्कतापूर्वक जीग्लर के दावे को स्वीकार करना चाहिए, जिसके अनुसार “शासक के अपने परिवार के बाहर, उनके आश्रित ही सत्ता की श्रेणियों और भूमि की प्राप्यता के मुख्य अधिकारी थे।”
जीग्लर ने इस अवधारणा के महत्त्व का उल्लेख करते हुए कहा है कि एक समूह के रूप में आश्रितों में राजा के वंश और भाईबन्ध के राजपूतों के अतिरिक्त विभिन्न वंशों और भाईबन्धों के अन्य राजपूत भी सम्मिलित थे।” स्रोतों में उन्हें सामान्यतः चाकर कहा गया है, जिसका अर्थ नौकर होता है पर मारवाड़ियों में यह ‘सैन्य अनुचर’ है अर्थात वह जिसने अपने हथियार स्वामी की सेवा में रख दिए हों। इसी शर्त पर गाँवों पर उसका अधिकार था अथवा वह जो अपने संरक्षक के निजी कामकाज हेतु परिवार के सदस्य की हैसियत से सम्मिलित कर लिया गया हो।” इसके अतिरिक्त “संरक्षकों और आश्रितों के श्रेणीबद्ध सम्बन्ध समस्त स्तरों के राजपूत समाज में चलन में थे।”
राजस्थान में आश्रितों की एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। कारण, सामाजिक संगठन में उन्होंने सगोत्रता से उच्च स्थान को प्राप्त कर लिया था। इसके अतिरिक्त इसने दो अन्य कार्य किए।
(i) भूमि के अधिकारों और सत्ता के पदों को नियन्त्रित किया।
(ii) वे जिन स्थानीय शासकों पर आश्रित और उनकी कृपादृष्टि तथा इनामों के लिए निर्भर रहते थे, उन्हें निग्रह-बल उपलब्ध कराया।
इस बल को वह अपने स्थानीय श्रेणीबद्ध संगठन को सुदृढ़ करने में लगा सकता था। विकास ज़ीग्लर के अनुसार, “मुगलकाल के पूर्व से ही राजस्थान में सेवार्थी तथा प्रशिक्षु संस्था विद्यमान थी तथापि संगठन के रूप में सगोत्रता . कारण सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में इनका तीव्र गति से विकास हुआ।” इन संस्थाओं के विकास का कारण मुगलों की अप्रत्यक्ष शासन नीति इस अप्रत्यक्ष शासन के लिए उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार अपने पास रखता था।
(i) मुगल शासन राजस्थान में शासन के लिए उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार अपने पास रखता था।
(ii) इसके बदले में वह हथियार और राजस्थान के भीतर और बाहर अन्य स्थानों पर पैतृक भूमि (वतन-जागीर) की जागीरों के रूप में संसाधन उपलब्ध कराता था।
इन्हीं संसाधनों के कारण स्थानीय शासक निम्न कार्य करते थे
(i) सत्ता के अपने क्षेत्र सुदृढ़ करते थे।
(ii) प्रशासन को केन्दित करते थे।
उपर्युक्त परिवर्तनों पर आधारित इस काल में प्रारम्भिक 17वीं शताब्दी में “पहले वास्तविक राजपूत राज्य उस अर्थ में पाये जाते हैं कि वहाँ परिभाषित और संस्थागत केन्द्रित सत्ता थी। इस सत्ता ने उपयुक्त प्रतिबंधों और प्रवर्तकों के साथ नियम निर्धारित किए। इसी समय मुगल शासकों ने स्थानीय शासकों को भूमि के अधिकारों के दृष्टिगत स्थानीय श्रेणीबद्ध प्रणाली में पुरस्कारों और सम्मानों के प्राथमिक स्रोत के लिए अधिक व्यापक अधिकार प्रदान किए।
जीग्लर का दावा है कि “स्थानीय शासकों ने उन स्थानों पर व्यापक नियंत्रण स्थापित कर लिया, जिन पर उन्हीं के वर्ग के लोगों ने परंपरागत तौर पर शासन किया था तत्पश्चात् उन्होंने इन संस्थानों पर सगोत्रता और जन्म से सम्बद्ध प्रथागत अधिकारों से निर्मित सम्बन्धों को सेवा और विनिमय पर आधारित सम्बन्धों में परिवर्तन करने का निश्चय किया। ख्यातों के अनुसार बात का विरोध हुआ। इस विरोध में उस आधार को चुनौती दी गयी, जिसके हथियारबंद युद्ध करते थे।
यह संघर्ष निम्न दो कार्य करते थे
(i) प्रथम, वंश पर आधारित सम्बन्धों और उभरते हुए चाकर (संरक्षक-आश्रित) सम्बन्धों के मध्य राजपूत संगठनों में हो रहे परिवर्तनों को प्रकट करते थे
(ii) भाईबंधों की भावना, समानता के मूल्य तथा विरासत के अधिकार और जन्मभूमि पर प्रभुत्व के भाव उत्पन्न करते थे। ज़ीग्लर के अनुसार
“मुगलकाल में इन भावनाओं तथा मूल्यों ने एक प्रभाव उत्पन्न किया, जिसे समय-समय पर उभारा गया। कुछ विशेष भूमियों पर अधिकार वारदा भिन्न-भिन्न व्याख्याओं ने स्थानीय तौर पर तथा साथ ही मुगल सत्ता के प्रति राजपूतों की निष्ठा के संदर्भ में भी भूमिका निभाई।” नौकरशाही इस काल में भूमि से राजपूतों के परिवर्तित संबंधों का एक अन्य पक्ष इन सम्बन्धों की बढ़ती हुई नौकरशाही था। प्रशासनिक प्रणालियाँ ने जाति का पुनर्गठन किया। उनका उद्देश्य अपने और उपनिवेशित एशियाई पारम्परिक प्रजा के मध्य एक अन्तर तथा विभाजन रेखा खींचना था। अर्थात अंग्रेजी उपनिवेशवाद ने भारतीय परम्परा की पहचान और प्रस्तुति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। औपनिवेशिक आधुनिकता ने तथाकथित भारतीय परम्पराओं का अवमूलन कर दिया। इसने उन्हें परिवर्तित भी कर दिया।
व्यक्तिगत क्षेत्र को नियंत्रित तथा उसमें मध्यस्थता करने वाले भारतीय आध्यात्मिक सार-तत्त्व के रूप में जाति का पुनर्गठन किया गया। जातिग्रस्त भारतीय समाज यूरोपीय नागरिक समाज से भिन्न था। कारण, जाति व्यक्तिवाद के आधारभत सिद्धान्तों और एक राष्ट की सामहिक पहचान के विरुद्ध थी। इसे पूर्व-औपनिवेशिक पहचान और निष्ठा-बोध की प्रमुखता को सरलतापूर्वक औपनिवेशिक आधुनिक प्रशासकों के शासन को उचित ठहराने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता था। इस प्रकार, डर्क्स के अनुसार भारत के औपनिवेशिक शासन ने ही ‘सामाजिक भिन्नता और सम्मान’ को पूर्णतया जाति के सन्दर्भ में संगठित किया।
ब्राह्मणों और ब्राह्मणी व्यवस्था की उपेक्षा करने के प्रयास समकालीन भारतीय सामाजिक जीवन में भी अत्यधिक सुपरिचित ऐतिहासिक अभिलेखों और जातिगत पहचानों के आग्रह के अनुरूप नहीं हैं। यह निश्चित है कि जातिगत शब्द और सिद्धान्त पूर्व- औपनिवेशिक काल में सर्वत्र प्रयुक्त नहीं किए जाते थे अपनी विभिन्न अभिव्यक्तियों और रूपों में जाति एक अपरिवर्तनीय सत्ता नहीं थी, पर निम्नतया जाति को पूर्व-औपनिवेशिक काल की धरोहर की ओर इंगित करते हैं -
(i) वेदों और महान महाकाव्य का प्रारम्भ, (ii) मनु और अन्य धर्मशास्त्र, (iii) पुराण, (iv) कर्मकाण्ड, (v) जाति सिद्धान्तों के अनुसार दोषियों को दण्डित करने वाली पेशवा शासकों की दण्ड व्यवस्था तथा (vi) समस्त युगों के ब्राह्मण विरोधी ‘सुधारकों’ की निन्दाएँ।
नि:संदेह पूर्व-औपनिवेशिक काल में निम्न प्रकार के गैर- जातिगत सम्बन्ध और पहचानें विद्यमान थी
(i) वैवाहिक गठबन्धन,
(ii) व्यापार,
(iii) राजकीय सेवा तथा सम्बन्ध,
(iv) बस्तियों के जाल।
तथापि जाति भी पहचान का एक विशिष्ट निशान और एक व्यापक सामाजिक रूप था। जाति का गठन केवल अंग्रेज शासकों द्वारा भारतीयों की हीन स्थिति दिखाने और उन्हें दास बनाने के लिए नहीं किया गया था। इससे उपनिवेशकों का स्वार्थ सिद्ध होता था। कारण, ‘ब्राह्मणी अत्याचार’ की निन्दा करके औपनिवेशिक प्रशासन ‘पिछड़े लोगों’ को ‘सभ्य बनाने’ और ‘सुधारने’ की अपनी संहिताओं को सरलतापूर्वक उचित ठहरा सकता था। जातिगत श्रेणीबद्धता को सशक्त करके उसका प्रयोग अराजकता के विरुद्ध प्राचीर के रूप में किया जा सकता था।
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