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प्रेमचंद के नाटक

 उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त प्रेमचन्द ने तीन नाटक भी लिखे। यह एक रोचक तथ्य है कि प्रेमचन्द के लेखन का आरम्भ एक नाटक से हुआ तब प्रेमचन्द की उम्र लगभग 13 वर्ष की थी। उर्दू अफसाने पढ़ने का चस्का तो लग ही चुका था, रामलीला देखने का शौक भी कम न था। प्रेमचन्द का पहला नाटक संग्राम था जो 1923 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद उनके दो और नाटक प्रकाशित हुए कर्बला (1924) और प्रेम की बेदी (1933) संग्राम गाँव में किसान और जमीन्दार के सम्बन्धों पर आधारित एक सामान्य कोटि का नाटक है।

जमीन्दार ठाकुर मचल सिंह गाँव के एक किसान हलधर की पत्नी राजेश्वरी को देखकर उस पर आसक्त हो जाता है और उसे हस्तगत रने के लिए उसके पति हलधर को एक षड्यन्त्र के जरिए जेल भिजवा देता है। इस पर राजेश्वरी करने. प्रतिशोध की भावना से भर कर जमीन्दार को मटियामेट कर देने का संकल्प करती है। वह जमीन्दार का प्रस्ताव मान लेती है और उसके द्वारा उपलब्ध करायी हवेली पर यह रहस्य अधिक दिनों तक गोपनीय नहीं रह अधिका रह पाता और संबल का भाई भी राजेश्वरी का आणिक हो घर अपने ग्रामीण भाइयों पर सिंह अपने भाई की हत्या का मन्त्र पत्नी दोनों से बदला लेने के जाता है।

इस पर कीट कर आ जाता है और जमीन्दार तथा लिए डाकू बन जाता है। वेन सिंह अपराध हो से अशान्त होकर हत्या का आरन करता है प्रात्न सबल सिंह भी अपने भाई की मृत्यु का समाचार करने की कोशिश करता है। हर दोनों की प्राणरक्षा करता है। सबल सिंह की पत्नी हत्या कर लेती है और सबल सिंह जीवन उदासीन होकर तीर्थयात्रा के लिए निकल जाता है। हलधर को भी अपनी पत्नी की सच्चरित्रता का प्रमाण मिल जाता है और दोनों साथ रहने लगते हैं। सबल सिंह के तीर्थयात्रा पर निकल जाने के बाद जमीन्दारी प्रथा की समाप्ति और जमीन पर किसानों के स्वामित्य की घोष समाप्ति होती है।

नाटक की सुणामय संग्राम में घटनाओं की बहुलता, संयोगों की भरमार और क्या को भगमाना मोड़ देने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल है। इस कारण इसमें टकीय तनाव का है। औपनिवेशिक भारतीय किसान के उद्धार, की अभिलक्षित सोच नाटक को अविश्वसनीय भी बनाती है। प्रेमाश्रम की तरह जमीन्दारों के हृदय- पर प्रेमचन्द का विश्वास संग्राम में भी परिलक्षित होता है। य-परिवर्तन पर कर्बला की भाषा, प्रेमचन्द के ही शब्दों में सरासर उर्दू श्री, यद्यपि यह नागरी लिपि में लिखी गयी थी।

परिणामतः इसे न तो हिन्दी पाठकों ने अधिक महत्त्व दिया न उर्दू पाठकों ने कर्मता की रचना रंगमंच को ध्यान में रख कर नहीं की गयी थी और मुस्लिम समाज के नाटक के प्रति रवैये को देखते हुए इसके प्रदर्शन की सम्भावना भी नगण्य थी। प्रेमचन्द ने दयानरायन निगम के लिए पत्र में स्वयं ही स्वीकार किया था कि “यह ग्रामा महज पढ़ने के लिए लिखा गया था।”

प्रेम की वेदी (1933) का केन्द्रीय कथ्य प्रेम को संसार के सभी सम्बन्धों से श्रेष्ठ सिद्ध करना है। इसकी नायिका मिस जेनी नाटक के अन्त में कहती है “आज मैं सारे ढकोसलों को इन सारे बनावटी बन्नों को प्रेम की वेदी पर अर्पण करती हैं। यही ईश्वर का धर्म है धन का धर्म विद्या का धर्म, राष्ट्र का धर्म संघर्ष में हो सकता है खुदा का धर्म प्रेम है और मैं इसी धर्म को स्वीकार करती है। शेष धोसा है।”

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