1983 में, केन्द्र सरकार ने सरकारिया आयोग का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति आर. एस. सरकारिया थें इसका मुख्य उद्देश्य केन्द्र -राज्य संबंधों पर संविधान के प्रावधानों की समीक्षा करना था। संघ-राज्य संबंधों के मुद्दों पर विभिन्न राज्य सरकारों से चर्चा के बाद आयोग ने अपनी रिपोर्ट अक्टूबर 27. 1987 को सौंप दी थी। सरकारिया आयोग ने एक मजबूत केन्द्र का समर्थन किया जो कि एक मात्र राष्ट्रीय एकता के लिये आवश्यक है।
इसने यह सिफारिश की कि अवशिष्ट शक्तियाँ संसद के पास रहनी चाहिए ये जिसमें मुख्य तौर पर करों से संबंधित विषय शामिल है जबकि अन्य विषय करों के अतिरिक्त समवर्ती सूची में रखे जाने चाहिये। लेकिन इसने संघीय सरकार के अंदर केन्द्रियकरण की शक्तियों का समर्थन नहीं किया था। इस आयोग ने एक स्थायी तौर पर अनुच्छेद 263 के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय परिषद की स्थापना की सिफारिश की थी, ताकि यह केन्द्र एवं राज्यों से संबंधित समस्याओं के बारे में चर्चा कर सके। इसने शक्तियों के विभाजन के लिए संतुलन बनाने की कोशिश की थी। इसने यह सुझाव दिया कि जब भी।
केन्द्र सरकार समवर्ती सूची में शामिल किसी भी विषय पर कानून बनाने का विचार करती है तो उसे राज्य सरकारों से पूर्व अनुमति लेनी चाहिये तथा इसे अंतर्राज्जीय-परिषद में भी सामूहिक रूप से चर्चा करनी चाहिये, अनुच्छेद 268 के तहत् । सरकारिया आयोग रिपोर्ट की सिफारिशों के अनुसार राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 25 मई 1990 को राष्ट्रपति के अध्यादेश से अन्तर्राज्यीय-परिषद के गठन की स्थापना की। इस परिषद में प्रधानमंत्री, सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्र-शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और केन्द्र सरकार के छ: केबिनेट मंत्री शामिल हैं।
इस परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री है, तथा उनकी अनुपस्थिति में कोई भी केबिनेट मंत्री जिसे प्रधानमंत्री ने नियुक्ति किया हो। यह परिषद मुद्दों के उपर अपने दिशा निर्देश तय करती है और चर्चा के लिये परिषद में लाती है। इसकी मीटिंग वर्ष में तीन बार बुलाने का भी प्रावधान है। इसने यह भी सिफारिश की कि, किसी उच्च कोटी के व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिये तथा अनुच्छेद 356 के तहत् राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत रखना चाहिये।
इसने यह भी सिफारिश की, कि करों एवं शुल्कों के बीच साध्यता होनी चाहिये, निगम कर का केन्द्र एवं राज्यों के बीच बंटवारा होना चाहिये, तथा अंतर राज्य जल विवाद के लिये एक ट्रिब्यूनल का गठन किया जाना चाहिये। ट्रिब्यूनल का गठन आवेदन के मिलने के एक वर्ष के अंदर हो जाना चाहिये ताकि यह पांच वर्षों में प्रभावी रूप से कार्य कर सके।
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