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पूर्वोत्तर भारत में स्वायत्तता आंदोलनों के मुख्य लक्षणों की पहचान कीजिए।

स्वायत्ता आंदोलन किसी क्षेत्र के लोगों का सामूहिक प्रक्रिर्या है जो कि संघीय इकाइयों केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय शासन के पुनर्गठन की बात करता है। ताकि लोग स्वयं को अपने कार्यो में व्यवस्त रख सकें और स्वायत्ता का लाभ उठा सकें। स्वायत्ता कई प्रकार की होती है, सांस्कृतिक, जातीय, आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि। जो क्षेत्र स्वायत्ता की माँग उठा रहे हैं उनमें इन मुद्दों पर कानून बनाने की जरूरत होती है।

संघीय ढाँचे में स्वायत्ता की अवधारणा के कई अर्थ हैं: किसी राज्य से अलग राज्य बनाना, या संघीय संबंधों को पुनः व्यवस्थित करना इत्यादि । स्वायत्ता को प्रायः आत्म-निर्णय के रूप में देखा जाता है। हालांकि स्वनिणर्य और स्वायत्ता कभी-कभी एक दूसरे के प्रयास के रूप में इस्तेमाल की जाती है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में उनके अलग-अलग माने है। आत्म-निर्णय अक्सर मौजूदा संप्रभु राज्य से बाहर एक संप्रभु की स्थापना को संदर्भित करता है। इसे अलगाव के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें एक देश का एक क्षेत्र अलग-अलग और प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बनाना चाहता है। भारत का संविधान किसी भी क्षेत्र को प्रभुसत्ता संपन्न राज्य की स्थापना को मान्यता नहीं देता हैं।

किसी राज्य के क्षेत्र में क्षेत्र और राज्य के बीच संघीय संबंधों की पुनर्व्यवस्था के लिये जो आंदोलन चलाया जो रहा हो, उसे स्वायत्ता आंदोलन कहा जाता है। स्वायत्ता आंदोलन किसी क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक मामलों में अपने स्वायत्ता प्राप्त करने के लिए सामूहिक आंदोलन होते हैं। ऐसी स्वायत्ता का प्रयास ऐसे राज्य और क्षेत्रों के बीच संघीय इकाइयों के बीच संबंधों के पुनर्विन्यास के लिए किया जाता है, जो स्वायत्ता चाहते हैं। जो क्षेत्र स्वायत्ता चाहते हैं उनकी स्वायत्ता की माँग हमेशा प्राथमिक माँग नहीं होती है।कई मामलों में उनकी प्राथमिकता अलग राज्य बनाने की माँग होती है लेकिन आंदोलन के बढ़ते क्रम में नये निर्माण की माँग समाप्त हो जाती है और ऐसे आन्दोलनों को प्राथमिकता एक स्वायत्ता प्राप्त करने में बदल जाती है।

भारत में स्वायत्ता के आंदोलनों के प्रमुख उदाहरणों में बोडोलैण्ड, आंदोलन और कार्बी, डिमासा काचारी आंदोलन शामिल हैं। असम राज्य के अंतर्गत मेघालय का एक स्वायत्त राज्य के रूप में मेघालय का (1971-72) राज्य के अंदर राज्य’ बनना एक अभूतपूर्व उदाहरण था। यद्यपि, खासी, जेतिया और गारो पहाड़ी इलाकों के लोगों ने अलग राज्य की माँग की थी लेकिन केन्द्र सरकार ने अलग राज्य के बजाय (1971-72 में) स्वायत्त राज्य प्रदान किया और 1972 में स्वायत्त राज्य को अलग राज्य मेघालय में तब्दील कर दिया गया था। स्वायत्ता आंदोलन की शुरुआत सामान्यतः मुखर लोगों के द्वारा की जाती है। इसका प्रमुख कारण था उनके क्षेत्र में लोग उस समय की सरकार के खिलाफ थे।

स्वायत्ता आंदोलन के पीछे मुख्य कारण किसी क्षेत्र के लोगों का यह मानना होता है कि उनके खिलाफ सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आधार पर दूसरे क्षेत्रों या सरकार द्वारा भेदभाव किया जाता है। उनका मानना होता है कि स्वायत्ता मिलने के बाद उनके साथ हो रहे भेदभाव को दूर किया जा सकता है और उनका विकास किया जा सकता है।

1) ये उन क्षेत्रों में उठाये जाते हैं जहाँ पर लोगों के साथ भेदभाव होता है। ये भेदभाव आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक तौर पर संसाधनयुक्त क्षेत्रों द्वारा किया जाता है।

2) इन मांगों को समाज के मुखर तबकों द्वारा उठाया जाता है जैसे मध्यम वर्ग, छात्र, नागरिक समाज के संगठन एवं राजनैतिक दल]

3) स्वायत्ता की माँग करने वालों का आरोप है कि उनका क्षेत्र “आंतरिक उपनिवेश” बन गया है, विशेषकर विकसित क्षेत्रों का उपनिवेश’ उनके प्राकृतिक संसाधनों का शोषण बाहरी लोगों द्वारा दिया जाता है तथा वे उन्हें अपने संसाधनों के प्रयोग बदले कोई भरना रोयल्टी भी नहीं मिलती।

4) उनके क्षेत्र को राज्य के राजनीतिक संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है तथा उनकी सहमति के बिना निर्माण लिये जाते हैं।

5) उनकी भाषा एवं संस्कृति को उचित पहचान नहीं दी जाती हैं तथा कई मामलों में उनके ऊपर भाषा थोपी जाती है।

6) स्वायत्ता आंदोलनों का कुछ राजनैतिक संदर्भ भी होता है।

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