नवपाषाणयुगीन बस्तियों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। नवपाषाणयुगीन एक महत्त्वपूर्ण स्थल पाकिस्तान के बलूचिस्तान का मेहरगढ़ हैं। बलूचिस्तान के ‘रोटी की टोकरी’ के नाम से प्रसिद्ध, उपजाऊ काची का मैदान महत्त्वपूर्ण है। यह स्थल बोलन नदी के तट पर है और बोलन दर्रे की तलहटी में स्थित है। यह उत्तरी और पश्चिमी घाटियों को सिंधु के मैदान से जोड़ने वाला एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है।
मेहरगढ़ में निवास का लंबा इतिहास रहा है। पुरातत्त्वेत्ताओं ने इसमें आठ सांस्कृतिक स्तर दर्ज किए हैं, इसमें पहले दो, कालाविधि I और II नवपाषाणयुगीन
(i) कालाविधि I मृभांड रहित है।
(ii) इस स्थल में मृभांड कालाविधि-II में दिखाई देते हैं।
प्राचीनतम बस्ती लगभग 7000 वर्ष ई.पू. की है। इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार हैं
(1. निवास के प्रारंभ से मिट्टी की ईंटों का प्रयोग 2-4 छोटे-छोटे आयताकार कमरों के समूहों को बनाने के लिए होता था।
(2. ये भट्टियों से जुड़े होते थे।
(3. यहाँ हड्डी और पत्थर के औजार बनाने के साक्ष्य मिलते हैं।
(4. यहाँ एक नई विशेषता दिखाई देती है। लकड़ी के हत्थे अथवा हड्डी पर राल में जमाए गए उनके फलक इनका प्रयोग पौधों की कटाई के लिए हंसिया के रूप में होता था।
(5. कालाविधि-1 में शवाधानों में मृतकों के दफन के विषय में लोगों के विश्वासों का संकेत प्राप्त होता है। मृतकों के साथ समुद्री कर्पर के आभूषण, खाद्य टोकरियाँ भी दफनायी जाती थीं।
(6. कालाविधि-II में अनेक कक्षों वाले ढाँचों का निर्माण होता था। कुछ ढाँचों में कोठरियों की दो कतारें थीं। ये ढाँचे गोदामों अथवा खत्तों के रूप में प्रयुक्त होते थे।
मेहरगढ़ मेहरगढ़ नवपाषाण काल के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्थल है :
(i) यहाँ पौधों और पशुओं को पालतू बनाने के साक्ष्य मिलते हैं।
(ii) पौधों के अवशेष, विशेषकर ईंटों पर छाबों के रूप में और जले हुए नमूनों के रूप में मिलते हैं।
(iii) अधिकतर ये गेहूँ और जौ के थे।
(iv) मृद्भांड सहित नवपाषाणकाल के आधे से भी अधिक जानवर जंगली थे।
(v) सबसे अधिक संख्या छोटे सुदंर कुरंग के अतिरिक्त की तथा हिरणों, नीलगाय, ओनेगर (जंगली गधे की एक जाति) और जंगली सूअर आदि की थी।
(vi) पालतू जानवरों में सबसे अधिक संख्या बकरियों की थी। उसके बाद भेड़ और मवेशी थे।
(vii) कालविधि-1 के अंत तक कुरंग लगभग लुप्त दिखाई देते हैं। अन्य जंगली जातियाँ कुछ संख्या में मिलती हैं पालतू पशुओं में भेड़-बकरियों की संख्या आधे से अधिक मिलती है।
पालतू प्रजातियों के साक्ष्य से नवपाषाण काल में पशुपालन का महत्त्व स्पष्ट होता है। इस सम्बन्ध में कतिपय अनुमान निम्न प्रकार है -
(1. घर से कम और अधिक दूरियों पर चारागाही शिविर स्थल रहे होंगे।
(2. इन शिविर स्थलों की पुरातात्त्विक खोज उतनी सरल नहीं होगी, जितनी एक स्थायी गाँव की, क्योंकि एक से दूसरी जगह पाने वाले अपने साथ अधिक कुछ नहीं ले जाते।
(3. क्योंकि बसावट बहुत कम समय के लिए होती थी, उसके निक्षेप भी कम मिलेंगे।
(4. इस तरह के स्थलों की खोज के लिए आवश्यक गहन खोज-बीन विभिन्न कारणों से संभव नहीं रही।
कश्मीर में भी नवपाषाणयुगीन स्थल मिले हैं, वहाँ एक महत्त्वपूर्ण स्थल बुर्जाहोम का उत्खनन हुआ था। बुर्जाहोम में प्रारंभिक यहाँ प्रमुख विशेषतायें निम्न प्रकार हैं -
(1. नवपाषाणयुगीन (लगभग 3,000 वर्ष ई.पू.) आवास विभिन्न गहराई के गड्ढों के आकार में थे।
(2. गड्ढों के निकटवर्ती छेदों का प्रयोग डंडे अथवा भुर्ज के बने छप्पर खड़े करने के लिए किया जाता रहा होगा, जिसके जले टुकड़े पाए गए हैं।
(3. खाना पकाने का कार्य गड्ढों के अंदर और बाहर दोनों ओर होता होगा जैसा कि चूल्हों के साक्ष्य से स्पष्ट होता है।
(4. गड्ढों का प्रयोग मख्य तौर पर मौसम में आवस कल होता था
(5. नवपाषाणयुगीन घिसे पत्थर की कुल्हाडियों के अतिरिक्त, हड्डियों के अतिरिक्त हड्डियों के औजारों का भी प्रयोग होता था।
(6. हाथ से बने मिट्टी के अनगढ बर्तन भी मिले हैं।
परवर्ती नवपाषाणकाल की (जो 1700 वर्ष ई.पू. तक चला) की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
(1. बुर्जाहोम में गड्ढ़ों का प्रयोग आवास के रूप में बंद हो गया।
(2. मिट्टी और कच्ची ईंटों के ढाँचे बनाए गए।
(3. हाथ से बने मिट्टी के बर्तनों और नवपाषाणयुगीन औजारों का प्रयोग जारी रहा।
(4. बाहरी वाषाग्र (तीर का आगे का नुकीला भाग)
(5. चाक से बने लाल मिट्टी के बर्तन ।
(6. ऐगेट तथा कॉनेलियन जैसे पत्थरों के 950 मानक
(7. कुछ चित्रित भांडे
(8. दक्षिा में स्थित बृहत्तर सिंधु घाटी की परिपक्व हड्प्पाकालीन बस्तियों के साथ संपर्क के संकेत
(9. पशु शवाधान (जंगली कुत्तों के), जो मनुष्यों के शवाधानों के साथ मिले हैं।
(10. शवाधानों में और बस्ती के अन्य भागों में लाल गेरू का प्रयोग।
पुरापाषाण और मध्यपाषाणकाल के साथ संपर्क के द्योतक नवपाषाणयुगीन (4,000 और 2500 वर्ष ई.पू. के बीच के) गाँवों का एक झुंड विंध्य क्षेत्र में विशेष रूप से गंगा के मैदानों और बेलान और सोन घाटियों में पाया गया है। इस स्थल की प्रमुख विशेषताएँ हैं -
(1. विभिन्न किस्मों के हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन
(2. घिसे पत्थर की कुल्हाड़ियाँ
(3. छोटी चौकोर और चौरस, घिसे पत्थर की कुल्हाड़ियाँ
(4. डोली की छाप वाले मिट्टी के बर्तन का।
(5. चावल का घरेलूकरण अर्थात् क्षेत्र को वातावरण के अनुकूल बनाने वाला भारत में पहला क्षेत्र था।
पशुपालन पर निर्भरता भी दक्षिण भारतीय नवपाषणकाल की एक विशेषता रही होगी। इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य निम्न प्रकार मिले हैं :
(1. अलग दिखाई देने वाले राख के ढेर (जो प्राचीन समय में बड़े पैमाने पर गोबर जलाने के द्योतक हैं)।
(2. आवासों से जुड़े राख के ढेर।
(3. अकेले आवास हैं।
राख के ढेर अथवा पशुओं के बाड़े दक्षिण के प्राचीनतम नवपाषाणयुगीन अवशेष थे, जो लगभग 2900-2400 वर्ष ई.पू. के थे। ऐसे स्थलों के उदाहरण आधुनिक कर्नाटक में स्थित डटनूर, कुपगल, कोडेकल और पल्लाकेय थे। ये बाड़े ताड़ वृक्षों के दो लगातार घेरों में थे, जिनमें से आन्तरिक घेरा सम्भवतः पशुओं को बंद करने के लिए और बाहरी घेरा पशुपालकों के लिए था। जो राख के ढेर अकेले थे अर्थात् जहाँ स्थायी आवास स्थल नहीं थे, वे पशुचारण शिविर स्थल रहे होंगे। उनके जंगलों के मध्य स्थित होने से इस व्याख्या की पुष्टि होती है। आवास स्थलों का समय प्राय: 2000 वर्ष ई.पू. का है।
मेहरगढ की भाँति भरण-पोषण की रणनीतियों में पशुपालन और अनाज सम्भवत रोगी का संग्रह अथवा खेती सम्मिलित रही होगी। लगभग 2000 वर्ष पुरातत्त्व के स्तर पर रागी पाई गई है। यह खाया जाने वाला मुख्यत्त अन्न रहा होगा, कारण यह है कि यह क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बाजरे व खेती के लिए अनुकूल है।
दक्षिण भारतीय नवपाषाणयुगीन स्थलों में भौतिक स्तर पर उसी प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं, जिस प्रकार के साक्ष्य उपमहाद्वीप के अन्य भागों में। ये निम्न प्रकार हैं ---
(i) पत्थर की हस्तनिर्मित चक्कियाँ
(ii) हथौड़े के पत्थर
(iii) गोफन की गोलियाँ.
(iv) सूक्ष्म कण वाले पत्थर
(v) मिट्टी के बर्तन
सम्भव है कि छोटे पैमाने पर सोने का प्रारंभिक खनन इसी काल से रहा होगा। प्रारंभिक और परिपक्व हड्प्पा संस्कृतियों के साथ दक्षिण भारतीय नवपाए चरण की समकालीनता सोने के खनन का एक कारण हो सकता है।
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