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मूल संरचना (Basic Structure) के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

मूलभूत आधार सिद्धांत के अनुसार संसद किसी भी संशोधन के द्वारा संविधान के मूलभूत ढाँचे को नहीं बदल सकती। इसमें मूल आधिकार, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता तथा संसदीय लोकतंत्र शामिल है। यह सिद्धांत 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के बाद अस्तित्व में आया था। इसे हम केशवानंद भारती विरूद्ध केरल राज्य के केस के रूप में जानते है। इस केस में मठाधीश केशवानंद भारती ने सर्वोच्च न्यायालय में केरल सरकार के एक निर्णय को चुनौती दी थी। इसके अंदर केरल सरकार ने भूमि सुधार के तहत् निजी जमीन को अधिग्रहण कर लिया था।

इस निर्णय के विरूद्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि संविधान के मूल सिद्धांत अर्थात् मूल अधिकारों को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि निजी संपत्ति का अधिकार संविधान का मूल ढाँचा नहीं है। इसके बाद 1978 में 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से हटा दिया गया। जैसा कि मूल अधिकारों को लागू करना कोर्ट की जिम्मेदारी है इसलिए कोर्ट ही इन्हें विशेष रूप से संरक्षित रखती है। जैसा कि हम ऊपर पढ़ चुके हैं कोर्ट मूल अधिकारों की रक्षा के लिये रिट जारी करता है। केशवानंद भारती केस से पूर्व भी कोर्ट ने गोलकनाथ विरुद्ध पंजाब राज्य मामले में 1967 में भी मूल अधिकारों की रक्षा की थी।

संविधान के अनुसार राज्य सभा एक उच्च सदन है। यह राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। राज्य सभा के कुल सदस्यों की संख्या 250 है जिसमें 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करता है। ये 12 सदस्य साहित्य कला, विज्ञान एवं समाज सेवा में अनुभव प्राप्त व्यक्ति होते है। बाकि के सदस्य राज्यों की विधानसभा द्वारा चुनकर भेजे जाते है। इनका चुनाव राज्य की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। लोक सभा के विपरीत राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से होता है। राज्य सभा में प्रतिनिधित्व एक समान नहीं है। यह पूरी तरह से राज्य की जनसंख्या पर निर्भर है। अर्थात् जिस राज्य की जनसंख्या अधिक है उस राज्य का प्रतिनिधित्व अन्य छोटे राज्यों की तुलना में अधिक होता है।

राज्य सभा के सदस्यों की संख्या एक से लेकर अधिकतम 34 है। यह राज्यवार जनसंख्या पर निर्भर है। नागालैण्ड से जहां सिर्फ एक ही सदस्य है वहीं उत्तर प्रदेश से 34 सदस्य है। क्योंकि दोनों राज्यों की जनसंख्या में काफी अंतर है। राज्य सभा का चरित्र एक प्रकार से संघवाद का प्रतीक है। लोक सभा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मामलों की सूचना प्राप्त करने का राज्य सभा को अधिकार है। लेकिन राज्य सभा को मंत्रीपरिषद के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर वोट देने का अधिकार नहीं है। धन विधेयक जैसे मामलों में भी राज्य सभा को अधिक शक्ति नहीं है। फिर भी संविधान ने राज्य सभा को कुछ विशेष शक्तियाँ प्रदान की है। राज्यों का प्रमुख प्रतिनिधित्व होने के कारण, राज्य सभा को दो प्रमुख शक्तियाँ प्राप्त है।

अनुच्छेद 249 के अंतर्गत राज्य सभा कोई भी प्रस्ताव पारित कर सकती है। संसद किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर कानून बना सकती है राज्य सभा राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार रखती है। राज्य सभा की दूसरी शक्ति है अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना करना। इस प्रकार राज्य सभा भारतीय विधायिका का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह उसी तरह से है जिस तरह इंग्लैण्ड में लॉर्ड सभा है। यह एक महत्वपूर्ण सदन है जिसके सभी सदस्य सम्माननीय होते है। . राज्य सभा एक स्थायी सदन है। इसे कभी भंग नहीं किया जा सकता है। इसके एक तिहाई सदस्य दो वर्ष के बाद अवकाश ग्रहण करते है।

खाली पदों पर तुरंत चुनाव करवाये जाते है। राज्य सभा के सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। लेकिन वह समय पूर्व भी अपने पद से इस्तीफा दे सकता है। या उसे किसी कारणवश अयोग्य भी घोषित किया जा सकता है। 1975 में इंदिरा गाँधी विरूद्ध राज नारायण केस में सर्वोच्च न्यायालय ने मूल आधार सिद्धांत को प्रयोग किया था उसके बाद 39वाँ संविधान संशोधन को भी हटा दिया गया जिसमें यह कहा गया कि राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा लोक सभा अध्यक्ष के चुनाव को न्यायिक समीक्षा की परिधि से दूर रखा जाय।

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