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कृष्ण भक्ति काव्य के शिल्प विधान पर प्रकाश डालिए।

 कृष्ण भक्ति काव्य का शिल्प-विधान विविध रूपों में है। इस धारा के कवियों की शैली अपने वैविध्यपूर्णता के कारण रोचक और आकर्षक है। समग्र रूप से देखकर यह कहा जा सकता है कि कृष्ण भक्तिकाव्य की शैली उस गीतिकाव्य की सृष्टि है, जो आख्यान अर्थात् शास्त्रीय गायन और लोक गायन पर आधारित है। वह गीति शैली संगीतात्मकता नामक वैशिष्ट्य से परिपूर्ण और सम्पन्न है। यह गीति शैली शिष्ट, मर्यादित लोकरंजित और भाववर्धक है। गेयता इसका सराहनीय गुण है। इसमें लीला पदों की अधिकता है, जहाँ माधुर्य भाव की प्रधानता की सहायता से भाव-संचार हो सका है।

भाषा-कृष्ण-काव्य की भाषा लोक प्रचलित ब्रज भाषा है। कृष्ण-भक्ति साहित्य में प्रयुक्त होने के कारण यह भाषा तत्कालीन समस्त उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा का गौरव पा सकी। इस भाषा का प्रभाव बंगला भाषा पर भी पड़ा। समस्त रीति काल में और भारतेन्दु काल में भी इस भाषा की प्रधानता रही। इस काव्य की भाषा में संगीतात्मकता तथा कोमलता है। कृष्ण-भक्त कवियों की भाषा अलंकारों, बिम्बों तथा प्रतीकों की दृष्टि से भी समृद्ध है। भाषा में चित्रात्मकता का सौन्दर्य देखते ही बनता है। अलंकारों के प्रयोग से भाषा का सौन्दर्य जगमगा उठा है। छन्दों की दृष्टि से अधिकतर गीति-पदों का प्रयोग हुआ है।

कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, गीतिका, हरिगीतिका आदि छन्द भी इस काव्य – में प्राप्त हो जाते हैं। अन्त में डॉ० चातक के शब्दों में कहा जा सकता है कि कृष्ण भक्ति काव्य आनन्द और उल्लास का काव्य है। इसमें सर्वत्र ब्रज-र व्याप्त है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवदी के शब्दों में, ‘मनुष्य की रसिकता को उबुद्ध करता है, उसकी अन्तर्निहित अनुराग लालसा को | ऊर्ध्वमुखी करता है और उसे निरन्तर रससिक्त बनाता रहता है।”

कृषि चरागाही संस्कृति कृष्ण भक्ति काव्य को मुख्य रूप से चरागाही संस्कृति का दर्पण | कहा जाए, तो यह कोई अत्युक्ति यो अनुचित बात नहीं होगी। यह इसलिए कि इसमें मुख्य रूप से कृष्ण-राधा, नन्द-यशोदा, गोप-गोपी आदि ब्रजभूमि (प्रदेश) से ही सम्बद्ध हैं। गोकुल-वृन्दावन कृष्ण के लीला क्षेत्र हैं। हम देखते हैं कि कृष्ण के जीवन से जुड़ी मुख्य लीलाएं कृषि चरागाही संस्कृति का ही बोध कराती हैं। दूध-दही, माखन, गो-चारण, वंश. वादन, गायन-संगीत, उन्मुक्त लीलाएं, रास आदि सब कुछ इसी कृषि चरागाही संस्कृति के प्रतीक-परिचायक हैं। कृष्ण के चले जाने पर गोपिकाएं प्रश्न करती हैं

मधुबन तुम कत रहत हरे ।
विरह वियोग स्याम सुन्दर, ठाढ़े क्यों न जरे।।
तुम हो निलज लाज नहीं तुमको, फिर-फिर पुहुपधरे।
सखा सयार और वन के पखेरू, धिक-धिक सबन करे।
कौन काज ठाढ़े रहे बन में, काहे न उकठि परे ।।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कृष्ण भक्ति काव्य का संवेदन-संसार कृषि चरागाही संस्कृति का सरस संसार है। ललित कलाएं- कलाओं का अन्तरावलम्बन रचनाशीलता और रचनाधर्मिता को गतिशील बनाता है। यह मध्यकाल में विशेष रूप कृष्ण-भक्तिकाव्य के संदर्भ में देखा जा सकता है।

महाभारत के बाद भागवत इसके प्रेरणास्रोत कहे जा सकते हैं। इससे कृष्ण भक्तिकाव्य से को सक्रियता और गतिशीलता प्राप्त हुई है। इसका वैशिष्ट्य यह है कि इसका मुख्य आधार कृष्ण की विभिन्न लीलाएं हैं; जैसे-यमुना तट, वृन्दावन आदि की अनेक रोचक और मर्मस्पर्शी लीलाएं जब हम इसे देखते हैं, तो हम यह पाते हैं कि इसका स्वरूप मुख्यतः लौकिक कला ही है। ये लीलाएं कलात्मक होने के साथ-साथ वैविध्यपूर्ण भी है। ऋतु परिवर्तन और ऋतु-क्रम पर आधारित होने से और रोचक हो गयी है।

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