‘धरती धन न अपना’ का घटना-स्थल, परिवेश, रहन-सहन, रीति-रिवाज़, पर्व-उत्सव पंजाब के दोआबा के ग्रामीण अंचल के होशियारपुर जिले एक गाँव घोड़ेवाह का दलित मुहल्ला है । यह गांव काल्पनिक नहीं, वास्तविक है यह उनका पैतृक गाँव है । अतः लेखक को इसके जीवन की, वहां के रहने वालों की दीन-हीन अवस्था, उनके शोषण-उत्पीड़न की पूरी जानकारी है । उसने इस दयनीय जीवन का बड़ी सहजता एवं सहानुभूति से चित्रण किया है। गांव का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पूरी जीवन्तता के साथ चित्रित किया गया है। उपन्यास की भाषा हिन्दी है, पर उसमें अंचल की भाषा की रंगत भी सहज ही दिखाई देती है । दलित मुहल्ला गांव के एक किनारे पर है, जहां सवर्ण जाति के लोगों ने उन्हें अछूत मानकर रहने को बाध्य किया है । वैसे भी ये लोग अनपढ़, पिछड़े, रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों में जबड़े हुए हैं।
अतः इनकी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समस्याएं हैं । अधिकार, सत्ता, संपत्ति और सुरक्षा से वंचित ये लोग इतने दबे, डरे, आतंकित हैं कि प्रतिरोध, विरोध करने का साहस भी इनमें नहीं है । अतः यह एक वर्ग है, जिसकी अपनी अलग पहचान है। “धरती धन न अपना” के दोआबा क्षेत्र में होशियारपुर जिले का गाँव घोड़ेवाहा चित्रित हुआ है । होशियारपुर जिले की हद हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र से लगती है व होशियारपुर क्षेत्र पहाड़ी क्षेत्र की गोद में बसा है | इस क्षेत्र का “चो” विशिष्ट शब्द है, जो इसी क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । “चो” एक प्रकार की पहाड़ नदी या नाला है, जिस रास्ते से ऊपर पहाड़ों से वर्षा का पानी आकर बहता है । कई बार “चो” सूखा रहता है, तो वहाँ बच्चों की खेल-कूद जैसी गतिविधियाँ चलती रहती हैं ।
अतः “चो” इस अंचल विशेष की विशिष्ट पहचान है और “धरती धन न अपना” में “चो” की बड़ी भूमिका है । “चो” से ही बाढ़ आती है और “चो” में ही बच्चे खेलते हैं । “धरती धन न अपना” में लेखक को अंचल विशेष के परिवेश चित्रण में पर्याप्त सफलता मिली है, इसीलिए कई आलोचकों ने “धरती धन न अपना” की गणना आंचलिक उपन्यासों में की है । उपन्यास के आरंभ से ही लेखक ने परिवेश चित्रण पर विशेष ध्यान दिया भौगोलिक से सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश तक उसकी दृष्टि का विस्तार है । गाँव में दाखिल होते ही काली के नाक को गाँव की विशिष्ट गंध की पहचान मिलती हैं । उपन्यास का आरंभ काली के गाँव लौटने की घटना से होता है । लेकिन काली के गाँव की सीमा में दाखिल होने से लेकर उसके घर पहुँचने तक लेखक ने पूरे गाँव के भूगोल को और सामाजिक वातावरण को अंकित कर दिया है ।
पहले आता है चौधरियों का मुहल्ला, जिसमें हवेलियाँ हैं, फिर स्कूल आता हैं, जहाँ के मुंशी के लिए साग, गन्ने, गाजरें, मूलियाँ जाटों के लड़के लाते थे, लेकिन मुंशी के घर उन्हें कम्मियों के लड़के पहुँचाते थे। फिर मंदिर और उसके चारों ओर दुकानदारों के चौबारे । उससे आगे हरिजन बस्ती है । जहाँ गोबर की तेज बदबू है, जिसका कुआं गंदे पानी और कीचड़ से घिरा है, इस गली में सारे घर कच्चे व टूटे-फूटे हैं। पौ फटने पर काली गांव के पास पहुंचता है । गांव में छह सालों में कोई तब्दीली नहीं हुई है । गलियों के कुत्ते भौंक-भौंक कर काली का स्वागत करते हैं और घर पर चाची को जीवित पाकर काली प्रसन्नता से अभिभूत हो उठता है । काली की चाची काली के लौटने की सूचना पूरे मुहल्ले को शक्कर बाँट कर देती है ।
दलितों के मुहल्ले में एक कोठा भी अभी तक पक्का नहीं हुआ है । मुहल्ले की औरतें काली से हंसी-मजाक करती हैं । छह साल कानपुर में मजदूरी कर काली कुछ कमाई कर गांव लौटा है । इससे दलित होने पर भी गांव में उसके व्यक्तित्व का कुछ प्रभाव पड़ता है और | कुछ गाँववासी उसे बाबू कालीदास कहते हैं । सारे उपन्यास का कार्यस्थल एक गांव है, और गांव में भी विशेषतः अछूत मोहल्ले की गलियां, कच्चे मकान, चौबारे, साईं भुल्लेशाह की मजार का तकिया (चौपाल) आदि । चौधरियों-महाजनों के मुहल्लों तथा खेतों तथा हवेलियों के लिए अपने-अपने दलित स्त्री-पुरुष (कमीन और कामी) पुश्तैनी से गुलाम तथा चाकर हैं | मालिक और गुलाम के बीच के ये संबंध अर्द्ध-दासीय तथा पूर्ण सामंती हैं ।
अछूत मोहल्ले में रहने वालों को प्रतिवर्ष बाढ़ का प्रकोप भी सहना पड़ता है | बाढ़ के उफनते पानी में न केवल उनके कच्चे घर और फूस के झोंपड़े ही नष्ट होते हैं, उन्हें पानी पीने के भी लाले पड़ जाते हैं। उनका कुंआ बाढ़ के पानी में डूब जाता है और सवर्ण जाति के लोग उन्हें अपने कुएं से पानी भरने नहीं देते ।। आंचलिक उपन्यास में अंचल विशेष की लोक संस्कृति लोक गीत, लोकनृत्य, लोक कथाएँ उत्सव-पर्व, त्यौहारों के चित्रण पर बहुत बल दिया जाता है । ‘धरती धन न अपना’ में लोक संस्कृति के विवरणात्मक चित्र तो नहीं हैं, पर उसकी झलक अवश्य मिलती है । ‘धरती धन न अपना’ में काली के गांव वापस आने पर प्रौढ़ नारियों द्वारा घोड़ियां-लोकगीत गाना तथा सुगन में शक्कर बांटना, प्रौढ़ औरतों (ताई निहाली, चाची प्रतापी, प्रीतो) के बीच अश्लील तथा भद्दा गाली-गलौज, चो-पार के बाजीगरों की जिंदगी, चो के मैदान में कब्बडी तथा कुश्ती, नंदसिंह के ईसाई बनने का आयोजन,
रब्बो घेबर द्वारा भूत-प्रेत झाड़ने-फूंकने का ढोंग-ढकोसला, ख्वाजा पीर को बकरे की बलि दिया जाना, मुहल्ले के हर व्यक्ति द्वारा ज्ञानो की अर्थी को कंधा दिया जाना आदि लोक-जीवन के स्थानीय रंगों को भरकर सनातन लोकचित्त की पहचान कराते हैं। गांव में पाठशाला तो है, पर वहाँ दलित बच्चों का प्रवेश निषिद्ध है अतः वे अशिक्षित रहते हैं और अशिक्षा के कारण पुरातन संस्कारों, अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों में जकड़े हुए हैं । गाँव में एक भी ऐसा उदार मन व्यक्ति नजर नहीं आता, जो उनके प्रेम का प्रशंसक हो । मिस्त्री संता सिंह काली को ज्ञानो का यौ लूटने के लिए ही उकसाता है, उनके सच्चे प्रेम का वह प्रशंसक नहीं है। धार्मिक पाखंड, आडम्बर, धर्म के नाम पर छूआछूत, शोषण भी इन दलितों के जीवन को नाटकीय बनाते हैं । इसी अस्पृश्यता के अपमान से परेशान होकर नंदसिंह पहले सिख और फिर ईसाई हो जाता है, पर धर्म-परिवर्तन करने पर भी उसकी स्थिति वही रहती है।
दलित मोहल्ले के लोगों के अपने रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ तथा विश्वास हैं, जिनका पालन वे बड़ी निष्ठा से करते हैं और उसी में अपना गौरव मानते हैं । काली की चाची प्रतीपी उसे बिना दरों पर तेल चुपड़े घर में प्रवेश नहीं करने देती, भले ही उसकी शीशी में मुश्किल से तेल की एक बूंद ही हो । उसके बीमार होने पर काली जैसा समझदार जागरूक युवक भी ओझा के जाल में फंस जाता है ; वह झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ कर चाची के प्राण गंवा बैठता है। कुछ वर्ष कानपुर में बिताने तथा छह वर्ष बाद गांव लौटने पर गांव के चौधरियों के अन्याय-अत्याचार, उत्पीड़न-शोषण देखकर उसमें नई चेतना अवश्य जागती है और वह दलितों को चौधरियों के विरुद्ध संघर्ष करने, बेगार न करने, दिहाड़ी पर काम करने की प्रेरणा देता है ।
परिणामतः संघर्ष होता है और उसके तथा उसका साथ देने वाले युवकों के प्रयासों से ही उन्हें आंशिक सफलता मिलती है । आधी दिहाड़ी पर काम करने का फैसला होता है ।। उपन्यास की भाषा पर इस क्षेत्र की अपनी भाषा (पंजाबी का दोआबा रूप) की छाप अपनी पूरी शैली लिए हुए है । लेखक ने उपन्यास उर्दू प्रभावित हिंदी या हिंदुस्तानी जैसी हिंदी भाषा में रचा है। लेखक की इस भाषा-शैली में पंजाबी भाषा के “चो”, “शामलात” जैसे शबद आदि व पंजाबी मुहावरों के प्रयोग ने “धरती धन न अपना” के आंचलिक पहलू को और भी सुंदरता से प्रस्तुत किया है। हालांकि कई स्थला पर पंजाबी मुहावरों का हिंदी रूपांतरण कुछ अटपटा-सा भी लगता है जैसे -चौधरियों से “माथा लेता है, “चोट नहीं खाएगा, तो और क्या होगा । शुक्र करे जान बच गई ।” पंजाबी में ये मुहावरा “पंगा लेना” तो है, लेकिन “माथा लेना” प्रयोग अटपटा है ।
‘धरती धन न अपना’ की भाषा में आंचलिकता वाला शैलीकरण नहीं है । इसमें न तो फोटोग्राफिक तफसीलें हैं ; न प्रतीकवादी ढंग की सच्चाइयाँ हैं; न पात्रों के थोपे हुए विवरण हैं ; बल्कि अपने इस समय में यथार्थ आवश्यकताओं के कारण समूहकरण तथा टाइपीकरण हैं | धरती धन न अपना’ आंचलिक उपन्यास नहीं है । हां, उसमें आंचलिक उपन्यास के कुछ तत्त्वों की झलक अवश्य मिलती है । उपन्यास का घटना स्थल पंजाब के अंचल विशेष दोआबा के होशियारपुर जिला का गाँव है । दोआबा क्षेत्र देश के और हिस्सों में भी है, क्योंकि शाब्दिक अर्थ दो नदियों के बीच का क्षेत्र होता है। जहाँ-जहाँ देश में विशेषतः उत्तर भारत में दो नदियों के बीच का प्रदेश आबाद होगा, उसे दोआबा कहा जाता है । जैसे मालवा पंजाब का भी अंचल विशेष है और मध्य प्रदेश का भी । पंजाब का यह दोआबा क्षेत्र विभाजन पूर्व पंजाब में भी दोआबा ही कहलाता था ।
जिन समस्याओं – छूआछूत, सवर्ण, सम्पन्न लोगों द्वारा दलितों का उत्पीड़न-शोषण, पिछड़े लोगों के अंधविश्वास और रूढ़ियाँ जिनक कारण वे जीवनभर कष्ट झेलते हैं, नारी का शोषण, युवा प्रेम-प्रसंगों की असफलता, धर्म-परिवर्तन, ईसाई धर्म का प्रचार, जमीन का मौरूसी होना तथा जमीदारों द्वारा बेगार की समस्या, साम्यवादी विचारों का धीरे-धीरे गांवों में प्रसार आदि – ये होशियारपुर की ही समस्याएं और स्थितियां नहीं हैं, भारत के अन्य अनेक भूखंडों में भी ये उतने ही भयावह व क्रूर रूप में व्याप्त हैं। दलित मुहल्ले के लोग भूमिहीन हैं और उन्हें सांस्कृतिक या सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से एक विशिष्ट वर्ग नहीं कहा जा सकता, जिसकी अपनी अलग से पहचान हो ।
घोड़ेवाहा कोई आदिम इलाका नहीं है। वहां की समाज-रचना कबीलाई समाज-रचना नहीं है ; वह केवल पिछड़ी हुई सामंतीय समाज-रचना है, जो अनेक प्रदेशों में पाई जाती है । दलित मोहल्ले में सांस्कृतिक सौन्दर्य तथा सांस्कृतिक पर्यों के स्थान पर ऐसे चित्र हैं, जो किसी भी सामाजिक उपन्यास में मिल जाते हैं और उन्हीं की तरह सामाजिक अन्यायों को उभारा गया है। इसमें आंचलिक चित्रोपमता प्रमुख नहीं है । प्रमुख है मध्यकालीन सामंतीय मूल्यों के कारण जन-सामान्य की यातना का करुण चित्र । दलित जीवन की त्रासदी के अनेक पहलू । इस त्रासदी का विरेचन (Catharsis) न होकर अपोलो कैथार्सिस है अर्थात् इसमें भावुकता रहित व्यथा तथा तटस्थताविहीन संघर्षों का आंतकोल्लास छाया हुआ है। ‘धरती धन न अपना’ में उपन्यासकार जगदीशचन्द्र ने पंजाब राय के दोआबा क्षेत्र के दलितों के उत्पीड़न, शोषण, अपमान व वेदना को चित्रित किया है । उनकी दयनीय व हीन स्थिति के लिए जिम्मेदार भारतीय जाति व्यवस्था, हिंदू धर्म व्यवस्था और जन्म-कर्म सिद्ध के आधारभूत तथ्यों को भी उजागर किया है ।
जन्म के आधार पर अछूत करार दी गई जातियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृति. सरोकारों को इस उपन्यास के द्वारा एक विस्तृत पटल पर चित्रित करके भारतीय हिंदू धर्म मूल्य व नीति मूल्यों की आलोचना की है। यह उपन्यास धरती के दुखियारों का सामाजिक दस्तावेज़ है, जिसे प्रेमचन्द की परम्परा की रचना कहा जा सकता है। अन्तर इतना ही है कि प्रेमचन्द के उपन्यास दस्तावेज और दीपक होते थे और ‘धरती धन न अपना’ दस्तावेज और दर्पण है । इसे पढ़कर हमारे मन में ठंडी करुणा का ज्वार उमड़ने लगता है और यही कृति की सफलता का रहस्य है ।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box