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पहचान के सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को समझाइए।

पहचान पर सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य

ऐसे विभिन्‍न सैद्धांतिक दृष्टिकोण हैं जो पहचान की व्याख्या करते हैं। नीचे कुछेक मुख्य सिद्धांतों की समीक्षा की गई है:

1. प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद 

प्रतीकात्मक अंत:क्रियावाद का मूल आधार, एक समाजशास्त्रीय सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिष्रेश्ष्य है, जिसमें लोग वस्तुओं के प्रति व्यवहार इनके मूर्त गुणों के आधार पर नहीं, बल्कि इन वस्तुओं का उनके लिए क्या अर्थ है, इस आधार पर करते हैं। उदाहरण के लिए, एक पुरानी मेज को फर्नीचर का बेकार टुकड़ा भी समझा जा सकता है था सहेजने योग्य यादगार भी | चूंकि मनुष्य में पुनः स्वयं के बारे में विचार करने की क्षमता है, इसलिए वे स्वयं को वस्तुओं के रूप में लेते हैं। वे स्वयं का जायजा लेने, खुद का आकलन करने और भविष्य के लिए निर्णय लेने और योजना बनाने में सक्षम होते हैं, और स्वयं के अस्तित्व के संबंध में आत्म-जागरूक हैं था चेतना हासिल करते हैं। ऐसे में व्यक्ति एक वस्तु के तौर पर उमरता है। इस प्रकार यहां सी.एच. कूले (1902) द्वारा प्रदत्त सामाजिक आत्म /शीशे में दिखने वाले आत्म की अवधारणाएं निहित हैं। सीधे शब्दों में, उन्होंने कहा कि अन्य लोग वह दर्पण हैं जिसमें हम स्वयं को देखते हैं। हम स्वयं को एक वस्तु के रूप में प्रतिबिबित करने में सक्षम हैं क्योंकि हम दूसरे की भूमिका अपना लेते हैं और खुद को दूसरों के दृष्टिकोण से देखते हैं। यह प्रक्रिया कुछ इस तरह है - जब हम दर्पण में अपना चेहरा, आकृति और पोशाक देखते हैं तो हम उनमें रुचि रखते हैं क्योंकि वे हमारी हैं। कभी हम प्रसन्‍न दिखते हैं और कभी खिन्‍न हो जाते हैं, यह उसके अनुसार होता हैं कि हम जो देखते हैं चह् हमें पसंद है या नहीं। यह आत्म-दिचार इसलिए उत्पन्न होता है: अ) हम दूसरे व्यक्ति के लिए अपने रूष-रंग की कल्पना करते हैं, ब) अपने रूप-रंग के बारे में हम उसके निर्णय के बारे में कल्पना करते हैं स) किसी प्रकार की आत्म-भावना जैसे गर्व या खिन्‍नता उत्पन्न होती है। चेहरा देखने वाले शीशे के साथ इसकी तुलना दूसरे तत्व का वर्णन नहीं कर पात्ती, वह है काल्पनिक निर्णय जो कि बेहद आवश्यक है। जो चीज हमें गर्व या खिननता की ओर ले जाती है, वह मात्र स्वयं यांविक प्रतिबिद्र नहीं है, बल्कि इस प्रतिबिब के प्रभाव से दूसरे के दिमाग होने वाली भावना है, है। उदाहरण के लिए. हमें एक सुस्पध्ट आदमी के सामने गोलमाल बातें करने वाला होने, एक बहादुर व्यक्ति के सामने कायर होने, बेहद सुंदर व्यक्ति क॑ सामने कम सुंदर होने इत्यादि में शर्म आत्ती है। हम हमेशा कल्पना करते रहते हैं और कल्पनाओं में दूसरे व्यक्ति के निर्णयों को साझा करते हैं।

   पहचान व्यक्ति में प्रवेश कहां करती है? जैसा कि हमने पहले सीखा था, समाज में जितनी अलग-अलग स्थितियां हैं, उतनी ही अलग-अलग पहचानें हैं। ये समी एकाधिक पहचानें जो सपग्र आत्म का गठन करती हैं, सामाजिक संरचना के विभिन्‍न पहलुओं से संबंधित हैं। व्यक्ति समाज मैं जो भी अलग-अलग स्थितियां अथवा भूमिकागत संबंध धारण करता है वे उसके लिए उसको एक पहचान, एक 'समावंधित स्थितिगत प्रयाजन (स्ट्राइकर, 1980, पृष्ठ 60) होता है। इस तरह, छात्र के रूप में आत्म एक पहचान है; इसी तरह जब जीवन में निमाए जाने वाली असंख्य भूमिकाओं पर विधार करें, तब हम व्यक्ति को पति,/ पत्नी के रूप में, सहकर्मी के रूप में व्यक्ति, मित्र के रूप में व्यक्ति, और कर्मचारी / कार्मिक के रूप में व्यक्ति को पा सकते हैं। पहचान का संदर्भ उस अर्थ से है कि जो कोई भूमिका-धारक या समूह के सदस्य के रूप में, या एक व्यक्ति के रूप में अर्जित करता है, उदाहरण के लिए, एक मित्र, या सहयोगी या कार्मिक होने का क्या मतलब है? ये अर्थ पहचान के तत्व हैं।

2. सामाजिक पहचान सिद्धांत

सामाजिक पहचान सिद्धांत हेनरी ताजफेल (1979) द्वारा विकसित किया गया है। सामाजिक पहचान सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति की सामाजिक पहचान उस विशाल सामाजिक पहलचानों से निर्मित होती है जो विभिन्‍न सामाजिक श्रेणियों जैसे वर्ग, जाति, लिंग और इससे भी क्षणिक जैसे कि शैक्षणिक संस्थान, गैर-शिक्षण गतिविधियों आदि विभिन्‍न सामाजिक श्रेणियों के चलते किसी के पास होती हैं। ये समी पह्टधानें प्रमुख, सक्रिय या विशिष्ट नहीं होती। बह्कि, किसी भी निश्चित समय पर सामाजिक पहचान विशेष सामाजिक संदर्भों के अनुकूल कुछेक पहचानों से बनी होती है। उदाहरण के लिए, क्रिकेट मैध के दौरान भारतीय प्रशंसक होना। पहचान के सकारात्मक मूल्यांकन का शक्तिशाली और शायद सार्वभौमिक मकसद व्यक्ति का आत्म के बारे में बेहतर सोचने का उद्देश्य है। किसी की सामाजिक पहचान के सकारात्मक मूल्यांकन का उद्देश्य उतना ही मजबूत है जितना कि किसी की व्यक्तिगत पहचान का सकारात्मक मूल्यांकन। सकारात्मक सामाजिक पहचान का यह उद्देश्य हमारे ज्यादातर सामाजिक व्यवहार को प्रेरित करता है, और व्यक्ति की इन-समूह सदस्यताओं (सामाजिक समूह जिनसे व्यक्ति संबंध रखता है) के सकारात्मक मूल्यांकन के लिए एक प्रवृत्ति के रूप में व्यक्त किया जाता है। सकारात्मक सामाजिक पहचान इन-ग्रुप और कुछ प्रासंगिक आउट-ग्रुप (समूह जिससे व्यक्ति का संबंध नहीं हैं) के बीच सामाजिक तुलना के माध्यम से आती है। एक भारतीय प्रशंसक, या मनोविज्ञान का छात्र होने का मूल्य केवल अन्य प्रासंगिक आउट-समूह पहचानों (जैसे कि पाकिस्तानी प्रशंसक, या इंजीनियरिंग छात्र होने के नाते) के साथ तुलना के माध्यम से ही आंका जा सकता है। इस सिद्धांत का मानना है कि सामाजिक पहचान की अभिवृद्धि के लिए ग्रुप सदस्यताओं के सकारात्मक मूल्यांकन का एक उद्देश्य है, यह है आउट-ग्रुप से इन-प्रुप में तुलना करके आउट-ग्रुप की तुलना में इन ग्रुप के लिए सकारात्मक अंतर अर्जित करना। बुन-ग्रुप के सदस्यों को एक-दूसरे से अलग माना जाता है (इन-प्रुप वैशिष्टथ) और आउट ग्रुप के समी सदस्यों को एक जैसा माना जाता है (आउट-ग्रुप एकरूपता)। सामाजिक वर्गीकरण, सामाजिक पहचान और सामाजिक तुलना के ये संज्ञानात्मक तंत्र बाहरी समूहों के प्रति रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के आधार हैं।

3. एरिकसो नियन परिप्रेक्ष्य 

पहचान सिद्धांत की एक परंपरा स्थापित करने में शामिल कई अग्रणी सिद्धांतकारों में से एरिकसन भी एक था (अन्यों में ब्लॉस, 1962:कूले, 1902; जेम्स, 1882; जी.एच. मीड, 1934) शामिल हैं। एरिकसन की पहच्चन की परिमावा में आंतरिक (मनोविज्ञान में अंतरमनोवैज्ञानिक बल) और सामाजिक्र-संदर्भ आगाघ (समाज्नशास्त का परितेक्षीश संदर्भ) दोनों शामिल थे। जैसा कि एरिकसन ने कहा है, 'अहम्‌ की पहचान आत्म-सातत्य और निरंतरता के बारे में चेतना कृ (और) किसी की वह व्यक्तित्व विषयक शैली है (जो) जो किसी व्यक्ति के लिए आसपास के समाज में दूसरों के अर्थ में सातत्थ और निरंतरता से मेल खाती हो' (1955; पृष्ठ 50)। किज्ञोरायस्था और युवावस्था चह समय होता है जब व्यक्ति अपनी स्वयं की पहचान की भावना महसूस करना शुरु कर देता है, एक ऐसी भाषना कि यद्यपि वह एक अद्वितीय इंसान है और फिर भी समाज में कुछेक सार्थक भूमिकाएं मिमाने के लिए दह तैयार है। पहचान बनाने का कार्य समान विचार वाले लोगों के साथ स्वयं को  जोडते हुए प्रतिभाओं, योग्वता और कौशल को चुनमा और एकीकृत करना तथा सामाजिक परिवेश की अपेक्षाओं के अनुरूप ढलने की प्रक्रिया है। इसमें खतरों और चिताओं के खिलाफ बचाव को मजबूत करना भी शामिल है, क्योंकि यह तय करना सिखाता है कि कौन से आवेग, जरूरतें और भूमिकाएं सबसे प्रभावी और उपयुक्त हैं।

   एसिकसन पहचान सृजन से लेकर पहचान संग्रम तक, पहचान की अवधारणा एकल द्विध्रुवी आयाम के रूप में करता है। पहचान सृजन स्वस्थ बाल्यकाल और आदर्शों के व्यापक, स्वनिर्धारित समूह से जुडाव को परिलक्षित करता है, वहीं पहचान संम्रम आदर्शों के ऐसे प्रमुख समूहों को घिकसित करने में असमर्थता परिलक्षित करता है जिसके आधार पर वयस्क पहचान खड़ी की जा सके। उदाहरण के लिए, किसी की रोमांटिक प्राथमिकताओं, धार्मिक विचारघाराओं, कैरियर और राजनीतिक प्राथमिकताओं, के विविध रूप एक साथ आकर वह पहचान बनाते हैं जिससे व्यक्ति क्या है, यह परिलक्षित होता है। यह बाहरी दुनिया के साथ-साथ स्वयं के लिए भी प्रदर्शित की जाती है। (विविध रूपों का) यह जितना पूर्ण और सुसंगत होता है, व्यक्ति पहचान सृजन के उतना ही करीब होत्ता है। स्कूल के बाद क्या करना है. से लेकर किसी व्यक्ति द्वारा अपनी जिंदगी को बिलकुल ही उद्देश्यहीन मानने की स्थितियों तक पहचान सच्रम को प्रदर्शित किया जा सकता है। पहचान संग्रम के अधिक स्पष्ट रूप का वर्णन करने के लिए, एरिकसन ने आर्थर मिलए (1958) के नाटक 'डेथ ऑफ ए सेल्समैन' के बिफ लोमन के चरित्र का इस्तेमाल किया, जो शिकायत करता है कि वह “किसी तरह का जीवन अपना नहीं पाता है" (1958, पृष्ठ 54)


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