पश्चिमी काव्यशास्त्र में ‘काव्य का अधिकारी’ अथवा ‘सहदय’ जैसी गहन अवधारणा तो नहीं है, पर। आदर्श-पाठक या ‘ग्राहक’ (आईडियल रीडर) की अवधारणा पर पर्याप्त विचार हुआ है। भारतीय आचार्यों ने ‘सहृदय’ के जिन गुणों पर बल दिया है, उसका पूरा स्वरूप ‘प्रतिभा’ पर खड़ा है – अर्जन पर कम। इसके विपरीत, पश्चिमी चिंतकों ने ‘आदर्श प्रेक्षक’ अथवा ‘आदर्श ग्राहक’ में सतत ग्रहणशीलता, शिक्षा एवं प्रयत्न तीनों का योग महत्वपूर्ण माना है। वहाँ भी पाठक में भावयित्री प्रतिभा की स्वीकृति है, पर यह सब अभिजात वंशानुक्रम परम्परा से विरासत में प्राप्त संस्कार है, प्रतिभा का सहज उभार कम पाठक के ‘संस्कार’ को सामाजिक संदर्भ प्रदान करते हुए ‘विशिष्ट वर्ग’ का प्रतिनिधि माना गया जिसमें स्वभावतः काव्यास्वाद का संस्कार भी आ जाता है।
काव्य के अधिकारी संबंधी मान्यता में ‘विशिष्ट वर्ग’ की या अल्पसंख्यक की बात वहाँ बहुत समय से . चली आ रही है। वहाँ माना जाता रहा है कि यह विशिष्ट वर्ग थोड़ा या अल्पसंख्यक होता है। इस चिंतन परम्परा का परिणाम यह हुआ कि आई.ए.रिचर्डस, टी.एस.एलियट तथा एफ.आर.लीविस जैसे प्रबुद्ध आधुनिक भी ‘अल्पसंख्यक संस्कृति सिद्धांत के प्रति एकदम नरम हैं।
यह ठीक बात है कि हर समाज में सच्चे ग्राहक कम ही होते हैं। टी.एस.एलियट जब अल्पसंख्यक वर्ग को काव्य का अधिकारी कहते हैं तो.. उस वर्ग को पूरे यूरोप की महान परंपरा का वाहक, धारक, उद्धारक और उत्तराधिकारी मानते हैं। वे स्वयं जब बोलते हैं – चाहे रचनाकार के स्वर में बोलें या पाठक-आलोचक के स्वर में – पूरे यूरोप की तरह से, पूरी ईसाई चिंतन परम्परा के प्रवक्ता की तरह बोल रहे होते हैं।
अभिजात वर्ग ही काव्य-संस्कारों वाला है औद्योगिक समाज का मध्य वर्ग तो संस्कारहीन उपभोक्तावादी संस्कृति का अंग है। एलियट के विचार से लीविस कई अर्थों में सहमत हैं। लीविस के अनुसार ‘जनतंत्र और शिक्षा के अनियंत्रित प्रचार-विकास से लाभ कम हानि बहुत हुई है।’ उनका मानना है कि ‘अल्पसंख्यक संस्कृति’ में ‘काव्य के ग्राहकों की संख्या भी थोडी ही होती है।
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