इलियट ने परम्परा को समझने और अपनाने पर बहुत बल दिया है। उनका विचार था कि साहित्य-रचना में साहित्यकार को आत्मनिष्ठ तत्त्व पर नियंत्रण रखना चाहिए। कविता कवि के तीव्र भावों का सहज उच्छलन नहीं है जैसा कि रोमांटिक कवि वर्ड्सवर्थ मानता था। इलियट ने कला को निर्वैयक्तिक घोषित किया। उनके अनुसार काव्य-रचना में कवि का मानस केवल माध्यम है, जहाँ कवि के भाव और अनुभव नए-नए समुच्चय में बंधाते रहते हैं।
काव्य-रचना की प्रक्रिया पुनमरण के स्थान पर एकाग्रता की मांग करती है। काव्य एकाग्रता का प्रतिल है। वह लिखते हैं कवि अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता, वह केवल माध्यम मात्र है। इसके लिए इलियट ने एक उत्प्रेरक का दृष्यन्त दिया है। आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड के कक्ष में यदि प्लेटिनम का तार डाल दिया जाए तो आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड मिलकर सल्फर एसिड बन जाते हैं, पर प्लेटिनम के तार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न एसिड में प्लेटिनम का कोई चिह दिखाई देता है।
कवि का मन भी प्लेटिनम का तार है। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति कला नहीं है, वरन उनसे पलायन कला है। कलाकार की प्रगति निरन्तर आत्मोत्सर्ग, व्यक्तित्व का निरन्तर निर्वापण है। सम्बन्धी मान्यताओं के विपरीत था, जो काव्य को भावोद्रेक का उच्छलन मानते थे। रोमांटिक युग की धारणा कि काव्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है उन्हें मान्य न थी। अतः काव्य का महत्त्व व्यक्तिगत भावों की तीव्रता या महत्ता का नहीं, काव्य-प्रक्रिया की कलात्मक सघनता पर निर्भर करता है, जिसमें विभिका भाव, घुल-मिलकर एक हो जाते हैं।
अत: कलाकार को निरन्तर कलात्मक प्रक्रिया के प्रति आत्म समर्पण करते रहना चाहिए। इलियट का विचार है कि काव्य की प्रेरणा कवि को मानव-स्थिति की सचेतन अनुभूति से प्राप्त होती है। उनके प्रारम्भिक वक्तव्यों से स्पष्ट है कि कवि कविता लिखता नहीं, कविता स्वयं कवि के माध्यम से कागज पर शब्द-विधान के रूप में उतर आती है; जब तक कविता पूरी नहीं हो जाती, तब तक कवि को ज्ञान नहीं होता कि क्या होने जा रहा है।
पर क्या उनके कला की निर्वैयक्तिकता सम्बन्धी से आरम्भिक विचार अन्त तक बने रहे? यीट्स के काव्य के सम्बन्ध में जो विचार उन्होंने प्रकट किए हैं और जो शिकायत की है कि उसके आरम्भिक काव्य में कवि का अपूर्व व्यक्तित्त्व नहीं मिलता, उससे लगता है कि बाद में चलकर इलियट के विचार या तो बदल गए थे जा जैसा कि स्वयं उन्होंने कहा, ‘मैं उस समय अपनी बात ठीक से व्यक्त न कर सका था।’ बाद में निर्वैयक्तिकता के सम्बन्ध में अधिक सहायता देता है। ‘निर्वैयक्तिकता के दो रूप होते हैं-एक वह जो ‘कुशल शिल्पी मात्र’ के लिए प्राकृतिक होती है। दूसरी, वह है, जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है। दूसरे प्रकार की निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है, जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में समर्थ होता है।’
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि भले ही उनके प्रारम्भिक मत की शब्दावली से लोगों को यह भ्रम हो गया हो कि वह कविता को कुशल शिल्प-विधान मानते थे, परन्तु बाद में चलकर कला की निर्वैयक्तिकता से इलियट का अभिप्राय मात्र कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता नहीं है। अब तो वह कला की निर्वैयक्तिकता को प्रौढ़ कवि के निजी अनुभावों की सामान्य अभिव्यक्ति मानते हैं। भारतीय आचार्यों की तरह वह भी यह मानते हैं कि कवि अपने निजी भावों की अभिव्यक्ति कविता में करता है, पर उसे इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे भाव उसके ही नहीं, सर्व-सामान्य के भाव बन जाते हैं।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box