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मानस का हंस' के राजनीतिक और धार्मिक परिवेश पर विचार कीजिए।

 तुलसीदास के जीवन को यदि आधार मानें तो मानस का हंस का परिवेश तीन मुगल बादशाहों का समय है। मध्यकाल में भारतीय राजनीति में बड़े परिवर्तन आ रहे थे। लोदियों का शासन भारत में स्थापित हो चुका था। सन् 1526 में भारत में बाबर ने पानीपत के पहले युद्ध में इबाहिम लोदी को हराकर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। बाबर के बाद सन् 1530 से 1556 ईस्वी तक हुमायूं और उसके बाद सन् 1556 ईस्वी से 1605 ईस्वी तक अकबर का शासन रहा। अकबर के बाद सन् 1605 ईस्वी से सन् 1627 ईस्वी तक बादशाह जहाँगीर का काल रहा है। हुमायूं के समय तक भारत में मुगल शासन स्थिर न था। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में मुगल, पठानों से लड़ रहे थे। जब भी कोई नगर जीता जाता तो बड़े पैमाने पर पर लूटपाट होती।

‘मानस का हंस’ में अनेक स्थानों पर इस अस्थिरता के चित्र मिलते हैं। मुगल शासन को स्थिरता मिलती है, बादशाह अकबर के शासन काल में मध्यकाल में अनेक प्रकार के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण बन रहे थे। जिसमें हिंदू-मुस्लिम एकता और साझी संस्कृति के अनेक रूप दिखाई देते हैं। यद्यपि तुलसीदास हिंदू धर्म के सर्वाधिक सम्मानीय चरित ‘राम’ को अपनी लेखनी से शब्दों में उकेर रहे थे, परंतु उनका अपने समय के मुस्लिम समुदाय से किसी प्रकार का बैर भाव नहीं दिखाई देता।

मध्यकाल में राजपूत सत्ता के पतन के बाद पठानों और मुगलों के बीच संघर्ष चल रहा था। उपन्यासकार ने स्थानीय राजाओं और मुगलों के संघर्ष को धर्म की दृष्टि से नहीं अपितु सत्ता के संघर्ष के तौर पर देखा है। उपन्यास के प्रारम्भ में ही बाबा नरहरिदास महत जी से कहते है, “राजनीतिक स्थिति अब तो सदा ऐसे ही रहेगी महंत जी। शेर खां आवे चाहे चीता खाँ। वस्तुतः धर्म-धर्म से नहीं लड़ रहा, यह बात अब सिद्ध है। नहीं तो पठान भला मुगलों से लड़ते। “इसी प्रकार एक अन्य प्रसंग में जब देश में अकाल पड़ रहा था तब आम जनता इस बात की आशा कर रही थी कि हिंदू राजा जनता के लिए अपने खजाने और भंडार गृह खोल देगा, तब भी जनता को निराशा होती है।

अकाल अमृतलाल नागर के समय हिंदू राजा हेमू से मदद मांगने के प्रश्न पर एक वृद्ध कहता है-“हिंदू हः हः ह, अरे बाबा, हिंदू-मुसलमान तो हम-तुम पंच होते हैं। राजा राजा होता है। हेमू के हाथी चावल चीनी और घी के लड्डू खा-खाकर मरने-मारने के लिए तैयार हो रहे हैं। वह बस लडवइयों को ही भर-पेट खिला सकता है। हमारा कोई नहीं। राम | भी नहीं।” भूख और लाचारी के इस दृश्य से साफ है कि सत्ताओं को पहली चिंता उनकी सत्ता की होती हैं आम जनता की नहीं। चाहे वह हिंदू या फिर मुसलमान। तुलसीदास के जीवन के अनेक प्रसंगों से स्थापित करते हैं कि उनका व्यक्तित्व धार्मिक संकीर्णता से कहीं ऊपर था।  बाबा तुलसीदास ने मुगल बादशाह अकबर का समय भी देखा था। वे जहाँगीर के समय से उस युग की तुलना करते हुए उपन्यास में एक स्थान पर वे कहते हैं, “अकबरशाह के समय थोड़ा बहुत सुशासन आया था, अब वह भी समाप्त हो गया। शासक दिल्ली में रहता है। उसे नित्य हीरे, मोती, जवाहिर और सोना चाहिए। स्त्री और धन की लूट का नाम ही कलिकाल है। सारे पाप वहीं से प्रारम्भ होते हैं।

महाकवि तुलसीदास का मानना था कि कलिकाल शासक लुटेरे बन जाते हैं। धार्मिक परिवेश आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने “हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है, “धर्म का प्रवाह कर्म, जान और भक्ति इन र्तन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव में वह विकलांग रहता है। कम क बिना च लूला, लंगड़ा, ज्ञान के बिना अंधा और भक्ति के बिना हृदयहीन क्या निष्प्राण रहता है। लगभग यह स्थिति मध्यकालीन भारत में थी। धर्मिक पाखंडों और श्रेणीबद्धता ने अनेक पाखंडी, अनाचारी आर अयोग्य व्यक्तियों की धार्मिक स्थल का विधन में पहुंचा दिया था।

उपन्यास में तुलसीदास जब अपने आराध्य राम की जन्मभूमि अयोध्या पहुंचा दिया था। उपन्यास में तुलसीदास जब अपने आराध्य राम की जन्मभूमि अयोध्या पहुँचते है तो पाते हैं कि इस धर्म नगरी में धम नहीं रह पाया समाज के साधु वर्ग मात्र अपने स्वार्थो की सिद्धि में लगा हुआ है। तुलसी अयोध्या आते हैं तो यह सोचकर आते हैं अपने आराध्य राम की पुण्य भूमि को जब वे देखेंगे तो पाएंगे कि पूरी पुण्य भूमि राममय है। वे उसी मठ में पहुंचते हैं कि जहाँ नरहरि बाबा बालक तुलसी को पंच संस्कार कराने के लिए आए थे। परंतु वे पाते हैं कि मत में कोई साधु भाग घोट रहा है. कोई अन्य साधु पर लंगोटी चुराने का आरोप लगा रहा है तो कोई यजमान के यहाँ खाने में मिले मालपुए की प्रशंसा कर रहा है।

तुलसीदास सोचते हैं, कि यहाँ किसी के हृदय राम नहीं है। एक साधु उस मठ की वास्तविकता बताते हुए कहता है.”हिया तो शब, तो शब शाधू महात्मा तर माल चाभते हैं और भगतनिन शे रशजोग साधते हैं और ये शरक हियाँ ब्रह्मचर्य फैलइहै। कलयुग का शतयुग बनायें चले हैं।  ‘यहाँ से निराश होकर जब तुलसीदास रामानुजी सम्पदाय, के मन में कोतारी बन जाते हैं तो और भी निकरता मे मतों के भीतर को परिवेश को बहुत गहराई से देखते हैं। अपने इस अनुभव को तुलसीदास बतलाते हुए लिखते हैं.”रामानुजी सम्प्रदाय के मत में मैं कोठारी बन गया। महंत जी यों तो भले थे। कुशल, लोक व्यवहारी थे।

हाकिम हुक्का, धनी मानियों प्रायः मिलते-जुलते रहते थे परंतु चापलूसी बहुत पसंद करते थे। जो व्यक्ति उनके दरबार में बैठा रहे उनकी हाँ में ही मिलाता रहे. उनकी रक्षिता-पिया को सराहे और मान दे वही उनका स्नेहमाजन बन सकता है। परंतु तुलसीदास कमी महतजी की चापलूसी नहीं करते और न ही न उनकी रक्षिता-प्रिया छबीली के आदेशों का पालन करते हैं। जब महंत जी उन्हें अपमानित करते हैं तो वे आत्मसन्मान को बचाने के लिए मत का त्याग कर देते हैं। परंतु समस्त धार्मिक समुदाय ही भ्रष्ट था ऐसा नहीं है।

नरहरि बाबा. शेष सनातन और स्वयं तुलसीदास इस बात का प्रमाण हैं कि धर्म के वास्तविक रूप यानी दया. करुणा. परदुःखकातरता, उपकार, निःस्वार्थ सेवा जैसे भावों को जीने वाले तथा उनका प्रसार करने वाले अनेक संत उस समय में मौजूद थे। बाबा तुलसीदास ने तो महामारी के समय सामान्य जन की सेवा का बीड़ा उठाया था और लो और एक ब्राहमण की हत्या करने वाले को क्षमा भी कर दिया था। धर्म यह व्यापक स्वरूप तुलसी के जीवन में साफ दिखाई देता है। समाज में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक साझा संस्कृति पनप रह थी। स्वयं तुलसीदास अयोध्या में मस्जिद में जाकर सोते हैं। उनका मानना था कि सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर ले जाने वाले रास्ते हैं।

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