वैष्ठवीकरण के कारण नई सामाजिक अपेक्षाओं का उदय हुआ है मूल्यों में परिवर्तन आए हैं, और राज्य एवं ष्टासन-व्यवस्था के स्वरूप बदल रहे हैं। इसका सीधा प्रस्ताव लोक-प्रष्ठासन पर पड़ा है और उस पर परिस्थितियों के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए दबाव डाला जा रहा है।
सचना प्रौद्योगिकी में आई क्रांति ने प्रष्ठासनिक प्रक्रियाओं के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया है। व्यापार के मार्ग में आने वाली रुकावटों को हटाने में कॉरपोरेट जगत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। पी.सर्नी के अनुसार ‘बदलते वैष्ठवीकृत, अंतर्राफ्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय परिवेष्ठा में राज्य अपने खुद के परिवर्तन का अभिकर्ता मात्र ही नहीं, वरन् वैष्ठवीकरण के विकास का मुख्य स्रोत भी है।’
नव-उदारवाद की अवधारणा निजीकरण, आर्थिक उन्मुखीकरण और सार्वजनिक वस्तुओं पर सरकारी व्यय में कमी आदि का समर्थन करती है। ये सभी तत्त्व वैष्ठवीकरण की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने में सहायक हैं। वैष्ठवीकरण के कारण व्यापार, वित्त और निवेष्ठा में व्यापक विस्तार हुआ है। तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति आई है और उच्च-स्तरीय उपभोक्ता की माँग में गणनात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही रूपों में वष्टद्धि हुई है।
राज्यकीबदलतीभमिका – वैष्ठवीकरण के कारण राज्य की पारंपरिक भूमिका में महत्त्वपूर्ण बदलाव आए है, राज्य हमेष्ठा से सामाजिक-ठासन का केंद्र बिंदु रहा है। पारंपरिक तौर पर, कई राज्ट्रों ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अपनाया, जोकि एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है,
जिसमें जन कल्याण के प्रति उच्च स्तर की जिम्मेदारी का बोध होता है। लोक प्रष्ठासन का बाजारोन्मुखी अभिगम एक ‘प्रतिस्पर्धी राज्य’ की ओर अग्रसर हो रहा है, जो स्थानीय, राजनीतिक तथा प्रष्ठासनिक संस्कष्टतियों से अलग, लोक-चयन, विनियमीकरण तथा निजीकरण को प्रोत्साहित करता है। पी. सर्नी (1997) प्रतिस्पर्धी-राज्य को एक मुख्य रूप से पदानुक्रमिक व गैर-वस्तुतीकरण अभिकर्ता से, प्रमुखतः एक बाजार-आधारित वस्तुतीकरण अभिकर्ता के रूप में परिवर्तन के तदत परिभाजित करते हैं।
राज्यसंस्थानोंकीजवाबदेही- वैष्ठवीकष्टत राज्य के बारे में यह आष्ठांका व्यक्त की जाती है कि यह अपने कुलीन तंत्रीय नीतियों के द्वारा आम आदमी पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाला है, लेकिन राज्य संस्थान लोगों की जरूरतों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को सुनिष्ठिचत कर इस आष्ठांका को खत्म कर सकता है।
‘गरीबी पर आक्रमण’ टीज़ंक से प्रकाष्ठिात विष्ठव विकास रिपोर्ट – में यह रेखांकित किया गया है कि लोक प्रष्ठासन को नीतियों को प्रभावी तरीके से लागू करना चाहिए, लोगों की जरूरतों के प्रति जिम्मेदार व जवाबदेह होना चाहिए तथा वंचित व जरूरतमंद लोगों के बीच संसाधनों का पुनर्वितरण करने का प्रयास करना चाहिए।
‘बाजार के लिए संस्थानों का निर्माण’ नाम से प्रकाष्ठिात विष्ठव विकास रिपोर्ट (2002) ने विचार व्यक्त किया है कि कमजोर संस्थान, विकष्टत कानून, भ्रज़्ट न्यायालय, पूर्वाग्रहों से ग्रसित उधार-व्यवस्था तथा लालफीताष्ठाही आदि ऐसे कारक हैं, जो गरीब लोगों को चोट पहुंचाते हैं तथा विकास को बाधित करते हैं। इन समस्याओं से प्रभावित देष्ठों ने इन समस्याओं के हल हेतु सूक्ष्म आवष्ठयकता पूर्ति हेतु संस्थानों को स्थापित कर लिया, जो आय में बढ़ोतरी करते हैं तथा गरीबी को कम करते हैं।
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