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भारत में पहचान की राजनीति

 पहचान की राजनीति ऐसी राजनैतिक विचारधाराएँ और तर्क होते हैं जो किसी देश, राज्य या अन्य राजनैतिक इकाई के पूर्ण हित को छोड़कर उन समूहों के हितों और परिप्रेक्ष्यों को बढ़ावा देने पर बल दें जिसके लोग सदस्य हों। यह समूह जाति, धर्म, लिंग, विचारधारा, राष्ट्रीयता, संस्कृति, भाषा, इतिहास, व्यवसाय या अन्य किसी लक्षण पर आधारित हो सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि जिस समूह के सन्दर्भ में पहचान की राजनीति की जा रही है उस समूह के सभी सदस्य ऐसी राजनैतिक गतिविधियों में भागीदार हों या उसका समर्थन करें।

सामान्यतः नृजातीयता को उन लोगों के एक समूह का संघटन माना जाता है जो संस्कृति, भाषा, धर्म, इतिहास आदि के लिहाज से सर्वमान्य सहज गण रखते हैं और जो ऐसे किसी अन्य समह से भिन्न होते हैं जो अपने अलग सर्वमान्य सहज गुण रखते हैं। यह संघटन एकल अथवा अधिक सहज गुणों पर हो सकता है। उदाहरण के लिए, भाषा धर्म (भारतीय संदर्भ में संप्रदायवाद के रूप में प्रसिद्ध) जाति अथवा जनजाति के आधार पर लामबंदी को नृजातीय लामबंदी माना जाता है।

ऐसे उदाहरणों में से एक हैं-पॉल आर.एस. ब्रास, जो जृजातीय लामबंदी तथा सांप्रदायिक लामबन्दी को अदल-बदल कर प्रयोग करते हैं। दीपांकर गुप्ता नृजातीय तथा संप्रदायवाद के बीच भेद करते हैं। उनका तर्क है कि नृजातीय अनिवार्य रूप से राष्ट्र-राज्य-राज्यक्षेत्र व संप्रभुता, के संदर्भ में किसी समूह के संघटन को किसी अन्य के साथ संबंध में इंगित करती हैं। एक नृजातीय समूह स्वयं को किसी राष्ट्र के राज्यक्षेत्र में आस्था का सच्चा अनुयायी होने की घोषणा करता है अथवा एक संप्रभु राज्य स्थापित करना चाहता है अथवा किन्हीं अन्य समूहों की निष्ठादारी पर संदेह करता है।

ऐसे राष्ट्र-राज्य के सहज गुणों का उल्लेख प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष हो सकता है। उनके विचार से वह सामूहिक संघटन नहीं है। यह मात्र सांप्रदायिक लामबंदी है. राष्ट्र-राज्य के प्रति किसी समह की निष्ठा पर संदेह अथवा उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता है।  सांप्रदायवाद में यह सरकार ही है जो संदर्भ बिंदु होती है; सरकार पर ही सांप्रदायिक समूहों के प्रति भेदभाव बरतने अथवा उनका समर्थन करने का दोष लगता है। देश व काल के बदलते प्रसंग में सांप्रदायवाद नृजातीयता में अथवा नृजातीयता सांप्रदायवाद में परिवर्तित हो सकती है।

कोई भी राष्ट्र-राज्य एक संप्रभु भौगोलिक सत्ता होता है जिसके आधार-स्तंभ होते हैं-इतिहास, संस्कृति, भाषा, धर्म अथवा सभ्यता पर आधारित एक समुदाय के सहभागिता मनोभाव।परंतु कुछ विद्वजन भारत को एक राष्ट्र-राज्य की नींव का आधार एकल राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता होता है।  इस प्रकार के समाज में लोग एक ही सर्वमान्य भाषा, संस्कृति अथवा धर्म भी अपनाते हैं।

चूँकि भारत में बड़ी संख्या में ऐसी राष्ट्रीयताएँ हैं जो भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलती हैं, भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक सहज गुण, इतिहास, धर्म आदि रखती हैं; वह एक बहुराष्ट्रीय राज्य होता है न कि राष्ट्र-राज्य । बहरहाल, सामान्यतः भारतीय संदर्भ में राष्ट्र-राज्य, राष्ट्र अथवा बहुराष्ट्रीय राज्य जैसे शब्दों का प्रयोग अदल-बदलकर किया जाता है।

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