प्रसंग-यह गद्यांश भुवनेश्वर के एकांकी ‘ताँबे के कीड़े लिया गया है। परदे के पीछे से यह आवाज सुनकर कि अब काँच और सीसे के बीजों की ईजाद हो गयी है और इनकी ईजाद के बाद बार-बार खेतों में बीज नहीं डालने पड़ेंगे। एक बार बीज बोकर हजार बार फसल काटी जाएगी- रिक्शेवाला कहता है कि
व्याख्या – हमारी भौतिकतावादी दृष्टि ने जो संसार में केवल भोग-विलास में केन्द्रित है, अध्यात्मवादी दृष्टि को नष्ट कर दिया है, हमारी विवेक बुद्धि नष्ट हो गयी है, हम अज्ञान में भटक रहे हैं। हमारी सवृत्तियाँ, उदात्त विचार, जीवनी शक्ति सब मटियामेट हो गये हैं।
हम भटक रहे हैं, कुछ नहीं सूझता कि क्या करें। हम सब अपनी और दूसरों की जिन्दगी की लाश ढो रहे हैं। हमारा जीवन निरर्थक बेमाने, बेवजूद हो गया है। सर्वत्र विज्ञान का बोलबाला है। सब केवल अपने-अपने संकुचित संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण से देखते हैं। समष्टि भावना के स्थान पर व्यष्टि भावना का शासन है। सब अपना-अपना ढोल पीट रहे हैं। लगता है अब मनुष्य विज्ञान का दास हो जायेगा, ज्ञान का शासन होगा और सद्वृत्तियों, संवेदनशीलता, भावुकता, कोमल भावनाओं का दम घुट जाने पर मनुष्य कुंठाग्रस्त होगा।
उसका सारा जीवन भय, आंतक, संत्रास में भीगेगा। उसे न शारीरिक सुख मिलेगा, न मानसिक शांति। जीवन-मूल्यों की कसौटी हृदय और आत्मा न होकर बुद्धि होगी। हर वस्तु का मूल्य विज्ञान निश्चित करेगा। उपयोगी और अनुपयोगी वस्तुओं का निर्धारण विज्ञान या भौतिकतावादी दृष्टि करेगी अर्थात कौन-सी वस्तु, कौन-सा रिश्ता उपयोगी है या अनुपयोगी है, लाभप्रद है या नहीं, इसका निर्धारण मनुष्य की स्वार्थवृत्ति, भौतिकतावादी दृष्टि करेगी।
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