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परमाणु युद्ध लड़ने या उसे रोकने के लिए शीत युद्ध के प्रतिद्वंद्वियों द्वारा अपनाई गई रणनीतियों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

 परमाणु युद्ध लड़ने अथवा इसे रोकने के लिए कई रणनीतियाँ हैं। इस उद्देश्य से जिन रणनीतियों की पहचान की गई है, वे 

(1) न्यूनतम अवरोधन, 

(2) विश्वसनीय आक्रमण की पहल,

(3) सुनिश्चित विनाश। कौन-सी रणनीति के कई रूप हो सकते हैं। किस रूप में यह रणनीति अपनाई जाए यह संबद्ध राष्ट्र की सक्षमता पर निर्भर करेंगे।

आक्रमण की पहल करने की सक्षमता के लिए बड़े रणनीतिगत बल की आवश्यकता होती है जोकि पहले आक्रमण में ही शत्रु की उल्लेखनीय क्षति कर दे और उसके अधिकांश रणनीतिक बलों को नष्ट कर दे। आक्रमण की पहल की उपयोगिता शत्रु को यह बताने में है कि किसी भी गंभीर उत्तेजनात्मक कार्यवाही के कारण ऐसा आक्रमण किया जाएगा कि उसके रणनीतिक बल नष्ट हो जाएँगे। आक्रमण उपरोक्त न्यूनतम आक्रमण नहीं अपितु व्यापक रणनीति के तहत किया गया हमला होगा। अन्य शब्दों में, अचानक हुए हमले को झेलकर इतनी शक्ति जुटाना कि आक्रमणकारी को गंभीर क्षति पहुँचाई जा सके।

अमेरिका का मानना था कि परमाणु हथियारों की संभावना की धमकियों के कारण अंत में कोरिया युद्ध समाप्त हो गया और चीन बातचीत करने के स्तर पर आ गया। बाद में राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने सुरक्षा की समस्या के समाधान के लिए अवरोधक रणनीति अपनाई। 1954 में अमेरिका के जॉन फोस्टर डलेस ने व्यापक प्रतिघात का सिद्धांत दिया। इस रणनीति का उद्देश्य सहनीय कीमत पर अवरोध को अधिकतम करना था। तर्क यह था कि स्थानीय प्रतिरक्षा व्यापक प्रतिशोध के पूर्ण अवरोधन द्वारा की जाए ताकि संभावित आक्रामक आक्रमण का मार्ग न चुन सके।

इस प्रकार से कोरिया जैसा परोक्ष युद्ध होने की स्थिति में अमेरिका, रूस अथवा चीन के विरुद्ध परमाणु हथियारों के प्रयोग द्वारा प्रतिघात लेगा। परंतु व्यापक प्रतिघात के सिद्धांत के अनेक आलोचक हुए हैं। सर्वाधिक अहम् आलोचना यूरोपवासियों द्वारा की गई थी जिसमें अमेरिका के सोवियत संघ के प्रति व्यवहार की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न लगाया गया।  क्या अमेरिका यूरोपीय क्षेत्र में स्थानीय संघर्ष होने की अवस्था में समग्र परमाणु युद्ध का जोखिम लेगा? क्या विचारधारा के पनपने से मूल सिद्धांत में संशोधन किया गया।

यह संशोध न रोबर्ट मैकनमारा ने सुनिश्चित विनाश, क्षति, सीमितता और लोचदार प्रतिक्रिया की रणनीतियों के अंतर्गत किया। व्यापक प्रतिघात की संकल्पना के सीमित विकल्प थे। मैकनमारा का मत था कि इसके अंतर्गत अन्य ठिकानों पर आक्रमण करने की योजना बनाना अनिवार्य था न कि शहरों पर जैसा कि व्यापक प्रतिघात में होता है। इसके अतिरिक्त आरंभिक हमले के प्रति लोचदार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आवश्यकता थी जिसमें परंपरागत और परमाणु प्रतिघातक हमला होगा, न किसी संदेहास्पद आक्रमण के विरुद्ध केवल व्यापक प्रतिघात।

अमेरिका और रूस दोनों दूसरे हमले (प्रतिघातक) के लिए सक्षम थे, परंतु 1970 के दशक तक अमेरिका ने भी मान लिया था कि परमाणु क्षेत्र में वह सोवियत संघ से आगे नहीं था।

इसी के उपरांत परमाणु हथियारों को सीमित करने की बात आई जिसका परिणाम स्ट्रेटिजिक माम्स लिमिटेशन टॉक्स के रूप में सामने आया। सोवियत परमाणु सिद्धांत और रणनीति के तीन प्रमुख मूल संघटक थे

(1) सैनिक संतुलन के संबंध में सोवियत संघ का उद्देश्य मात्रात्मक और गुणात्मक ” श्रेष्ठता” रहा है। साल्ट वार्ता के उपरांत ही सोवियत संघ अमेरिका पर भी श्रेष्ठता की स्थिति की बात को छोड़ पाया।

(2) सोवियत संघ का मत था कि युद्ध का आरंभ सोवियत संघ पर अचातक आक्रमण से होगा और यह लंबे समय तक चलने वाला संघर्ष नहीं होगा। 

सोवियत संघ पहल से युद्ध तभी करेसा जर माटो के हमले को स्पष्ट चेतावनी हो या फिर वह प्रत्युत्तर में हमले की अपनी क्षमता पर विश्वास रखेगा परंतु इनके लक्ष्य सैनिक केंद्र अथवा संचार अड्डे होंगे, न कि आम नागरिक। परमाणु धमकी की पृष्ठभूमि में सोवियत संघ परमाणु हथियारों को बढ़ाने और इनकी गुणवत्ता सुधारने के कार्य में जुटा रहेगा।

(3) सैनिक सिद्धांतों और रणनीति के कुछ अपने नियम होंगे। सोवियत संघ का मानना था कि अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो शक्तियों और सोवियत संघ के नेतृत्व वाली वारसा शक्तियों के बीच युद्ध साम्राज्यवादियों और समाजवादियों के मध्य तीसरा और निर्णायक युद्ध होगा और यह युद्ध सोवियत संघ के लिए “न्यायसंगत” युद्ध होगा।

सोवियत संघ इस युद्ध को आरंभ नहीं करेगा और न ही एकाएक आक्रमण करेगा। दूसरी ओर क्रांतिकारी आदोलन और अन्य न्यायसंगत युद्धों को वह समर्थन देता रहेगा। सोवियत संघ के पास युद्ध अयोधन की क्षमता थी परंतु युद्ध को इतना अवश्यंभावी नहीं माना जा सकता। विशेषकर खश्चेव के शांतिपूर्ण तरीके से मिलकर चलने के विचारों ने युद्ध होने के संबंध में सोवियत सोच को ही बदलकर रख दिया। खश्चेव के अनुसार विश्व में परमाणु परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में कोई भी युद्ध होना बता के लिए हानिकारक होगा। तथापि, इसका अर्थ यह नहीं होगा कि सोवियत संघ समाजवाद के प्रचार के लिए कार्य न करें और रणनीति के लाभों को प्रयोग में न लाए। 

(4) राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक शक्ति का सामान्य संतुलन तथा समाज और आम नागरिकों की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विशेषताओं पर आधारित रणनीति को महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना जाएगा। यह सोवियत संघ की विचारधारा पर आधारित होगी।

रणनीति तैयार करने में लेनिन, स्टालिन, खश्चेव अथवा ब्रेझनेव द्वारा प्रतिपादित समाजवाद की अहम् भूमिका होगी। परमाणु युद्ध के संबंध में सोवियत संघ का उद्देश्य मात्रात्मक और गुणात्मक “श्रेष्ठता” रहा है। साल्ट वार्ता के उपरांत ही सोवियत संघ अमेरिका पर अपनी श्रेष्ठता की स्थिति की बात को छोड़ पाया। परमाणु युद्ध के संबंध में अमेरिका और सोवियत संघ की विचारधारा और सिद्धांतों में “विजय” के मुद्दे पर अंतर था। सोवियत संघ के लिए “विजय” का अर्थ सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति था। इससे अभिप्राय सोवियत संघ का कम से कम नुकसान, नाटो/अमेरिका की हार तथा युद्ध के बाद के विश्व पर वर्चस्व स्थापित करना था जबकि अमेरिका की दृष्टि से युद्ध का अर्थ यथास्थिति बनाए रखने से था।

यह वैश्विक संतुलन को बनाए रखना चाहता था तथा विश्व में अमेरिका की श्रेष्ठता स्थापित करने के उपरांत अवरोधन की नीति के माध्यम से वैश्विक व्यवस्था कायम रखने के लिए कार्य करना चाहता था। 1983 के एक बहुचर्चित भाषण में अमेरिकी राष्ट्रपति, रोनल्ड रीगन ने प्रश्न किया था-“क्या बदला लेने की अपेक्षा जीवन बचाना बेहतर नहीं है?” उन्होंने दीर्घावधि अनुसंधान कार्यक्रम की बात की ताकि अमेरिका आक्रामक रणनीतिक परमाणु अस्त्रों की धमकी करके रूस के किसी संभावित प्रक्षेपास्त्र हमले से प्रतिरक्षा करने की थी। आक्रमणकारी परमाणु प्रक्षेपास्त्रों को अप्रचलित होने के तरीके बताने के लिए वैज्ञानिक समुदाय को संबोधित करते हुए रीगन वास्तव में, परमाणु युग में सुरक्षा रणनीति के रूप में युद्ध अवरोध पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहे थे।

अमेरिका का नया मत था कि शत्रु को व्यापक क्षति पहुँचा सकने वाली प्रतिघात क्षमता की अपेक्षा प्रतिरक्षा क्षमता पर आधारित युद्ध अवरोधन बेहतर विकल्प था।  इन अनुसंधान कार्यक्रम को रणनीतिगत रक्षा पहल और अन्य शब्दों में स्टार युद्ध कार्यक्रम कहा गया। एस.डी.आई. एक अनुसंधान कार्यक्रम था, जिसके अंतर्गत अंतरिक्ष पर आधारित नई प्रतिरक्षात्मक प्रौद्योगिकियों की संभाव्यता का पता लगाया जाना था। नई प्रौद्योगिकियों का उद्देश्य रूसी प्रक्षेपास्त्रों की पहचान करना, पीछा करना और नष्ट करना था। प्रक्षेपास्त्रों के कार्यशील होने के समय पर ही उनकी पहचान की जा सकती थी।

इसकी उड़ान के मार्ग पर पीछा किया जाएगा और इसके उड़ान भरने से लेकर अपने लक्ष्य तक पहुँचने के बीच कभी भी इसे नष्ट कर दिया जाएगा। पूरी प्रणाली अंतरिक्ष में स्थित पहचान प्रणालियों पर आधारित होगी और उसके लिए जो हथियार प्रयोग में लाए जाएँगे वे लेजर किरणों, उच्च ऊर्जा कण किरणों, काइनेटिक ऊर्जा इत्यादि सहित अपरमाणु होंगे। यह कार्यक्रम बैलस्टिक प्रक्षेपास्त्र विरोधी संधि 1972 से भी बेहतर कार्यक्रम था जिसमें अमेरिका तथा सोवियत संघ के कमान और नियंत्रण केंद्रों की एंटी बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली से रक्षा की जाएगी। ए बी एम ने प्रत्येक देश में एक कमांड और नियंत्रण केंद्र के लिए रक्षा प्रणाली विकसित करने की औपचारिक रूप से पहचान की जबकि एस.डी.आई. (स्टार वार) काल पूरे-माछा करना था।

सोवियत संघ ने अमेरिका के कार्यक्रम को गंभीरता में लिया और उसे यह लगर्न भाषण कि अमेरिका इस क्षेत्र में 1950 के दशक का एकाधिकार पुनः प्राप्त करने का प्रयास कर रहा भा। इस कार्यक्रम के प्रतिपादकों द्वारा प्रायोगिकीय विकास संबंधी दावे व्यावहारिक नहीं बन पाए जिसके परिणामस्वरूप कार्यक्रम का कार्यक्षेत्र और आकार कम किया गया। उसके बाद अमेरिका ने एस.डी.आई. के अधीन थियेटर प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली ष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली विकसित की। पहली रक्षा प्रणाली विशिष्ट राजनीतिक क्षेत्रों जैसे पश्चिमी यूरोप, अमेरिका और कनाडा की प्रमुख भूमि की रक्षा करने के लिए बनाई गई। 

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