Recents in Beach

चर्चा कीजिए कि किस प्रकार लोकतंत्र और विकास एक दूसरे से सह-संबंधित हैं।

  लोकतंत्र एवं विकास के बीच संबंध विषयक बहस दो सवाल उठाती है-क्या वे एक-दूसरे के प्रति सुसंगत हैं? अथवा वे एक-दूसरे के विरोधी हैं? जीरजा जयाल का दावा है कि भारत में यह बहस कुछ-कुछ गलतफहमी की शिकार” रही है। इसमें मूल रूप से अर्थशास्त्रियों द्वारा उलझाया गया है। दीपक नय्यर का दावा है कि भारत में आर्थिक विकास तथा राजनीतिक लोकतंत्र के बीच तनाव रहा है। लोग, खासकर गरीब, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में शामिल हैं परन्तु उन्हें पण्यक्षेत्र से बाहर कर दिया गया है।

बाजार में अभिजात्यों का अनन्य प्राबल्य ही देखा गया। राज्य मुख्यतः अभिजात वर्ग के हितों/विवादों के प्रबंधन से ही संबद्ध रहा है। स्वातंत्र्योत्तर काल में राज्य की भूमिका की तुलना में विवादों का प्रबंधन और लोगों, खासकर गरीब के हितों की दिशा में तीन चरण पूरे हुए-1947, 66, 90, एवं 1990 के उपरान्त। प्रथम चरण की पहचान थी राज्य की प्रमुख भूमिका जो विभिन्न हितों की सर्वसम्मति प्राप्त करने में समर्थ था। दूसरे चरण में, राज्य की प्रभावकारिता एवं मतैक्य प्रतिमान में कोई कमी नहीं थी।

राज्य ने धनी किसानों को संयोजित करने के राजनीतिक प्रयास किए, और विभिन्न वर्गों के हितों को साधने के लिए लोकप्रियतावाद एवं प्रश्रय का सहारा लिया। इस चरण में भी कुछ हद तक गरीबी में कमी और बाजार की बढ़ती भूमिका। यह उदारवाद की राजनीति के साथ-साथ ही हो रहा है। नय्यर के मतानुसार, भारत में पहली बार उदारीकरण का अर्थशास्त्र तथा सशक्तीकरण की राजनीति विपरीत दिशाओं में जा रहे हैं। लोगों के पास राजनीतिक अधिकार है परन्तु वे बाजार में भागीदारी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके पास हकदारियों एवं क्षमताओं का अभाव है।

विभिन्न हितों के बीच मध्यस्थता करने अथवा मेल-मिलाप कराने के लिए राज्य का कोई प्रयास नहीं है। ऐसी स्थिति में जहाँ राज्य कोई प्रभावी एवं मध्यवर्ती भूमिका नहीं निभा सकता है, उनका सुझाव है कि सभ्य समाज हस्तक्षेप कर सकता है। प्रणव वर्धन है कि लोकतंत्र एवं विकास असंधेय हैं। भारत में मख्य स्वाम्याधीन वर्ग हैं-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग, धनी किसान और निजी क्षेत्र के व्यवसायी। उनके हित विवादग्रस्त हैं और राज्य उनके बीच एक मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।

साथ ही, “नीचे से हलचल’ देखी जाती है-विभिन्न अलाभान्वित समूहों का दावा। उनके हितों तथा धन-सम्पन्न वर्गों के हितों के बीच विवाद है। विभिन्न समूहों के संघटन में एक सुधार-विरोधी प्रवृत्ति भी पायी जाती है। यह बात आर्थिक सुधारों के लिए माहौल खराब करती है। वे लोग जो लोकतंत्र एवं विकास की असंगतता के विषय में तर्क देते हैं, दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों का संदर्भ देते हैं जहाँ वास्तविक विकास अलोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्थाओं में ही हुआ है। 

अमर्त्य सेन ने विकास एवं लोकतंत्र विषयक एक असंदिग्ध संदर्श प्रस्तुत किया है। वे असंगत नहीं है जबकि लोकतंत्र एवं विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। लोकतंत्र संभव है यदि समाज में लोगों के पास हकदारियाँ हों और वे ऐसी क्षमताएँ रखते हों जो उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनने में मदद करती है। स्वतंत्रता, जो लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है जो विकास को लोगों की हकदारियों एवं क्षमताओं के लिहाज से बढ़ावा देती है। विकास लोकतंत्र के विषय में भी प्रासंगिक है।

Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE

For PDF copy of Solved Assignment

WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

Post a Comment

0 Comments

close